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तिरछी नज़र: पेपर लीक पर जीएसटी की ज़रूरत

सरकार जी को पेपर लीक में बिकने वाले पेपरों की ख़रीद फ़रोख़्त को जीएसटी के अंदर ले आना चाहिए। इससे पेपर लीक क़ानूनी भी हो जायेगा, 'पेपर लीक स्कीम' को बढ़ावा भी मिलेगा और सरकार की आय जो बढ़ेगी, सो अलग। 
paper leak
प्रतीकात्मक तस्वीर: गूगल से साभार

चुनाव हो गए और परिणाम भी आ गया। चुनाव शांति पूर्ण रूप से संपन्न हुए। चुनाव के दौरान जो भी लोग मरे वे लू लगने से मरे। चुनावी ड्यूटी में लगे लोग भी मरे और वोट डालने की लाइन में लगे लोग भी मरे। उनके मरने की हमें चिंता नहीं है। चिंता तो हमें तब होती है जब चुनावी हिंसा में लोग मरते हैं। देश में लू लगने से तो लोग हर साल मरते हैं। बस संतोष यही है कि चुनाव में लोग आपसी लड़ाई में नहीं मरे। आदमी और लू की लड़ाई में आदमी मरे तो कोई दिक्कत नहीं है। बस आदमी और आदमी की लड़ाई में आदमी नहीं मरने चाहिए।

चुनाव के बाद सरकार जी नहीं बदले। सरकार जी वही रहे जो चुनाव से पहले थे। वैसे यह अच्छा ही हुआ। अगर सरकार जी बदलते तो बहुत सारी चीजों को भी बदलना पड़ता। बहुत सारे अफसरों को भी बदलना पड़ता। कुछ अफसर इस्तीफा देते और जो इस्तीफा नहीं देते, वे निकाले जाते। कुछ का तबादला भी होता। कुछ जाते तो कुछ नये भी आते। अगर सरकार जी बदलते तो सबसे ज्यादा दिक्कत ईडी, सीबीआई और आयकर अफसरों को होती। उन्हें तो सिर छिपाने की जगह तक नहीं मिलती।

जब अफसर लोग इधर से उधर जाते हैं, उनका तबादला होता है तो देश का बहुत सा पैसा खर्च होता है। अच्छा हुआ, सरकार नहीं बदली और देश का इतना सारा पैसा बच गया। देश के लोग देश का पैसा बचाना चाहते हैं जिससे कि देश के सरकार जी अपने लिए बड़ी कार खरीद सकें, एक बड़ा हवाई जहाज खरीद सकें। सरकार जी अपने रहने के लिए नया मकान बनवा सकें। नया सांसद भवन बनवा सकें। यह सब तो हो गया है तो सरकार जी उस जैसे कई अन्य काम कर सकें।

सरकार जी खुद तो बदले ही नहीं, अपने अधिकतर मंत्रियों के मंत्रालय भी नहीं बदले। सरकार जी अपने सभी मंत्रियों के कम काम करने से बहुत खुश जो थे। इसका भी एक बहुत बड़ा लाभ हुआ। अब पुराने लेटर हेड, पुराने नेम प्लेट आदि से ही काम चल जायेगा। इससे भी बहुत बचत होगी। जब एक जिले का, एक शहर का नाम बदलने में ही करोड़ों खर्च हो जाते हैं तो इस काम में कितने खर्च हो जाते, सोचो जरा। 

सरकार जी बदल जाते तो हम व्यंग्य लिखने वालों को भी मुसीबत आ जाती। दस साल से इन वाले सरकार जी पर ही व्यंग लिखने की आदत पड़ गई है। व्यंग्य लिखते रहे, चार बार कपड़े बदलने पर लेकिन अगर कोई ऐसा आ जाता जो दिन भर एक ही शर्ट में निकाल देता तो? 

हम व्यंग लिखते रहे दो लाख के चश्मे पर और डेढ़ लाख के पेन पर। कोई इतना खर्चीला न होता तो? दस बीस रुपये के पेन से फ़ाइलें निपटा देता तो? तो हम क्या करते? 

हम व्यंग्य लिखते रहे, मोर को दाना खिलाने पर। पर दूसरा कोई मोर को दाना न खिलता होता तो? अगर सरकार जी सरकार जी नहीं रहते और कोई दूसरा सरकार जी बन जाता तो? अगर वह ढंग से काम करता तो? वह इतनी नाटकबाजी न करता तो? हमारी तो ऐसी की तैसी हो जाती। व्यंग्य के लिए नये नये टॉपिक ढूंढ़ने पड़ते। अधिक मेहनत करनी पडती।

सरकार जी का सरकार जी बने रहने का लाभ यह है कि नया नहीं लिख पाए तो कुछ फेर बदल कर पुराना ही ठेल दो। अरे सरकार जी भी पुराने ही हैं, काम करने का ढंग भी पुराना ही है। तो व्यंग भी पुराना ही चल जायेगा। 

हाँ, सरकार जी नहीं बदले हैं तो एक और प्रथा जरूर कायम रहेगी। नेहरू जी की बुराई करने की प्रथा। अब वही सरकार जी हैं तो नेहरू की बुराई करनी ही पड़ेगी। सरकार जी बदल जाते तो नये सरकार जी इन वाले सरकार जी की बुराई करते। दस साल से हो रही नेहरू की बुराई होनी बंद हो जाती। हमारे दस साल से चले आ रहे सरकार जी अब अगले पांच साल और नेहरू की बुराई करेंगे। अब सरकार जी नहीं बदले हैं तो नेहरू की बुराई की प्रथा, हर गलत काम के लिए नेहरू को ही जिम्मेदार ठहराने की प्रथा कायम रहेगी।

