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असम, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में किस तरह काम करता है निवारक निरोध कानून 

निवारक निरोध के लिए केंद्रीय कानूनों के कठोर प्रावधानों को बहुधा असम, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में लागू किया जाता है।
असम, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में किस तरह काम करता है निवारक निरोध कानून 

केंद्रीय कानूनों के कठोर प्रावधान प्राय : असम, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में निवारक निरोध (Preventive detention) के लिए अमल में लाए जाते हैं। प्रस्तुत लेख में शिवांश सक्सेना बताते हैं कि इन राज्यों की विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कम ही चर्चाएं की गई हैं, जो सरकारों की मनमानी से जरा भी कम नहीं हैं। 

संविधान ने संसद को कानून बनाने का एकमुश्त अधिकार दिया हुआ है, जो राज्य की सुरक्षा करने, सार्वजनिक विधि-व्यवस्था बनाये रखने, और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बहाल रखने से संबंधित कार्यों के लिए निवारक निरोध कानून की इजाजत देता है। इन कानूनों को बुनियादी प्रक्रियात्मक अधिकारों का पालन करने की बाध्यता नहीं है। असम, उत्तर प्रदेश, और हरियाणा में निवारक निरोध के उपयोग में आने वाले केंद्रीय कानूनों के अलावा, इन राज्यों की विधानसभाओं द्वारा कई ऐसे अधिनियम पास किये गये हैं, जिन पर बहुत कम चर्चा की गई हैं।

असम में निवारक निरोध कानून

असम सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के अंतर्गत लोगों को निरुद्ध (डिटेन) करती है। लेकिन राज्य की विधानसभा ने  19 जुलाई 1980 को असम प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट (एपीडीए) भी बनाये हुए है, जो लोगों को ऐसे कामों से रोकने के लिए उन्हें निरुद्ध करने का अपार अधिकार देता है, जिनसे राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, और इसी तरह के अन्य मामलों में नुकसान पहुंच सकता है। राज्य सरकार में सचिव और जिलाधिकारी या उसके स्तर के सरकारी अधिकारी के पास ही उन मामलों में लोगों को निरुद्ध करने का अधिकार होता है। उनसे कम स्तर के अधिकारी को यह अधिकार नहीं दिया गया है। 

निवारक निरोध (Preventive detention) का मतलब आपराधिक सुनवाई की संभावना के बिना ही किसी को भी हिरासत में लेना है। इसका मतलब, इसे लागू करने के लिए किसी अपराध की पुष्टि होने/करने या शिकायत दर्ज करने की जरूरत नहीं है। निवारक निरोध कानून मानक आपराधिक कानूनी प्रक्रिया से अलग है और (राज्य के लिए) एक विशेष अधिकार का सृजन करता है, जो शक-शुबहा के आधार पर ही व्यक्ति/व्यक्तियों को निरुद्ध करने की इजाजत देता है।

धारा-3 एक मुहावरे का इस्तेमाल करती है, “राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने तथा समुदायों को आवश्यक वस्तुओं के प्रदाय और सेवाएं बहाल रखने में किसी भी तरह के नुकसान होने पर की जाने वाली कार्रवाई”, जिसे चोरबाजारी निवारण और आवश्यक वस्तु प्रदाय अधिनियम, 1980  की धारा 3 की उपधारा 1 की व्याख्या के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। यह धारा कहती है कि इसका मतलब, “अपराध करना या किसी व्यक्ति को किसी भी तरह का अपराध करने के लिए उकसाना एक दंडनीय अपराध है”। इस धारा के तहत पहले किसी व्यक्ति को कारावास में रखने की अधिकतम अवधि 6 महीने थी, जिसे 2011 में एक संशोधन के जरिये बढ़ा कर 12 महीने कर दी गई। 

एपीडीए  की धारा 4 और 16 बिना किसी जवाबदेही की मनमाने तरीके से किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने का प्रावधान करती है। यह कहती है, “निरुद्ध करने के हुक्म की तामील देश के किसी भी कोने में कराई जा सकती है।” इसका मतलब होता है कि निवारक निरोध के अधिकार के दायरे को पूरे देश तक बढ़ा दिया गया है, जो विशुद्ध रूप से राज्य के फैसले पर आधारित है। 

