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कॉरपोरेट टैक्स में कटौती कर असमानता आधारित मंदी से नहीं निपटा जा सकता  

मांग को बेहतर करने के लिए कॉरपोरेट टैक्स में कटौती करने के बजाय सरकार को सामाजिक क्षेत्र के खर्चों में वृद्धि करनी चाहिए और गरीबों को अधिक पैसा देना चाहिए।
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प्रतीकात्मक तस्वीर Image Courtesy : HuffPost India

भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी के संकेत स्पष्ट हैं।  केवल ऑटोमोबाइल क्षेत्र में ही नहीं है बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था की विकास दर गिर रही है। शोध से मिले साक्ष्य बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी दर भी बढ़ रही है। पिछले पांच-छह वर्षों से विशाल जनसमूह की मजदूरी दर में गिरावट भले ही नहीं हुआ है लेकिन स्थिर रही है। संक्षेप में, अर्थव्यवस्था की स्थिति बदतर है और स्थिति बिगड़ती जा रही है। लेकिन हाल ही में (20 सितंबर को) सरकार ने गिरती विकास दर की स्थिति से निपटने के लिए क्या किया है? इसने शुद्ध लाभ (नेट प्रोफिट) की रक्षा के लिए कॉर्पोरेट लाभ पर कर की दर को घटा दिया है और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए राजकोषीय प्रोत्साहन दिया है। क्या इससे मदद मिलेगी?

अर्थव्यवस्था को बेहतर करने की नीति तैयार करने के लिए इस मंदी के पीछे के कारणों को समझना बेहद ज़रुरी है। कुछ लोगों ने कहा है कि नोटबंदी और वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) मूल कारण हैं। ये दोनों कारक मंदी का कारण हो सकते हैं  लेकिन मेरे विचार में विकास दर गिरने के असली कारण की जड़ें काफी गहरी हैं। असमानता में भारी वृद्धि ख़ास तौर पर उच्च विकास के अवस्था के दौरान लाभ की गिरती दर का कारण बनी है जिसके परिणामस्वरूप निवेश और विकास की दर में गिरावट आई है।

लगभग 125 साल पहले, कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक कैपिटल के वॉल्यूम 3 के अध्याय 13 में लाभ की इस गिरती दर के बारे में चर्चा की थी। इसके बाद, पोलैंड के अर्थशास्त्री माइकल कलेकी ने इस सिद्धांत को और विकसित करते हुए कहा कि असमानता बढ़ने से पूंजीवाद के अधीन लाभ की दर गिर सकती है और संकट पैदा हो सकता है।

ये तर्क बहुत सरल है। यदि बड़ी आबादी (श्रमिकों) की आय उस दर से नहीं बढ़ती है जिस दर से उत्पादक क्षमता बढ़ती है तो कुल जमा स्तर पर अतिउत्पादन की प्रवृत्ति पैदा हो जाएगी। घरेलू बाज़ार का आकार आम लोगों की ख़रीद क्षमता पर निर्भर है। यदि इसकी वृद्धि दर कुल स्तर पर निवेश की वृद्धि दर से कम है तो संभावित उत्पादन वस्तुओं और सेवाओं की कुल घरेलू मांग की तुलना में अधिक होगा। अगर समग्र मांग (एग्रीगेट डीमांड) कुल आपूर्ति (एग्रीगेट सप्लाई) की तुलना में कम होती है तो भले ही उत्पादक अधिक उत्पादन करें ऐसे में अतिरिक्त उत्पादन मौजूदा क़ीमतों पर ब़ाज़ार में नहीं बेचा जाएगा और किसी भी बाहरी (निर्यात) बाजार के अभाव में लाभ हासिल नहीं होगा। इस स्थिति में, भविष्य में लाभ की अपेक्षित दर गिर जाएगी और निवेश की दर कम हो जाएगी। परिणामस्वरूप, अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में भी गिरावट होगी।

