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अब जोखिम का काम हो गया है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इंसाफ़ की मांग करना

क्या हिमांशु कुमार को सुनाया गया जुर्माना एक तरह से उस बदलते ‘न्यायिक पैटर्न’ को प्रतिबिम्बित करता है, जिसकी झलक हम पिछले ही माह तीस्ता सेतलवाड़ और पी बी श्रीकुमार के मामले में देख चुके हैं। प्रश्न उठता है कि क्या यह कार्रवाई एक तरह से आने वाले दिनों का संकेत है कि अब सत्य की मांग करना भी कुफ़्र समझा जाएगा।
Himanshu Kumar and Teesta Setalvad

प्रेमचंद प्रसाद युग के कहानीकार सुदर्शन (1896-1967) की वह कहानी ‘हार की जीत’ लंबे समय तक विद्यार्थियों को सम्मोहित करती रही है।

बाबा भारती के प्रिय घोड़े सुल्तान को डाकू खडग सिंह जिस तरह बीमार होने का बहाना बना कर छीनता है और फिर बाबा भारती की महज एक बात कि इस घटना को तुम किसी को मत बताना क्योंकि आईंदा फिर कोई बीमार की मदद नहीं करेगा, किस तरह उस डाकू को भी अपनी गलती सुधारने के लिए प्रेरित करती है।

मनुष्य की बुनियादी अच्छाई पर विश्वास रखने वाली और किस तरह उसका हदय परिवर्तन हो सकता है, इसे खूबसूरत ढंग से बयान करने वाली इस कहानी पर अपने युग की छाप भी दिखती है।

पिछले दिनों यह कहानी अचानक याद आयी जब आला अदालत की द्विसदस्यीय पीठ ने लगभग तेरह साल पहले छत्तीसगढ़ में हुई एक फर्जी मुठभेड़ की सीबीआई द्वारा जांच की मांग को ठुकरा दिया और याचिकाकर्ता गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को सुरक्षा बलों का मनोबल कमजोर करने के आरोप में पांच लाख रुपए का जुर्माना सुना दिया और जुर्माना न देने की स्थिति में उन्हें कारावास की सज़ा सुना दी, इतना ही नहीं राज्य सरकार से यह कहा है कि वह चाहे तो धारा 211 के तहत उनके खिलाफ मुकदमा भी कायम कर सकती है।

मामला सितम्बर और अक्टूबर 2009 के दौरान छत्तीसगढ़ में हुई 17 आदिवासियों की कथित मुठभेड़ में हुई हत्या का है जिसमें 12 साल की एक छोटी बच्ची भी मारी गयी थी और तमाम लोग घायल हुए थे। ख़बरों के मुताबिक आदिवासियों के मकानों को आग भी लगायी गयी थी और उन्हें ध्वस्त भी किया गया था। तत्कालीन दांतेवाड़ा और अब सुकमा जिले में हुई इन हत्याओं को लेकर उन दिनों काफी हंगामा हुआ था। न केवल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने बल्कि स्वतंत्र मीडिया की तरफ से भी इन हत्याओं पर सवाल उठाए गए थे, जिसमें माओवाद के दमन के नाम पर सुरक्षाबलों की विवादास्पद भूमिका को प्रश्नांकित किया गया था। दूसरी तरफ सरकार का यह दावा था कि इन हत्याओं को माओवादियों ने अंजाम दिया था।

गौरतलब है कि इन हत्याओं के बाद गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने जो लंबे समय तक आदिवासी अधिकारों की हिमायत के लिए छत्तीसगढ में ही सक्रिय रहे हैं और वर्चस्वशाली ताकतों के निशाने पर भी रहते आए हैं, उन्होंने इन पीड़ितों के परिवारों से जाकर बात की थी, जिसमें यह पीड़ित कथित तौर पर इन हत्याओं के पीछे सुरक्षा बलों की भूमिका को रेखांकित करते नज़र आए थे। हिमांशु कुमार ने उनके इन साक्षात्कार तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी कि इस मामले की सीबीआई जांच हो ताकि सच्चाई सामने आ सके।

आला अदालत ने न केवल जांच की मांग को सिरे से खारिज किया बल्कि एक तरह से माओवादियों को ही इन हत्याओं का दोषी करार दिया तथा याचिकाकर्ता पर ही जुर्माना लगा दिया।

