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कृषि क्षेत्र में उदारवादी सुधारों के जरिये छोटे और मझोले किसानों को खेती से निकाल बाहर करने का फार्मूला अपनाने की पहल

एक समय जिसे अमेरिकी खेती में उदारवादी सुधारों के बतौर आरंभ किया गया था, वह आज न्यूनतम किसानों वाली व्यवस्था बनकर रह गई है। अब भारत भी ठीक उसी रास्ते पर अपने पाँव बढ़ा चुका है।
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कृषि क्षेत्र में 8.4 लाख करोड़ रुपयों की कृषि-प्रोत्साहन की घोषणा के साथ वित्त मंत्री ने आर्थिक हरित क्रांति को हरी झंडी दे दी है, जिसके आधार स्तंभ के रूप में हैं ऋण देना, भण्डारण और व्यापार के लिए "कृषि-द्वार" को खोलना। सार-संक्षेप में कहें तो ये दो हिस्सों के रूप में बैंकिंग नेटवर्क को मजबूती प्रदान करने वाली हैं जिसमें अतिरिक्त ऋण मुहैया किये जाने की व्यवस्था की जायेगी और "किसानों की आय को दोगुना" करने वाले कार्यक्रम में तेजी लाने की कोशिशें की जा सकती है। यह रिपोर्ट वित्तमंत्री की प्रस्तुति में किसी ध्रुवतारे के समान प्रतीत हो रही है, जिसमें कृषि-द्वार के आधारभूत ढाँचे को लेकर आवश्यक सुझाव, एपीएमसी को सूची से नियन्त्रण मुक्त करना और यहाँ तक कि किसानों को सीधे तौर पर या कृषि अनुबंधों और अन्य के जरिये कृषि-व्यापार से जोड़ना शामिल है।

नीति अयोग के प्रमुख राजीव कुमार ने तो आवश्यक वस्तु अधिनियम तक को एक "बाधक" के रूप में जिम्मेदार ठहरा दिया था और 2017 में ही इस कानून को निरस्त किये जाने की माँग रखी थी। अब जब भण्डारण की सीमा, उसको लेकर लागू प्रतिबंध और विभिन्न खाद्य पदार्थों को इसके दायरे से हटाया जा चुका है, तो ऐसे में यह कानून अब मात्र शाब्दिक अर्थो में रह गया है क्योंकि फिलहाल यह वक्त कृषि व्यवसाय में शिकार करने का है। इसलिए कहा जा सकता है कि सबकुछ कोरोना-पूर्व के तयशुदा एजेंडे के तहत जारी है। नए कदमों के बतौर नीति आयोग के विजन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से एक नए "संपत्ति कार्ड" की घोषणा को इसमें शामिल कर सकते हैं, जिसके जरिये "गांव की प्रत्येक संपत्ति को गारण्टी के बतौर उपयोग में लाया जा सकता है"।

इसलिए बेहद फुर्ती के साथ सरकार ने किसानों और उनकी जमीनों को बैंकिंग संस्थानों से जोड़ दिया है, जिससे कि ग्रामीण भारत में अधिकाधिक कर्ज लेने के प्रवाह को सुगम बनाया जा सके, ऐसा ही कुछ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर में संयुक्त राज्य अमेरिका में भी देखने को मिला था। बस एक छोटी सी हिचक रह गई है: सरकार अभी भी इस बात को लेकर अनिश्चय में है कि किसानों की कौन सी गणना को लेकर चले, नौ करोड़ किसान या 14.5 करोड़? ऐसे कितने निराश्रित किसान होंगे जो ग्रामीण बैंकिंग व्यवस्था से जुड़े हैं? हमारे टैक्स के पैसों से हो सकता है कि कृत्रिम रूप से एक निश्चित वर्ग के लोगों को फलने-फूलने का मौका मिल जाए, लेकिन आर्थिक तौर पर बदहाल स्थिति में जी रहे सीमांत किसानों की स्थिति को जोखिम में डाला जा रहा है। चलिए एक बार के लिए इसे छोड़ भी दें तो क्या किसानों और बुनियादी ढांचे और बाजार को और अधिक उदारीकृत बनाकर क्या हम कम ब्याज दर वाले ऋणों की बाढ़ लाकर खस्ताहाल ग्रामीण क्षेत्र को उपर उठाने में मदद कर सकते हैं? शायद इसका जवाब अमेरिका के पास है।

