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क्यों असम में एनआरसी और कश्मीर बना सकता है?

बीजेपी अपना हिंदू वोट बैंक मज़बूत करने के लिए असम से पश्चिम बंगाल और उत्तर भारत का रूख कर सकती है।
NRC

असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) को दिया गया अंतिम रूप विदेशियों को राज्य से बाहर निकालने के लिए दशकों पुराने आंदोलन की परिणति को दर्शाता है। फिर भी अवैध प्रवासियों और एनआरसी को लेकर राजनीति 2021 तक जारी रहने की संभावना है। इस वर्ष असम और पश्चिम बंगाल दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

हालांकि इस बीच एनआरसी में शामिल होने पर लगभग 20 लाख लोग खुशी मनाएंगे और अन्य 20 लाख लोग अपनी किस्मत पर आंसू बहाएंगे। बता दें कि इन 40 लाख लोगों को पिछले साल जारी हुए एनआरसी के मसौदे से बाहर कर दिया गया था।

उम्मीद है कि वे लोग जो एनआरसी की अंतिम सूची में नहीं होंगे उनके पास फॉरेन ट्राइब्यूनल (एफटी) में उनके बाहर होने के ख़िलाफ़ अपील करने के लिए 120 दिनों का मौक़ा होगा। ये ट्राइब्यूनल किसी व्यक्ति के भारतीय नागरिक होने या न होने का निर्धारण करता है। एफटी के फैसले के ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है।

बाहर हुए लोगों को निश्चित तौर पर बोझिल कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के लिए पैसा इकट्ठा करना होगा भले ही असम सरकार ने उन्हें सहायता देने का वादा किया है। एनआरसी से बाहर हुए ज़्यादातर ग़रीब और बड़ी संख्या में निरक्षर हैं। वे राज्यविहीन होने के चलते भयभीत होंगे। अब तक, फॉरेन ट्राइब्यूनलों द्वारा घोषित विदेशियों को हिरासत केंद्रों (डिटेंशन सेंटर) में रखा गया था।

एक हलफ़नामा के अनुसार राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि फॉरेन ट्राइब्यूनल ने 1985 और 2018 के बीच 1,03,764 लोगों को विदेशी घोषित किया था। गृह राज्य मंत्री जीके रेड्डी के अनुसार इनमें से 63,000 से अधिक लोगों को एकपक्षीय (एक्स-पार्टे) कार्यवाही के माध्यम से विदेशी घोषित किया गया था। एक-पक्षीय का मतलब है कि वे अपनी नागरिकता की स्थिति के निर्धारण के लिए होने वाली सुनवाई के दौरान उपस्थित नहीं थे।

हिरासत केंद्रों में रखे गए विदेशियों को बांग्लादेश भेजे जाने की संभावना है जहां से वे कथित तौर पर आए थे। लेकिन ऐसा होने की संभावना नहीं है क्योंकि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हाल में ढाका को आश्वासन दिया है कि असम के नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों की पहचान भारत का आंतरिक मामला है।

एनआरसी से बाहर किए गए लोगों की बड़ी संख्या को देखते हुए यह अकल्पनीय है कि कोई भी सरकार उन्हें हिरासत केंद्रों में किस तरह रखेगी। इसके कारण यह सुझाव आया है कि इन लोगों को काम करने की अनुमति दी जाए लेकिन उन्हें वोट देने और संपत्ति का अधिकार नहीं दिया जाए।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपील के तीन रास्तों के समाप्त होने के बाद नाटकीय रुप से एनआरसी से बाहर किए गए 20 लाख लोगों की संख्या में कमी आएगी।

अंतिम एनआरसी बीजेपी के असम में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों में केवल मुसलमानों को निशाना बनाने के अभियान को भी चुनौती देता है। इसके विरोध ने शुरू में बाहरी लोगों या उन भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ भड़काया था जिन्होंने राज्य की अर्थव्यवस्था के कुंजी को नियंत्रित किया था। बीजेपी के मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बांग्लादेशी मुस्लिमों के ख़िलाफ़ आंदोलन किया।

इसकी पुष्टि रजत सेठी और शुभ्रास्था ने अपनी पुस्तक द लास्ट बेटल ऑफ सरायघाट: द स्टोरी ऑफ द बीजेपीज राइज इन नॉर्थ-ईस्ट से होती है। ये पुस्तक 2017 में प्रकाशित की गई थी। आरएसएस नेता राम महावीर ने द लास्ट बेटल की भूमिका लिखी थी। पुस्तक में शुभ्रास्था को माधव के कार्यालय का सहयोगी बताया गया है और सेठी को मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के राजनीतिक सलाहकार के रूप में दिखाया गया है।

