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चिकित्सकीय पितृसत्तावाद के दृष्टिकोण से ग्रस्त दिव्यांगता विश्वविद्यालय अध्ययन विधेयक

यह विधेयक विकलांगता (दिव्यांगता) को किसी अंग की निष्क्रियता या रोगग्रस्त शरीर के रूप में देखता है, जिसकी देखभाल के लिए सेवाओं की ज़रूरत है। यह विकलांग लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर धकेले जाने के एक स्रोत के रूप में भेदभाव की असलियत को नज़रअंदाज़ करता है।
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प्रतीकात्मक चित्र

विकलांगता एक अनियमिततारूपी शब्द है और यहां तक इसे समझने के लिए अनेक दृष्टिकोण से समझने ज़रूरत है। हालांकि विकलांगता को शारीरिक विकृति, नुकसान, विकृति विज्ञान और विचलन का समानार्थी समझा जाता रहा है। विकलांगता के प्रति यह दृष्टिकोण सत्तासंबंधी रुझान को दर्शाता है, जो विकलांगता की समस्या का हल चिकित्सा और पुनर्वास में ढूँढता है। इसलिए, विकलांगता चिकित्सा, सोशल वर्क और शिक्षा मुख्य रूप से मेडिकल और पैरा-मेडिकल पेशेवरों पर निर्भर है, जो इस समस्या के इलाज को जानते हैं।

विकलांगता के अधिकारों को लेकर शुरू हुआ अभियान, विकलांगता को सांस्थानिक देखभाल, इलाज और धर्मार्थ के मसले से अलग कर, उसको न्याय और अधिकार के मुद्दे में रूपांतरण की मांग करता है। इस अभियान के उप-उत्पाद के रूप में विकलांगता अध्ययन (डीएस) एक अकादमिक क्षेत्र के रूप में उभरा है। यह डीएस उस कारण की तलाश कर रहा है, जिसके तहत विकलांगता को प्रस्तुत किया जाता है—राजनीति के ज़रिए, संस्थागत प्रबंधों के ज़रिए, आर्थिक प्राथमिकता के रूप में और निश्चित रूप से, भाषा के अनुप्रयोग और दुरुपयोग के ज़रिए। विकलांगता का अध्ययन उसके चिकित्सकीय और पुनर्वास के दृष्टिकोण को चुनौती देता है और इसको समझने के लिए एक विशिष्ट ज्ञान की अपेक्षा करता है।

इस तरह के ज्ञान का उत्पादन विकलांग व्यक्तियों और दुर्गम परिदृश्यों, समाजों, और संस्थानों द्वारा अक्षमता की उनकी प्रक्रिया के अनुभव और दृष्टिकोण को प्रभावित करता है..और युद्ध, पुनर्वास, पर्यावरणीय नस्लवाद, राज्य-अधिकृत हिंसा और नरसंहार सहित एक अधिक वैश्विक काल्पनिकता को शामिल करता है।

इसलिए, विकलांगता का अध्ययन सक्षमों के पक्ष में भेदभाव रखने के तौर-तरीकों और उत्पादकतावादी दुनिया के मानदंडों पर सवाल उठाने से संबंधित हैं, जो शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को सांस्कृतिक रूप से मूल्यहीन तथा भौतिक रूप से हाशिए पर डाल देता है। इसका संबंध उस विश्व व्यवस्था के खिलाफ हमारी आवाज उठाने से भी है, जो लोगों को उनके अधिकार से वंचित करती है और उन्हें भूख व निर्धनता की पराकाष्ठा की तरफ धकेल देती है और वह युद्ध (अपंग बनाने वाले सभी कारणों के विरुद्ध) को भी उचित ठहराता है।

विकलांगता को देखने, उस पर बातचीत करने तथा उसके बारे में सोचने के नए और उभरते तरीकों को पहचानते हुए दिव्यांग व्यक्तियों का अधिकार अधिनियम-2016 विकलांगता को एक “विकसित होती अवधारणा” मानता है। इसलिए यह विकलांगता को देखने के प्रमुखता पर आधारित चिकित्सीय तथा व्यक्तिवादी विचार को विकलांगता के एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में स्थापित करता है। केंद्र सरकार ने अभी हाल में ही दिव्यांगता अध्ययन विश्वविद्यालय और पुनर्वास विज्ञान विधेयक-2021 के प्रस्ताव पर लोगों से इस पर राय मांगी है। कुल 128 पेज के प्रस्ताव में तीन पाठ हैं : पहले पाठ में विधेयक के बारे में विवरण है (34 पृष्ठ), दूसरे में परियोजना की विस्तृत रिपोर्ट (63 पेज) है और तीसरे में ईएफसी मेमो (31 पेज) का ब्योरा है।