द्वितीय विश्व-युद्ध से पहले संयुक्त राज्य अमेरिका में खेतीबाड़ी के व्यवसाय में ही सबसे अधिक लोग जुड़े हुए थे। उस समय देश में ज्यादातर छोटे और मध्यम आकार वाले खेतिहर परिवार ही छाए हुए थे, और खेती का काम-काज किसानों के श्रम और पूँजी निवेश तक ही सीमित थी। खेतीबाड़ी से होने वाली आमदनी भी काफी कम होती थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इसमें थोड़ी-बहुत तेजी देखने को मिली थी, लेकिन उसके बाद अमेरिकी खेती में अतिउत्पादन और "लागत की तुलना में कम आय" की समस्या एक बार फिर से घूम-फिरकर वापस आ चुकी थी। हालात मिलते-जुलते लग रहे हैं न?

अब जैसा कि उदारीकरण अपने साथ "सुधारों" को लेकर आया तो ऐसे में संयुक्त राज्य अमेरिका ने तत्काल से किसानों के कर्ज का बीमा करने और किसानों के लिए सरकारी धन को उपयोग में लाने के साथ-साथ आपातकालीन फसल और चारा ऋण कार्यक्रम को मुहैय्या कराने के लिए फार्मर्स होम एडमिनिस्ट्रेशन (FmHA) अधिनियम और डिजास्टर लोन एक्ट ऑफ़ 1949 को लागू करने की पहल की। ग्रामीण ढांचे में निवेश और आसान कर्जों को प्रोत्साहित किया गया, जैसा कि ठीक आज कोरोना काल से निपटने के तौर पर भारत में आर्थिक नीति को लागू किया जा रहा है। इसमें अमेरिका में उद्योगों और "बाजार को खोलने" को बढ़ावा देने के लिए एक नए एग्रीकल्चरल मार्केटिंग एक्ट, 1946  को प्रस्तावित किया गया था।

अतिरिक्त नकदी प्रवाह को देखते हुए संकटग्रस्त किसान और अधिक जमीनें खरीदने, कृषि उपकरणों को खरीदने और उनके आधुनिकीकरण की जल्दी में थे। वास्तव में कुछ वर्षों तक तो सालाना जमीन की मुद्रास्फीति की कीमतें बैंक में किये गए निवेशों की तुलना में आगे चल रही थीं। कुल मिलाकर खेती से जुड़ा व्यवसाय ठीक-ठाक चल रहा था, लेकिन इस उठान को कृत्रिम तौर पर राजकोषीय वित्तीय हेरफेर के माध्यम से टिकाये रखा गया था। अटकलबाजियों का दौर चल रहा था और अन्य गिरवी पड़ी वस्तुओं पर दोबारा से वित्तीय प्रबन्धन के जरिये नए कर्ज मुहैय्या कराये जा रहे थे। नतीजे के तौर पर इसने आर्थिक तबाही को जन्म दिया।

कुल मिलाकर नतीजा यह निकला कि 1950 और 1970 के बीच में वास्तविक कृषि आय जो 1950 में 18 बिलियन थी वह 1971 में घटकर 13 बिलियन रह गई। जो खेत थे, उनकी संख्या भी 50% कम हो चुकी थी, लेकिन प्रति खेत आय में 46% का इजाफा हुआ था, जबकि राष्ट्रीय औसत 76% का था। अमेरिकी खेतों पर 1950 में जहाँ कुल रेहन में पड़ी सम्पत्ति पर कर्ज 8 बिलियन था, वह 1971 में बढ़कर 24 बिलियन हो चुका था। सचिव अर्ल बत्ज़ की शैली में कहें तो “या तो आपको बड़ा होना है” और अपनी आय को दुगुना करना है या फिर “खेती के काम-काज से खुद बाहर निकाल लें”। क्या भारत भी इसी शैली में अपने यहाँ के किसानों की आय को दुगुना करने का लक्ष्य पाले हुए है?