धारा 16 “सद्भावना” में राज्य और उसके हुक्मरानों के विरुद्ध किस तरह के अभियोग या किसी अन्य न्यायिक प्रक्रिया के पचड़े से छूट दे देती है। नेकनीयती/सद्भाव या गुड फेथ एक ऐसा संदर्भ है,जिसे राज्य के प्रसंग में उसकी सुविधानुसार गूंथी गई मिट्टी की माफिक एक मनचाहा अर्थ अथवा आकार दिया जा सकता है। जाहिर है कि इससे हिरासत में लिये गये व्यक्ति/व्यक्तियों की नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है। अभियोजन से ऐसी मुक्ति का प्रावधान क्रूर आर्म्ड फोर्स (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट,1958 में भी देखा जा सकता है। 

एपीडीए में विवेकाधीन शक्तियां सलाहकार बोर्ड, जिसमें गुवाहाटी उच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश और दो सेवानिवृत्त न्यायाधीश या देश के किसी भी उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश होते हैं, में सन्निहित की गई हैं। इस बोर्ड को बहुमत की राय पर आधारित अपनी रिपोर्ट 7 हफ्तों के भीतर सरकार को सौंपनी होती है कि हिरासत में लिए गये व्यक्ति के विरुद्ध मामले का पर्याप्त आधार है अथवा नहीं। पर्याप्त आधार नहीं होने की सूरत में उस व्यक्ति को हिरासत में रखे जाने का आदेश वापस ले कर उसे रिहा कर दिया जाता है। 

हालांकि इसमें एक कमी है: सलाहकार बोर्ड की प्रक्रियाएं गोपनीय होती हैं। प्रशासन में ऐसी अपारदर्शिता अपने राजनीतिक असंतुष्टों के दमन का एक उपकरण हो सकती है। इस संदर्भ में, सरजमीनी नेता अखिल गोगोई के मामले में शक्तियों के इस्तेमाल में राज्य की “शिथिलता और अनियमितता” को स्वयं गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी उजागर किया है। 

उत्तर प्रदेश 

उत्तर प्रदेश  व्यक्तियों को हिरासत में लेने के लिए कुख्यात है।  इनमें अधिकतर मामले राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 के अंतर्गत तथाकथित गोकशी के हैं।  इंडियन एक्सप्रेस अखबार द्वारा किए गए एक अध्ययन में दिखाया गया है कि हालिया वर्षों में इस कानून के साथ मनमाना व्यवहार किया गया है। राज्य के अधिकारियों से यह स्पष्टीकरण अभी लिया जाना है कि कथित रूप से गोकशी करने वाला एक व्यक्ति राज्य की सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था का किस प्रकार उल्लंघन करता है, जिसके खिलाफ वे एनएसए के तहत अभियोग लगाते हैं।

राज्य में जनवरी 2018 से लेकर दिसंबर 2020 तक एनएसए के अंतर्गत 18 लोगों को हिरासत में लिया गया है,  जिनके 200 दिनों तक हिरासत में रहने के बाद अदालत ने पहले ही जमानत दे दी है।  हिरासत में लिए गए तीन मामलों में,  एक व्यक्ति 300 दिन की हिरासत में रहा,  एक मामले में 325 दिन और एक अन्य मामले में 308 दिन तक हिरासत में रहा था।  केंद्रीय कानून एनएसए के अलावा, उत्तर प्रदेश कंट्रोल ऑफ़ गुंडाज एक्ट,1970 भी बनाया हुआ है, जो “गुंडों” के “निर्वासन (राज्य निकाला)” की इजाजत देता है।

यह कानून गुंडा को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है, जो या तो खुद या किसी गैंग का एक सदस्य या उसका सरदार है, जो आदतन अपराधी है या जुर्म की कोशिश करता है या दूसरे को जुर्म करने के लिए उकसाता है। इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 2 (बी)   किसी व्यक्ति को “गुंडा” निर्धारित करने के लिए 11 चिह्नक निरूपित करती है। यह भी मनमानी का ही मामला है, क्योंकि यह अपनी धुरी में ऐसे व्यक्ति को ले आती है, जो “आम तौर पर एक ऐसे व्यक्ति के रूप में ख्यात है, जो हताश है तथा समुदाय के लिए खतरनाक हो सकता है।” 