जैसे ही अर्थव्यवस्था में असमानता बढ़ती है और आय वितरण समृद्ध वर्ग का पक्षधर होती है तो वस्तुओं और सेवाओं की कुल घरेलू मांग में कमी आती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ग़रीब तबके की आय का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है, जबकि सबसे अमीर तबके का ख़र्च औसतन अपेक्षाकृत कम होती है। अर्थव्यवस्था में वस्तुओं व सेवाओं की कुल मांग में बचत की कोई भूमिका नहीं होती है। इसलिए, असमानता में वृद्धि मंदी का कारण बन सकती है।

उद्योग के वार्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में संगठित विनिर्माण क्षेत्र में कुल वैल्यू एडेड में मज़दूरी और वेतन की हिस्सेदारी में काफी हद तक कमी आई थी। ये कमी खासकर उच्च विकास अवधि के दौरान आई थी। वर्तमान में मजदूरी का हिस्सा संगठित विनिर्माण क्षेत्र के कुल वैल्यू एडेड का लगभग 15% है। इसलिए संगठित विनिर्माण क्षेत्र में अधिकांश श्रमिकों और कर्मचारियों को कुल आमदनी का 15% हिस्सा मिला है। बड़ा हिस्सा लाभ कमाने वालों, ब्याज कमाने वालों और शेयरधारकों के पक्ष में गया है। अधिकांश श्रमिक विनिर्माण, निर्माण और सेवाओं के असंगठित क्षेत्र में हैं। इनमें से अधिकांश को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं मिलती है। ये मज़दूरी भी बहुत कम है।

किसानों के आय की स्थिति बदतर है। छोटे और सीमांत किसान व भूमिहीन खेतिहर मज़दूर इतने ग़रीब हैं कि उनके पास शायद ही ख़रीदने की शक्ति है। अगर हम गैर-कृषि ग्रामीण मज़दूरों को देखें तो स्थिति अगर बदतर नहीं है तो इतनी ही बुरा ज़रुर है। देश में लैंगिक आधार पर मज़दूरी का अंतर काफी ज़्यादा है। 13 कृषि और 12 गैर-कृषि गतिविधियों के लिए ग्रामीण मज़दूरी पर श्रम ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान वास्तविक मज़दूरी की औसत वृद्धि दर शून्य रही है। लेकिन इस अवधि में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 6-7% वार्षिक दर से बढ़ा है। कहने की जरूरत नहीं है कि बेरोज़गार किसी भी तरह से आय अर्जित नहीं कर सकते थे। इसलिए, वास्तविक राष्ट्रीय आय में संपूर्ण वृद्धि कुछ अमीरों के जेब में डाल दिया गया है। तुलनात्मक रुप से अमीर अधिक अमीर हो गए हैं और ग़रीब तबके का अधिकांश हिस्सा ग़रीब हो गया है।

शोध पर आधारित साक्ष्यों (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन तथा अन्य पर आधारित के सर्वेक्षणों) से पता चलता है कि देश में असमानता काफी समय से बढ़ रही है। वास्तव में नव-उदारवादी’ व्यवस्था के अधीन लाभ-आधारित विकास का ग्राफ असमानता को बढ़ाता है। एक तर्क दिया गया था कि अगर हर कोई अपेक्षाकृत बेहतर हो (वास्तविक आय के मामले में) स्थिति में हो जाते हैं तो असमानता कोई मायने नहीं रखेगी। भले समाज में असमानता बढ़ती है तो भी लोग अपेक्षाकृत अधिक खुश होंगे। लेकिन, यह दीर्घकालिक नहीं है।

भले ही हम सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं को एक तरफ रखते हैं जो असमानता से पैदा होती हैं तो असमानता पैदा करने वाली विकास प्रक्रिया ऊपर बताए गए कारणों के कारण खुद को क़ायम नहीं रख सकती है। वैकल्पिक रूप से अर्थव्यवस्था में बेहतर आय वितरण सुनिश्चित करने और इस तरह समग्र खपत की प्रवृत्ति में सुधार के द्वारा मज़दूरी आधारित विकास संभव है। इस स्थिति में थोड़ा अधिक सरकारी व्यय या निवेश या निर्यात उचित अंश में जीडीपी को अधिक बढ़ा सकेंगे। यह विकास प्रक्रिया तब तक स्थिर होगी जब तक कि अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार या उत्पादन की पूर्ण क्षमता स्तर तक नहीं पहुंच जाती। वर्तमान में अर्थव्यवस्था पूर्ण रोज़गार या पूर्ण क्षमता की स्थिति से नीचे है। वास्तव में बेरोज़गारी हमारी अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है।