चलिए मान लेते हैं कि एक निवाले से ही पूरे भोजन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, तो चलिए एक बार इसे भी देख लेते हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका की आर्थिक विकास समिति (CED) ने अपने ‘1962 के खेती के लिए एक अनुकूलक कार्यक्रम' में जो रिपोर्ट पेश की थी और अपने यहाँ 2017 में ‘किसानों की आय को दुगुना करने’ की जो रिपोर्ट आई थी वे हुबहू एक-दूसरे की नकल थीं। उनकी इच्छाओं को न सिर्फ "किसानों को खेती से बाहर कर गैर-कृषि गतिविधियों में स्थानापन्न” (क्योंकि ढेर सारे किसानों का होना अपनेआप में एक समस्या है) करने के तौर पर देखा जा सकता है, बल्कि इसे अन्य सभी मापदंडों पर भी देख सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में 'अनुकूलक कार्यक्रम' के लागू होने के उपरान्त 10 लाख से अधिक छोटे और मझौले आकार के खेती से जुड़े परिवार गायब हो गए थे। किसानों की आत्महत्याओं के साथ-साथ छोटे और मझौले आकार की खेती में बंदी का रुख अपने चरम पर पहुँच चुका था, क्योंकि ज्यादातर किसान अपने ऋणों का भुगतान कर पाने में असमर्थ थे। लेकिन इसी बीच फार्मिंग क्षेत्र में कारगिल जैसे कुलीन वर्ग का उदय कई अन्य के साथ नेपथ्य में होना जारी था।

यहाँ पर भारतीय किसान पहले से ही गहन संकट के दौर से गुजर रहा है, और वे जोर-शोर से अपनी कर्जमाफी की मांग कर रहे हैं। जैसा कि नाबार्ड के शोध से पता चलता है कि 2018 तक 52.5% ग्रामीण परिवारों पर 1,470 डॉलर (1.11 लाख रुपये से अधिक) का कर्जा था। जरा इसकी तुलना औसत मासिक ग्रामीण घरेलू अधिशेष 1,413 रूपये से करें। भारत में किसानों को और अधिक कर्जदार बनाने का मतलब है (जी हाँ, जल्द ही नई-नई लोन स्कीम आने वाली हैं), किसानों और संपूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कर्ज के सर्पिल चक्र में जकड़कर रख देना। यदि हम कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, एग्री-कमोडिटी ट्रेडिंग और एग्रीबिजनेस में धकेल दिए जाते हैं तो भारतीय किसानों के पास खुद के खेतों में काम पर रखे जाने के सिवाय कोई उम्मीद नहीं बचेगी, जैसा कि अमेरिका के उदाहरण में देखने को मिल चुका है।

अमेरिकी खेती के सपनों का पीछा करते हुए

इतिहास के पास अपनेआप को दुहराने के अजीबोगरीब तरीके हैं। "कृषि-द्वार" को खोल देने और एपीएमसी को विघटित किये जाने से भारतीय खेतों में कृषि व्यवसाय के दरवाजे खोल दिए गये हैं। इस सुरंग के दूसरे सिरे पर अमेरिकी किसान हैं, जहाँ तक भारतीय सरकार हमें ले जाना चाहती है। डैन मॉर्गन ने मर्चेंट्स ऑफ़ ग्रेन में "किसानों के लिए बाजार तक अपनी पहुंच बना सकने" की इस यात्रा का वर्णन किया है। किस प्रकार से यह रास्ता स्वचालित कड़ी और भंडारण को सुगठित करने और बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा अन्य मेकेनिकल टेक्नोलॉजी के विकास को बढ़ावा देने की ओर चला जाता है। तत्पश्चात उनकी ओर से किसानों की सहकारी समितियों के अधिग्रहण का कार्य निपटाया जाता है, और इस प्रकार इसका समापन अमेरिका के नए अनाज के एकाधिकार में हुआ जो अंततः दुनिया की आपूर्ति-श्रृंखला के 70% को नियंत्रित करता है। समय के साथ-साथ किसी किसान के लिए फसल उगाना, पशुपालन कर पाना या बिना किसी कम्पनी अनुबंध के खेती तक कर पाना असंभव हो गया। आज हालत यह है कि, अमेरिका में किसानों के पास कॉर्पोरेट बाजार के अलावा कोई बाजार नहीं बचा है।