दोनों लेखकों ने असम आंदोलन को "एंटी-बहीरगट [बाहरी] से एंटी-विदेशी [विदेशी] आंदोलन के रूप में बदलने के लिए आरएसएस को श्रेय दिया।" वे लिखते हैं, "समय गुजरने के साथ भावनाओं को बांग्लादेशी आप्रवासी के खिलाफ भड़काया गया था और बाद में बांग्लादेशी मुसलमानों के ख़िलाफ़ इसे भड़काया गया।”

वे कहते हैं कि कई बैठकों के बाद आरएसएस ने कहा था कि हिन्दू बांग्लादेशी शरणार्थी थे और मुसलमान घुसपैठिए थे। उन्होंने लिखा, "यह [आरएसएस] ने  मुस्लिम प्रवासियों के खिलाफ गंभीर रूप कायम कर रखा है और असम में हिंदू प्रवासियों के लिए चयनात्मक संरक्षण के विचार को लेकर मुखर है"। तथाकथित इस "गंभीर रूप" ने मुसलमानों को अवैध प्रवासियों के रूप में दर्शाया है।

बीजेपी के वैचारिक रुझान के चलते इसके नेताओं ने एनआरसी की आलोचना की। वे इन आंकड़ों को देखकर चौंक गए। वे कहते हैं कि मुसलमानों की तुलना में अधिक बंगाली हिंदुओं को एनआरसी से बाहर रखा गया है। वे भूल गए कि असम की आबादी में मुसलमानों के प्रतिशत में 2001 में 30.92% से 2011 में 34.22% की जो वृद्धि हुई है उसमें शायद बांग्लादेश से घुसपैठ की तुलना में उनकी उच्च प्रजनन दर से हो सकती है। राजनीतिक रूप से दशकों तक सताए जाने वाले मुसलमानों ने अपनी भारतीय नागरिकता दर्शाने वाले दस्तावेज़ों को सहेज कर रखने की कला सीख ली है। इसने उन्हें एनआरसी प्रक्रिया में बेहतर स्थान पर खड़ा किया जो तकनीक-संचालित था।

इसके विपरीत बंगाली हिंदू इस गणना में लापरवाही करते थे। वे यह मानते थे कि उन्हें इस भारतीय राज्य से निर्वासित नहीं किया जाएगा क्योंकि वे हिंदू थे। उनका मानना था कि यह प्रक्रिया उन्हें निर्वासित नहीं कर सकता क्योंकि वे हिंदू शरणार्थी थे।

यह संभावना नहीं है कि बीजेपी उन बंगाली हिंदुओं को छोड़ देगी जो आज़ादी के बाद से आरएसएस के सबसे बड़े समर्थक रहे हैं। पिछले छह वर्षों में बीजेपी-आरएसएस ने खुद को हिंदुओं के रक्षक के रूप में पेश किया है। बंगाली हिंदुओं को छोड़ना देश के किसी हिस्से में बीजेपी की कमज़ोरी बन सकती है ख़ासकर पश्चिम बंगाल में जहां असम की तरह 2021 में इसका विधानसभा चुनाव होगा।

बीजेपी के सामने सवाल यह है कि असम में बंगाल और अन्य राज्यों को लेकर पार्टी अपने हितों को कैसे संतुलित करती है? बीजेपी के पास ऐसा करने के लिए पांच संभावित विकल्प हैं।

यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जाएगी कि एफटी जिसकी निगरानी अनिवार्य रूप से राज्य के कर्मचारी द्वारा की जाती है उसने बड़ी संख्या में बंगाली हिंदुओं को भारतीय होने के रूप में एनआरसी से बाहर रखने की घोषणा की है। यह संभावना असम के वित्त मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की हालिया टिप्पणी से सामने आई है: "जिन लोगों को [एनआरसी द्वारा]बाहर किया गया है न तो भारतीय होंगे और न ही विदेशी। केवल ट्रिब्यूनल ही ऐसा कह सकता है। अंतिम संख्या ट्राइब्यूनलों [एफटी] द्वारा दी जाएगी और इस पर हमें विचार करना है।”

बीजेपी का दूसरा विकल्प एनआरसी से बाहर हुए लोगों को शामिल करने के लिए नई श्रेणियों को बनाने के लिए उपाय शुरू करके हो सकता है। यह संभवत: भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की सेवानिवृत्ति के बाद नवंबर में होगा। गोगोई की पीठ एनआरसी की निगरानी कर रही है। सरमा ने हाल ही में कहा, "हमने, दिसपुर और दिल्ली, अवैध विदेशियों को बाहर करने के लिए एक वैकल्पिक तंत्र के बारे में सोचना शुरू कर दिया है।" इस "वैकल्पिक तंत्र" की व्याख्या बंगाली हिंदुओं को सहारा देने और मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए की गई है।

इसका तीसरा विकल्प नागरिकता संशोधन विधेयक को लागू करना होगा जो बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हिंदुओं, जैन, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाइयों के निर्वासन या कारावास को अस्वीकार करता है जो 31 दिसंबर 2014 से पहले वैध दस्तावेजों के बिना भारत में प्रवेश कर गए। इस परिभाषा में उन बंगाली हिंदुओं को भी शामिल किया जाएगा जो 25 मार्च 1971 के बाद भारत आए थे। ये तारीख विदेशी लोगों की पहचान करने की एनआरसी नौकरशाही के लिए अंतिम तारीख है।