मामले की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इंडियन एक्स्प्रेस जैसे अग्रणी अख़बार ने भी अपने संपादकीय में यह कहना जरूरी समझा कि यह जुर्माना एक तरह से उन लोगों के लिए एक ‘डरावना' संदेश देता है जो राज्य के खिलाफ अपनी कोई याचिका दायर करना चाहें। ...वह आला अदालत के अब तक चले आ रहे रूख को एक तरह से पलट देता है कि वह किसी भी रूप में - यहां तक कि अदद पोस्टकार्ड पर भी - अपनी याचिका अदालत में भेज सकते हैं। ...याचिकाकर्ता पर जबरदस्त जुर्माना एक तरह से राज्य के इस बदलते रूख का भी परिचायक है जिसमें वह सवाल उठाने वाले, न्याय मांगने वाले ऐसे सभी लोगों पर ही स्वार्थ में लिप्त होने का आरोप लगाती है।

उपरोक्त मामला लंबे समय तक सर्वोच्च न्यायालय के सामने पड़ा रहा और इस मामले में कुछ माह पहले अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था और अब फैसला सामने है। ‘द वायर’ को दिए अपने साक्षात्कार में हिमांशु कुमार ने इस बात का भी उल्लेख किया कि फरवरी माह में केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दाखिल कर यह मांग की गयी थी कि वह ऐसे मानवाधिकार कार्यकर्ता जो विभिन्न अदालतों में सुरक्षा बलोें के खिलाफ याचिकाए दायर करते हैं, उनके खिलफ एफआईआर दर्ज करने और उनकी जांच करने की इजाजत सुप्रीम कोर्ट दे दे।

प्रश्न उठता है कि क्या यह कार्रवाई एक तरह से आने वाले दिनों का संकेत है कि अब सत्य की मांग करना भी कुफ्र समझा जाएगा।

क्या हिमांशु कुमार को सुनाया गया जुर्माना एक तरह से उस बदलते ‘न्यायिक पैटर्न’ को प्रतिबिम्बित करता है, जिसकी झलक हम पिछले ही माह तीस्ता सेतलवाड और पी बी श्रीकुमार के मामले में देख चुके हैं - ऐसे लोग गुजरात दंगों के पीड़ितों के न्याय के लिए सक्रिय रहे हैं - जिन्हें अब ‘मामले को गर्माए’ रखने के लिए जेल की सलाखों के पीछे भेजा गया है और जांबाज पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट - जो पहले से ही जेल में बंद हैं - उन्हें भी इस नए मुकदमे के चपेट में लाया गया है।

हम याद कर सकते हैं कि देश के कई रिटायर्ड नौकरशाहों और न्यायविदों की तरफ से तीस्ता सेतलवाड और पी बी श्रीकुमार की गुजरात एसआईटी द्वारा की गयी गिरफ्तारी को प्रश्नांकित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को याचिका भेजी गयी थी जिसमें जाकिया जाफरी मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को हटाने की मांग की गयी थी, जिन्हें एक तरह से आधार बना कर पहले केन्द्रीय ग्रह मंत्रालय ने इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही कार्रवाई करने का संकेत दिया था और फिर गुजरात सरकार ने एंटी टेरिरिस्ट स्क्वाड के तहत इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया था।

इस याचिका में साफ पूछा गया था कि ‘‘क्या अदालत का दरवाजा खटखटाने के संवैधानिक अधिकार को इस तरह हल्के में और बदले की भावना के साथ देखा जाए कि न्याय मांगने वाले ही जेल भेजे जाएं? बयान के मुताबिक जाकिया जाफरी मामले में आला अदालत के फैसले का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि ‘‘अदालत एक ऐसे सिद्धांत को लेकर सामने आयी है कि राज्य ऐसे सभी लोगों को गिरफ्तार कर और उन पर मुकदमा कर सकता है जो जांच एजेंसियों की रिपोर्ट पर सवाल उठाते हैं, अगर अदालत तय करे कि इस जांच पर सवाल नहीं उठाए जा सकते है।’

इसमें कोई दोराय नहीं कि न्यायपालिका खुद अपने ही बीते फैसलों को विस्मृति के गर्त में धकेल रही है।

