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मेट्रो में मुफ्त यात्रा की योजना का विरोध करने वाले लैंगिक समानता सूचकांक पर भी बात करें!

विश्व आर्थिक मंच द्वारा हाल ही में जारी वैश्विक लैंगिक समानता सूचकांक में 129 देशों में भारत को 95वां स्थान दिया है।
फाइल फोटो

दिल्ली सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी में अगले तीन महीने के भीतर महिलाओं को डीटीसी बसों, क्लस्टर बसों व दिल्ली मेट्रो में मुफ्त यात्रा की अनुमति देने की योजना बनाई है। सोमवार को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा, 'महिलाएं सभी डीटीसी बसों, क्लस्टर बसों व दिल्ली मेट्रो में मुफ्त यात्रा का लाभ पा सकती हैं। यह योजना महिलाओं के सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के लिए है, जो परिवहन का सबसे सुरक्षित साधन माना जाता है।'

उन्होंने कहा, 'हम 2 से 3 महीने के भीतर इस योजना को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं। जो महिलाएं सफर का खर्च उठा सकती हैं, वे टिकट खरीद सकती हैं। हम उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे, जिससे कि दूसरों को सब्सिडी प्रदान की जा सके।'

उन्होंने कहा कि इस कदम से न सिर्फ महिलाओं की सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि उनकी भागीदारी श्रम शक्ति में भी बढ़ेगी। हालांकि उनकी इस घोषणा के साथ ही तमाम लोग सोशल मीडिया से लेकर दूसरे प्लेटफॉर्म पर इसकी आलोचना करने लगे। कईयो ने इसे चुनावी सौगात बताया तो कुछ लोगों को इस घोषणा में लैंगिक भेदभाव नजर आने लगा। 

हालांकि लैंगिक भेदभाव की बात करने वालों से हमारा अनुरोध है कि वो विश्व आर्थिक मंच द्वारा हाल ही में जारी वैश्विक लैंगिक समानता सूचकांक पर भी चर्चा करें। इस सूचकांक में 129 देशों में भारत को 95वां स्थान है।

आपको बता दें कि पिछले साल विश्व आर्थिक मंच ने वैश्विक लैंगिक समानता सूचकांक में भारत को 108वां स्थान दिया था तब इस सूची में 144 देशों को शामिल किया गया था। इससे भी पहले भारत का स्थान 87वां था। महिलाओं की आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य, शिक्षा, कार्यस्थल पर बराबरी और राजनीति में योगदान के आधार पर लैंगिक समानता रिपोर्ट तैयार की जाती है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार इस रिपोर्ट में भारत में जिन क्षेत्रों में सबसे खराब प्रदर्शन किया है उसमें देश के संसद में महिलाओं की भागीदारी भी है। रिपोर्ट के अनुसार 2018 में देश की संसद में महिलाओं की भागीदारी मात्र 11.8 प्रतिशत थी। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं की संख्या महज 4 प्रतिशत है। इसी तरह 15 साल से बड़ी सिर्फ 69 प्रतिशत लड़कियों ने माना है कि रात में अकेले निकलना सेफ है। 

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया का कोई भी देश 2030 तक लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाने वाला है। अगर हम भारत के पड़ोसी देशों का प्रदर्शन देखें तो चीन, श्रीलंका और भूटान ने इस सूची में भारत से बढ़िया प्रदर्शन किया है जबकि म्यांमार, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान ने खराब प्रदर्शन किया है। 

इस रिपोर्ट से इतर अगर हम कार्यस्थल पर महिलाओं की बराबरी की बात करें तो यह महज जुमला लगता है। इसी साल मार्च महीने में बीमा कंपनी आईसीआईसीआई लोम्बार्ड के एक सर्वे से पता चला था कि 62 फीसदी महिलाओं को कार्यस्थल वेतन समानता के मुद्दे को मान्यता नहीं दी जाती है। वेतन में भेदभाव का ज्यादा मामला वित्तीय और विनिर्माण क्षेत्र में देखने को मिला है।

इस सर्वेक्षण के मुताबिक करीब 62 फीसदी युवतियों का मानना है कि उनके पास जो नौकरी है और उन्होंने जिस नौकरी की कल्पना की थी उसमें कोई समानता नहीं है। जब कार्य स्थल पर पुरुषों के समान वेतन की बात होती है तो इसमें भी लैंगिक भेदभाव की बात सामने आती है।

53 फीसदी महिलाएं मानती हैं कि उनका कार्यस्थल अभी भी पुरुष प्रधान है। यही नहीं, जैसे-जैसे महिलाएं उम्र दराज होती जाती हैं, उन्हें पुरुषों के लिए अनुपयुक्त काम या असाइनमेंट सौंप दिए जाते हैं। 22 से 33 साल की युवतियां और 33 से 44 वर्ष की महिलाएं मानती हैं कि पुरुष प्रधान कार्यस्थल में उनकी पदोन्नति का अवसर भी प्रभावित होता है।

फिलहाल इसके अलावा अगर हम महिलाओं के साथ होने अपराध, घरेलू हिंसा, उनके स्वास्थ्य, उनके पोषण, उनके शिक्षा की व्यवस्था आदि पर चर्चा करेंगे तो स्थिति बहुत ही भयावह नजर आएगी। इसलिए महिलाओं के लिए मेट्रो, डीटीसी बसों में मुफ्त यात्रा की योजना का विरोध करने वाले से अनुरोध है कि वह एक बार इन सारी बातों पर भी नजर डाल लें। 

हम इस मामले में साउथ अफ्रीका से भी सीख सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लगभग साथ ही दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा ने अपने नये मंत्रिमंडल की घोषणा की है। दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब देश की कैबिनेट में 50 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं। दक्षिण अफ्रीका के लोगों ने कैबिनेट में लैंगिक समानता का स्वागत किया है। 

इसके विपरीत हमारे देश की सदन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण देने की मांग करने वाला विधेयक पारित नहीं हो पा रहा है। 1996 से महिला आरक्षण विधेयक सदन में पेश हो रहा है लेकिन अभी तक पारित नहीं हो सका है। वहीं, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 57 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में सिर्फ 6 महिलाओं को शामिल किया गया है।

 

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