हालांकि, नागरिकता विधेयक का अधिनियमन असम के हिंदुओं और मुसलमानों की तरह असम और बंगाली हिंदुओं के बीच एक अभियान चलाएगा जो जनवरी में हुआ था जब नरेंद्र मोदी सरकार कथित रूप से इसे एक कानून में बदलने की योजना बना रही थी। बीजेपी उच्च स्तरीय समिति के माध्यम से विभाजन के बारे में कागजात मांग सकती है जिसे हाल ही में असम समझौता के  6 को लागू करने के लिए इस समिति को गठित किया गया था।

उच्च-स्तरीय समिति ने 22 अगस्त 2019 के अखबारों में एक सार्वजनिक नोटिस दिया था जिसमें लोगों को संसद, विधान सभा और स्थानीय निकायों में "स्वदेशी आदिवासी, स्वदेशी असमियों और असम के अन्य स्वदेशी लोगों" के लिए सीटें आरक्षित करने के लिए सुझाव मांगा था। इस नोटिस में सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अन्य उपायों के साथ उन्हें आरक्षण देने की बात भी कही गई है।

नागरिकता विधेयक के अपने विरोध को कम करने के लिए उच्च-स्तरीय समिति की सिफारिशों को असमियों के लिए सहायता के रूप में पेश किया जा सकता है। वैकल्पिक रूप से ये समिति स्वदेशी समुदायों को लाभ दे सकती है जिसे पहले परिभाषित करने की आवश्यकता होगी, इस तरह से बंगाली हिंदुओं के लिए रियायतों का विरोध करने के लिए असमिया एकजुट होने की संभावना को कम कर सकते हैं।

विरोधाभासी लग सकता है कि बीजेपी असम की बड़ी आबादी से दूर होने का जोखिम उठाकर बंगाली हिंदुओं का पक्ष क्यों लेगी जो असम की आबादी का लगभग 12 से 13% हिस्सा है (चुनाव सर्वेक्षणों के आधार पर सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी के अनुमान के अनुसार)। एक ओर असम समुदायों का घना मिश्रण है जहां हर समुदाय को अपने हितों की रक्षा के लिए अलग-अलग तरीका अपनाना पड़ता है।

दूसरी ओर कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष धराशायी हो गया है; इसका संगठन अंत होने के क़रीब है और जनता के असंतोष के चलते चुनावी लाभ हासिल करने में असमर्थ माना जाता है। वास्तव में यही कारण था कि जनवरी में नागरिकता विधेयक के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के महीनों बाद बीजेपी ने आम चुनाव में असम की 14 लोकसभा सीटों में से नौ पर जीत हासिल की भले ही वह कांग्रेस की तुलना में 1% अधिक वोट हासिल की थी। सर्वाधिक मत प्राप्त विजय व्यक्ति (फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम) की व्यवस्था में विपक्षी संगठन किसी की जीत या हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अन्यथा असम भी पश्चिम बंगाल की तरह बीजेपी के लिए समान चुनावी महत्व नहीं रखता है जहां लोकसभा के लिए 42 सीट हैं। बीजेपी की चुनावी रणनीति में प्रमुख तत्व बड़े राज्यों में हिंदुत्व की नैय्या पर हिंदुओं को एकजुट करने और केंद्र में बहुमत हासिल करके जीतना रहा है। बंगाली हिंदुओं को छोड़ना देखा जाए तो इसके हिंदुत्व की नैय्या कमज़ोर हो जाएगी। इस तरह असम में चुनावी जोखिम लेना बड़े राज्यों में फायदा उठाने जैसा होगा।

बीजेपी का पांचवां विकल्प असम में कश्मीर बनाना होगा यानी कि असम की बराक घाटी को संघशासित प्रदेश की घोषणा करना होगा जो मुख्य रूप से अपनी संस्कृति में बंगाली है। बराक घाटी को बाहर करने की मांग लगातार उठाई गई है। यह असम के एक वर्ग के लिए राहत के रूप में भी आ सकता है, जो अपनी पहचान की शुचिता को संरक्षित करने पर जोर दे रहा है और बंगालियों के साथ प्रतिस्पर्धा करना नहीं चाह रहा है।

असम के लोग विरोध करें या न करें इस बात से बीजेपी को ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन पश्चिम बंगाल और उत्तर भारत में इसके हिंदू वोट बैंकों पर बहुत ज़्यादा फर्क पड़ेगा। जाहिर है हर कोई गृह मंत्री अमित शाह की एनआरसी पर उनकी टिप्पणी का इंतजार करेगा।

एजाज़ अशरफ दिल्ली के स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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