प्रस्तावित विश्वविद्यालय का पहला लक्ष्य “पेशेवरों, शोधार्थियों और शिक्षकों को प्रशिक्षित करना और उन्हें विकसित करना होगा।” विश्वविद्यालय में आठ विभाग: दिव्यांगता अध्ययन विभाग, पुनर्वास विज्ञान विभाग, श्रव्य, वाक् भाषा निदान, और भारतीय संकेत भाषा विभाग, विशेष शिक्षा विभाग, मनोविज्ञान विभाग, कृत्रिम, अस्थि विज्ञान, सहायक तकनीक विभाग, नर्सिंग विभाग, और समावेशी वैश्विक डिजाइन विभाग होंगे। इन विषयों में स्नातक और उच्चस्तरीय कक्षाओं तक अध्ययन कराया जाएगा।

हालांकि प्रस्ताव विकलांगता अध्ययनों के लक्ष्यार्थों पर विश्लेषण प्रस्तुत नहीं करता है और यह पुनर्वास विज्ञान के मसले पर भी चुप्पी साधे हुए है। पाठ्यक्रमों के शीर्षकों से यह पता लगता है कि प्रस्तावित विश्वविद्यालय पैरा-मेडिकल और सोशल वर्क पेशेवरों के साथ-साथ विशेष शिक्षक तथा वैश्विक समावेशी डिजाइन में वास्तुशिल्पी तैयार कर रहा है। अत: विश्वविद्यालय का प्राथमिक जोर विकलांग की सेवा करने वाले लोगों को तैयार करना है। इसलिए यह विधेयक विकलांगता के बारे में चिकित्सीय पितृसत्तात्मकता के विचार की ओर संकेत करता है। जबकि यह शरीर के रोग तथा उनके संदर्भों को लेकर बनी उच्च समझदारी की अवहेलना करता है। इसलिए ऐसा मालूम होता है कि यह विधेयक विकलांगता को किसी अंगों की निष्क्रियता या रोगग्रस्त शरीर के रूप में देखता है, जिसकी देखभाल के लिए सेवाओं की ज़रूरत है। यह विधेयक विकलांग लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर धकेले जाने के एक स्रोत के रूप में भेदभाव की असलियत को नज़रअंदाज़ करता है। यह विकलांगता के बारे में एक तरफ नए ज्ञान के प्रति उपेक्षा-भाव दिखाता है कि विकलांगता को लेकर चिकित्सकीय पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण अभी भी जारी है और यह सामाजिक पूर्वाग्रह के समान है।

इसके अलावा, यह विधेयक स्थापना से छह साल के भीतर एक आत्मनिर्भर विश्वविद्यालय का प्रस्ताव करता है। इस प्रकार, विश्वविद्यालय अपने संसाधन का 50 फीसद हिस्सा फीस के रूप में छात्रों से वसूल करेगा और शेष 50 फीसद संबद्धता फीस और पाठ्यक्रम की डिज़ाइन आदि मदों से जुटाएगा। ईएफसी मेमो के पेज 14 पर इस मद से जुटाए जाने वाले संसाधनों के बारे में एक विस्तृत सारणी (टेबल) दी गयी है। इसके अनुसार, विश्वविद्यालय में दाखिला कराने वाले एक छात्र से सालाना 1 लाख रुपये ट्यूशन फीस, 0.75 लाख होस्टल फीस और अन्य मदों में 0.25 लाख रुपए वसूल किए जाएंगे। इस तरह, प्रति छात्र प्रति को वर्ष को दो लाख रुपए देना होगा। दूसरी तरफ, केंद्र सरकार द्वारा करदाताओं की आय के बारे में अगस्त 2020 में जारी एक रिपोर्ट बताता है कि देश के 57 फीसद से ज्यादा करदाता प्रति वर्ष 2.5 लाख रुपए से भी कम कमाते हैं। इन सब को मिला कर देखा जाए तो देश की आबादी के सर्वाधिक छात्रों के लिए यह विश्वविद्यालय दुष्प्राप्य ही रहेगा।

कुल मिला कर, यह विधेयक हड़बड़ी में तैयार किया लगता है क्योंकि यह न तो शीर्षकों के मुहावरे को स्पष्ट करता है और न ही यह विकलांगता के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करता है। इसके अलावा, इस मसौदे में उद्देश्यों के विवरण पुनर्वास परिषद ऑफ इंडिया (आरसीआइ) से बहुत मेल खाते हैं। इसी तरह, विश्वविद्यालय के नाम और इसके एक कोर्स में ‘दिव्यांगता अध्ययन’ संदर्भ के उपयोग के अलावा, यह स्पष्ट नहीं है कि इस क्षेत्र में उभरते ज्ञान के प्रति यह नया विश्वविद्यालय किस तरह का रुख रखेगा। और, जबकि दस्तावेज़ प्रस्तावित ‘आत्म-निर्भर विश्वविद्यालय’ की समावेशी डिज़ाइन पर जोर देता मालूम होता है, लेकिन यह अधिकतर छात्रों के लिए वित्तीय रूप से बहिष्करण ही साबित होगा।

(लेखिका राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन संस्थान, (नेपा) नई दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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