उत्तर प्रदेश में गुंडा एक्ट का पाट व्यापक है। राज्य सत्ता जिसे चाहे उसे एक गुंडा करार दे कर उसके ‘निर्वासन’ का फैसला ले सकती है। 

एपीडीए अथवा एनएसए में विवेकाधीन शक्तियां सलाहकार बोर्ड में समाहित की गई हैं। गुंडा नियंत्रण कानून में विवेकाधीन शक्तियां जिलाधिकारी के पास हैँ। इससे इस कानून के सरकार द्वारा शोषण का एक उपकरण बन जाने की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। हाल ही में राज्य विधानसभा ने एक विधेयक पारित किया है, जो गुंडा अधिनियम में संशोधन कर संयुक्त  पुलिस कमिश्नर और उप पुलिस कमिश्नर को भी इसके अंतर्गत कार्रवाई करने के लिए अधिकृत करता है।  अभी यह विधेयक विधान परिषद के पटल पर है। 

हालांकि सलाहकार बोर्ड हिरासत में लिए गए व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के मामले में नख-दंत विहीन साबित हुआ है, जिस पर एनएसए  के तहत अभियोग दर्ज कराया गया है।  इसका मतलब होता है कि अदालत  से जमानत मिल जाने के बाद भी उसकी रिहाई नहीं हो सकती। गौरतलब है कि इन सभी विचाराधीन मामलों में बोर्ड ने व्यक्ति की हिरासत को बरकरार रखा है। 

दूसरी तरफ,  उत्तर प्रदेश में,  अगर कोई व्यक्ति एक बार जिलाधिकारी के समक्ष एक गुंडा के रूप में पेश हो जाता है, वह खुद उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर चला जाए अथवा आदेश में उल्लिखित किसी भी वस्तु पर वह अपना अधिकार जमाने या उसके द्वारा उपयोग करने से बाज आए। 

हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को अपने खिलाफ लगाए गए इल्जाम से खुद के वाकिफ होने, अपनी पसंद के वकील से राय-मशविरा करने तथा इल्जामात के बारे में गवाहों के जरिये अपनी हकीकत बयां करने, जो उसकी कैफियत की  पूरी ताकीद करे, उसका हक उसे दिया गया है। 

हालांकि इन अधिकारों को जिलाधिकारी द्वारा प्रतिबंधित या सीमित किया जा सकता है अगर वह महसूस करता है, उसकी यह अपील मामले को लटकाने के लिए की जा रही है। हिरासत की अधिकतम अवधि दो साल को किसी भी सूरत में नहीं बढ़ाई जा सकती। 

अगर कोई व्यक्ति  इस कानून की धारा 3, 4 और 5  से पीड़ित है, वह कमिश्नर के समक्ष 15 दिनों के भीतर अपील दायर कर सकता है।अब कमिश्नर  उस आदेश की पुष्टि कर सकता है,  उसमें संशोधन कर सकता है,  उसे परे रख सकता है या लंबित अपील का निपटारा कर सकता है,  या इसे सभी शर्तों पर अनुकूल जान कर आर्डर पर स्टे भी लगा सकता है। यह मुनासिब है कि गुंडा अधिनियम के अंतर्गत निर्णय लेने वाले सारे अधिकारी राज्य सरकार के मातहत हैं,  वे न्यायपालिका का हिस्सा नहीं हैं,  यह स्थिति भी उत्तर प्रदेश में सरकार के मामलों की  कैफियत देती है। 

हरियाणा

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 25 नवंबर 2020 को एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की बाबत हरियाणा सरकार को एक नोटिस जारी किया था। यह याचिका किसानों द्वारा गठित एक पैरोकारी समूह द्वारा दायर की गई थी, जिसमें उन 100 किसानों की रिहाई की मांग की गई थी, जिन्हें ‘दिल्ली कूच’ करने के पहले ही आधी रात को हिरासत में ले लिया गया था। इन किसान नेताओं के घर पर रात के 1 बजे से लेकर 3 बजे तक छापेमारी की गई थी, गोया वे सब के सब वांछित अपराधी हों।