यदि शुद्ध निर्यात में वृद्धि की जाती है तो यह सभी स्तर (एग्रीगेट लेवल) पर अर्थव्यवस्था में कुछ अतिरिक्त मांग पैदा कर सकता है। हालांकि, निर्यात मांग अर्थव्यवस्थाओं के विकास पर निर्भर करती है जो हमारे मुख्य निर्यात का मंज़िल हैं। विकसित दुनिया भी तेज़ी से नहीं बढ़ रही है जो कि हमारे नियंत्रण से बाहर है। सरकार निश्चित रूप से बड़े राजकोषीय घाटे को बढ़ा कर अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त मांग को बढ़ा सकती है। अगर लोग कम टैक्स देते हैं तो उनकी डिस्पोजेबल इनकम (करों की कटौती और सामाजिक सुरक्षा शुल्क के बाद शेष आय) बढ़ जाएगी।

फिर, अगर सरकार अधिक पैसा खर्च करती है तो लोग (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से) अधिक आय अर्जित करते हैं। जब उस आय का कुछ हिस्सा खर्च किया जाता है तो कुछ अन्य लोग अधिक आय अर्जित करेंगे। इससे वस्तुओं और सेवाओं आदि की मांग पैदा होगी। यदि अर्थव्यवस्था में अप्रयुक्त उत्पादक क्षमता और बेरोजगार श्रम है तो अधिक उत्पादन होगा। इसे अर्थशास्त्र के साहित्य में कीन्स-कान गुणक प्रक्रिया कहा जाता है। लेकिन भारत में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (फिस्कल रेस्पॉन्सेबलिटी एंड बजट मैनेजमेंट- एफआरबीएम) अधिनियम के कारण विस्तारवादी राजकोषीय नीति के लिए स्थान भी सीमित है।

सरकारों की 20 सितंबर की घोषणा के अनुसार कॉरपोरेट्स को लगभग 1.45 लाख करोड़ रुपये या जीडीपी के 0.75% से अधिक कर रियायत के कारण अनुमानित राजस्व को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। इससे असमानता की स्थिति और खराब हो जाएगी और असमानता के कारण मंदी के मूल कारणों का समाधान नहीं करेगा।

कॉरपोरेट्स को कर में राहत देने के बजाय इस सरकार को यह पैसा बुनियादी ढांचे और सामाजिक क्षेत्र (स्वास्थ्य, शिक्षा, मनरेगा, ग्रामीण नौकरी की गारंटी योजना आदि) पर खर्च करना चाहिए था जो कि ग़रीब और कमजोर वर्गों के लिए राजकोषीय प्रोत्साहन के साथ-साथ असमानता को कम करने का काम करता था। अगर सरकार को एफआरबीएम प्रतिबंधों के तहत काम करना है तो कर राजस्व में कमी बुनियादी ढांचे और सामाजिक क्षेत्र के खर्च के लिए स्थान को और कम कर देगा।

ग़रीब लोगों की क्रय शक्ति तभी बढ़ेगी जब सरकार सामाजिक क्षेत्र के ख़र्च को बढ़ाएगी। यदि सरकार ज़्यादा ग़रीबों से संबंधित गतिविधियों में व्यय करती है तो असमानता स्वाभाविक रूप से कम हो जाएगी। इसलिए, कॉर्पोरेट्स को इतनी बड़ी कर राहत दिए बिना अगर सरकार ने अतिरिक्त (विशेष रूप से बुनियादी ढांचे और सामाजिक क्षेत्र में) खर्च किया होता तो यह आर्थिक मंदी के मूल कारण को दूर करने में बहुत अधिक प्रभावी होता। लेकिन, सरकार ने इसके ठीक विपरीत काम करने का फैसला किया।

सुरजीत दास दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में सहायक प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है।

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