2006 में बिहार में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए सरकार की ओर से एपीएमसी अधिनियम को रद्द कर दिया गया था, लेकिन इसके जो परिणाम देखने को मिले वे चौंकाने वाले हैं। अपराध यहाँ पर अव गैरआपराधिक श्रेणी में आ चुके हैं और पहले की तुलना में किसानों को उनकी उपज के दाम भी कम मिले। जबकि इस बीच देखने में आया है कि "व्यापारियों" ने यहाँ से सारी उपज ट्रकों से ढोकर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचने के लिए पंजाब और हरियाणा की एपीएमसी मंडियों का रुख किया। निजी निवेशकों ने भी कभी इस ओर का रुख नहीं किया है।

इस "कृषि-द्वार" के "उदारीकरण" को संपन्न कराने की जो मानवीय कीमत चुकानी पडती है, वह भयावह है। अमेरिकी ग्रामीण बस्तियों में हिंसा, नशाखोरी, और पागलपन आज चारों और इसके "धूल के कटोरे" (खेतों के अनुत्पादक होने के सन्दर्भ में) के साथ बिखरे पड़े हैं। जोएल डायर इसे अपने हार्वेस्ट ऑफ़ रेज में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के सुधारों और वर्तमान में अमेरिकी किसानों की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के बीच के बिन्दुओं को जोड़ते हैं। जिसकी परिणिति अंततः स्वदेशी लड़ाकों के आन्दोलन के जरिये 1995 में हुए ओक्लाहोमा शहर में बमबारी में हुई, जिसने देश को आज इस स्थिति में ला खड़ा किया है और ट्रम्प जैसे नेतृत्व के पैदा होने की स्थितियों को निर्मित करने में मदद पहुंचाई।

2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका का कुल कृषि ऋण 425 बिलियन डॉलर का है, लेकिन इसके बावजूद ज्यादातर बड़े और कंपनी के स्वामित्व वाले फार्महाउस को ही इन राहत पैकेजों का लाभ मिला है। जबकि इसी बीच कई हजार अतिरिक्त अमेरिकी किसानों को एक बार फिर से खेती से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। युद्धोपरान्त युग में जिसे उदारवादी सुधार के रूप में आरंभ होते देखा गया था, उसने अमेरिकी खेती की पद्धति को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है, जिसमें किसानों की जरूरत ना के बराबर रह जाती है।

आज के दौर में भारत भी उसी रस्ते पर चलने की कोशिश में है। भारतीय संकट को सुधारों के नाम पर किसी अमेरिकी उपायों की हुबहू नकल करने जैसे ये उपाय, कृत्रिम राजकोषीय उपायों के विफल होने से पहले ही कितनी तेजी से कर्जों को चौगुना करने और खेतीबाड़ी के काम को हमेशा-हमेशा के लिए बंद करने को कितनी तेजी से आम नियम बनाते हैं? जैसा कि हम कोरोना वायरस के खिलाफ चल रही जंग में किसी न्यू डील की उम्मीद पाले हुए हैं, जबकि सरकार थोड़े से अतिरिक्त कृषि-डॉलर कमाने के चक्कर में अपने पुराने एजेंडे को ही नए रंग-रोगन के साथ पेश करने में व्यस्त है।

(लेखक कृषि और अर्थव्यवस्था पर लिखते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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