पूरे देश के  लगभग 500 किसान संगठनों ने  अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआइकेएससीसी)  के “दिल्ली चलो”आह्वान का समर्थन किया था। इस अभियान के तहत आंदोलित किसान  केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने पर जोर देने के लिए 26-27 नवंबर 2020 को दिल्ली कूच करना चाहते थे। 

इन किसानों को हिरासत में लेने कोई वजह नहीं बताई गई और न उनके द्वारा उस दिन किये गये किसी गुनाह का ब्योरा ही उन्हें दिया गया। राज्य सरकार ने भी इस मामले में कोई जवाब दाखिल नहीं किया है और न ही इसका खुलासा किया है, जिसके तहत 100 किसानों को हिरासत में लिया गया है। 

पंजाब राज्य सुरक्षा अधिनियम,1953 किसी भी व्यक्ति को राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था (धारा 7), और इसी तरह के मामले में नुकसान पहुंचाने से रोकता है।  उत्तर प्रदेश गुंडा अधिनियम की तरह हिरासत में लिए जाने का आदेश जिलाधिकारी द्वारा जारी किया जाता है।  अधिनियम की धारा 6 जिलाधिकारी को किसी भी सार्वजनिक स्थान में जुलूस निकालने अथवा प्रदर्शन करने से रोकने का अधिकार देती है। 

राज्य सरकार ने एक सलाहकार परिषद का गठन किया हुआ है, जिसमें एक उसके अध्यक्ष और दो सदस्य हैं, ये सब के सब उच्च न्यायालय के वर्तमान अथवा सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं।  यह सलाहकार परिषद 30 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंपेगी, जिसके आधार पर राज्य सरकार  उस व्यक्ति पर लगे प्रतिबंध का अनुमोदन कर सकती है, उसमें संशोधन कर सकती है अथवा उसे रद्द कर सकती है। 

सरकार ने निवारक उपायों के अंतर्गत किसानों को गिरफ्तार कर या उन्हें हिरासत में लेकर लोगों की आवाज को दबाना चाहा है।

राज्य सरकार सलाहकार परिषद के बीच होने वाला पत्राचार गोपनीय होता है।  यहां तक कि अदालतों को भी किसी भी सरकारी अफसर से कोई दस्तावेज लेने की मनाही है।  हालांकि,  आरटीआई कभी-कभी उन मसौदों को उजागर करने में मदद कर सकती है। 

निवारक निरोध क्यों नहीं

भारत में और बाकी जगह के समर्थक निवारक निरोध को आवश्यक बनाते हैं,  उदाहरण के लिए आतंकवादी हमले का निवारण करने या राष्ट्रीय अस्तित्व पर आए संकट को दूर करने के लिए। वे दावा करते हैं कि खतरे की गंभीरता को देखते हुए व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाया जाना युक्तिसंगत है। 

यद्यपि अधिकतर विदेशी समर्थक निवारक निरोध को एक असामान्य परिस्थितियों में किया गया एक अंतिम उपाय मानते हैं जबकि भारत  रोजाना होने वाले एक तुच्छ आपराधिक मामलों में भी निवारक निरोध कानून लागू कर देता है। 

एक लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्था वाले देश में, इस तरह के उपायों पर अमल को न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि, विवादास्पद व्यवहारों को “असाधारण उपायों” के रूप में चित्रण करने की प्रवृत्ति बढ़ी है, जिसे केवल बहुत आवश्यक होने की स्थिति में ही लागू किया जा सकता है। निवारक निरोध अंतरराष्ट्रीय समाज के महत्वपूर्ण दोषों को समझने में कठिन बना देता है और इसलिए यह दीर्घकालीन, खास कर मौलिक अधिकारों को परिभाषित करने के लिए आवश्यक सार्थक विमर्श में एक व्यवधान डाल देता है। 

( शिवांश सक्सेना  इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के अंतर्गत विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज के छात्र हैं।  आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

 यह लेख मूल रूप से दि लीफ्लिट में प्रकाशित हुआ था ।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

How Preventive Detention Laws in Assam, UP, and Haryana Work

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