अब देखो, यह जो नीट का घोटाला है ना, उसके लिए तो नेहरू ही जिम्मेदार हैं। जब अबके सरकार जी जिम्मेदारी नहीं ले रहे हैं तो जिम्मेदारी नेहरू की ही तो बनती है। एम्स नेहरू ने ही खोला था ना। और नेहरू ने ही लोगों के दिमाग़ में यह बात डाली कि अच्छे संस्थान खुलने चाहिए और अच्छे संस्थानों से ही से पढ़ना चाहिए। और यह भी कि अच्छे संस्थान से पढ़ना है तो कम्पटीशन देना होगा, अच्छा स्कोर लाना होगा और मेरिट में आना पड़ेगा। नेहरू चाहते तो नियम बना देते, एम्स से एमबीबीएस करना है तो दस करोड़ लगेगा। मौलाना आज़ाद, केजीऍमसी (अब केजीएमयू) या उसके बराबर के कॉलेज से करना है तो आठ करोड़ में काम चल जायेगा। कॉलेज उससे कम स्तर का होगा तो कम में भी काम हो जायेगा। पर काम होगा पैसे से ही। लेकिन नेहरू नेहरू थे। उन्होंने नहीं किया। कहा, मेरिट से होगा। मेरिट में आगे हुए तो अधिक अच्छा कॉलेज, पीछे हुए तो कम अच्छा कॉलेज। कौन था उनको रोकने वाला? जो रोकने वाले थे, उस समय वे अल्पमत में थे।

पर आज वे बहुमत में हैं। कहते हैं, दाखिला मेरिट कम मीन्स से होगा। मतलब मेरिट से कम, मीन्स से ज्यादा होगा। अच्छे पैसे हों तो अच्छा कॉलेज, नहीं तो ख़राब कॉलेज। साठ लाख में पेपर खरीद लो और मेरिट में स्थान पा जाओ। लेकिन एक दिक्कत हो गई। सिर्फ साठ लाख में पेपर लीक करने से समस्या यह हो गई कि एम्स दिल्ली में एमबीबीएस की जितनी सीटें हैं उससे ज्यादा तो फर्स्ट ही आ गए। उससे ज्यादा तो पूरे बटे पूरे नंबर आ गए, सात सौ बीस में से सात सौ बीस आ गए। लो कर लो बात। एक तरीका है इस समस्या से बचने का। पेपर लीक की कीमत बढ़ा दो। पेपर लीक इतना महंगा कर दो कि उसको बिरला ही खरीद सके। इतना सस्ता पेपर लीक करोगे तो यह समस्या आएगी ही।

ठीक है सरकार जी के पास मनमाने कानून बनाने का बहुमत नहीं है। वैसा बहुमत तो नहीं ही है जैसा पिछले दस सालों में था। और पिछले पांच साल जैसा बहुमत तो हरगिज़ ही नहीं है। फिर भी पेपर लीक के बारे में कुछ एक कानून तो बना ही सकते हैं। एक तो पेपर लीक इतना सस्ता नहीं होना चाहिए। नीट का पेपर लीक और वह भी सिर्फ साठ लाख में। इतने में तो चपरासी की नौकरी का पेपर भी लीक नहीं होता है। अरे भई! डाक्टरी में भर्ती की परीक्षा है, थोड़ी तो मर्यादा रखनी चाहिए। 

दूसरे, पार्शियल पेपर लीक की सुविधा भी होनी चाहिए। मतलब कि यदि पूरा पेपर एक करोड़ में लीक हो रहा है तो यह सुविधा होनी चाहिए कि पचास लाख में आधा पेपर लीक हो जाये और पचीस लाख में एक चौथाई। यानी जिसकी चादर जितनी लम्बी हो वह उतना ही पेपर लीक करवा ले। इससे पेपर लीक की सुविधा सिर्फ अमीरों तक ही सीमित नहीं रहेगी, गरीब भी अपनी सामर्थ्य अनुसार पेपर लीक करवा सकेंगे। जैसे पांच लाख में पांच प्रतिशत पेपर लीक। 

तीसरी बात एक और। सरकार जी को पेपर लीक में बिकने वाले पेपरों की खरीद फरोख्त को जीएसटी के अंदर ले आना चाहिए। इससे पेपर लीक कानूनी भी हो जायेगा, 'पेपर लीक स्कीम' को बढ़ावा भी मिलेगा और सरकार की आय जो बढ़ेगी, सो अलग। जिन सरकार जी ने जीएसटी कलेक्शन बढ़ाने के लिए कॉपी, कलम, रबर, पेन्सिल और आटा, दाल-चावल, दूध-दही जैसी चीजों पर जीएसटी लगाने से परहेज नहीं किया है, वे अब पेपर लीक पर जीएसटी क्यों नहीं लगा रहे हैं? यह बात तो भईया, समझ से परे है। अब बस सरकार जी पेपर लीक पर भी इस तरह के सारे कानून बना दें, जीएसटी भी लगा दें। लोकसभा में पास होने की चिंता न करें। हमारे ओम बिरला जी ही लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर हैं।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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