याद रहे जनहित याचिका का सिलसिला खुद सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी एन भगवती की पहल पर शुरू किया गया था, जिसे अब प्रश्नांकित किया जा रहा है। जनहित याचिका के पीछे यह धारणा थी कि सामाजिक तौर पर वंचित तबके के लोगों को - जिन्हें स्थापित न्याय प्रणाली में न्याय नहीं मिलता - उन्हें न्याय मिले।

कानून के जानकारों के मुताबिक जनहित याचिका एक तरह से न्याय की पारंपारिक प्रणाली के नियमों में थोड़ा ढील देती है। 1980 के पहले न्यायपालिका महज उन लोगों की याचिका स्वीकारती थी जो बचाव पक्ष से सीधे या परोक्ष रूप में प्रभावित रहते थे। जनहित याचिका के तहत उन लोगों को भी किसी मामले में अदालत के सामने गुहार लगाने की सुविधा थी जो मामले से सीधे जुड़ नहीं हों, ऐसे लोग जनहित के मामले को अदालत के सामने ला सकते थे।

वर्ष 2011 में खुद सुप्रीम कोर्ट ने ही छत्तीसगढ़ सरकार के कथित समर्थन एवं सहयोग से चल रहे ‘सलवा जुडुम’ मिलिशिया को गैरकानूनी घोषित किया था, जिनका गठन नक्सलविरोधी अभियान के तहत किया गया था। मालूम हो स्थानीय आदिवासी युवकों से बने इस मिलिशिया को मिल रहे राज्य संरक्षण एवं प्रशिक्षण तथा इनके द्वारा मानवाधिकारों के हनन के तमाम मामलों को लेकर प्रोफेसर नंदिनी सुंदर तथा अन्य बुद्धिजीवी एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आला अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। जाहिर सी बात है कि आला अदालत ने इन याचिकाकर्ताओं को सुरक्षा बलों का मनोबल कम करने आदि के आरोप नहीं लगाए थे बल्कि अपनी निष्पक्ष जांच में सलवा जुडुम पर लगे आरोपों को सही पाया था।

ऐसे तमाम मौके आए हैं जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी स्वतंत्राता एवं स्वायत्तता को बनाए रखते हुए कार्यपालिका के मनमाने कदमों पर अंकुश लगाने की कोशिश की है, लेकिन हवा का रूख अब शायद बदल रहा है। अब कई मामलों में ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका एक तरह से कार्यपालिका के कदमों के साथ कदम मिला कर आगे बढ़ना चाह रही है।

आल्ट न्यूज़ के सहसंस्थापक जुबैर पर भाजपा शासित राज्यों में के एक के बाद एक लादे जा रहे मामलों को ही देखें, जिनमेें खुद सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप की जरूरत है, जो खुद दो मामलों में जुबैर को जमानत दे चुका है तथा इस पूरे मामले को लेकर स्पष्ट है। उसे चाहिए कि वह ऐसे तमाम मुकदमो को रोक लगाने या इन्हें अपने यहां ही एकत्रित करने की बात कर सकता है, जो उसके अख्तियार में है; लेकिन वह इस मामले में हिचकिचाता दिख रहा है।

जुबैर, तीस्ता सेतलवाड़, पी बी श्रीकुमार और अब हिमांशु कुमार .. तय बात है कि आने वाले दिनों में यह सूची और लंबी होती जाएगी।

अक्सर हमारे हुक्मरान हमसे एक नए इंडिया के आगमन की बात करते है।

हमें बताया जा रहा है कि मौजूदा हुकूमत के तहत देश का नाम और रौशन हुआ है।

क्या इंडिया की शोहरत इस वजह से भी हो रही है कि वहां सत्य की बात करने वाले एक के बाद एक जेल में ठूंसे जा रहे है, उन्हें संविधान की हिफाजत के लिए सलाखों के पीछे भेजा जा रहा है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के अंदर जो कुछ भी हो रहा है, उस पर दुनिया की निगाह लगी रहती हैं।

इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ ख़बर आयी है कि खुद को सुनायी गयी सज़ा के खिलाफ हिमांशु कुमार आला अदालत में ही पुनर्विचार याचिका दायर करेेंगे, लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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