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इससे पहले बड़ी टेक कंपनियां क़ाबू से बाहर हो जाएं, उन पर लगाम कसने की ज़रूरत!

हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट आदेश की रौशनी में अमेज़ॉन और फ़्लिपकार्ट की तरफ़ से भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग द्वारा इन दो कंपनियों के ख़िलाफ़ निर्देशित जांच पर रोक लगाने की मांग को ख़ारिज कर दिया गया है।
जिससे पहले बड़ी टेक कंपनियां क़ाबू से बाहर हो जाएं, उससे पहले उन पर लगाम कसने की ज़रूरत

हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट के दिए आदेश की रौशनी में अमेज़ॉन और फ़्लिपकार्ट नामक दो टेक कंपनियों की तरफ़ से उन पर भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की तरफ़ से निर्देशित जांच पर रोक लगाने की मांग को ख़ारिज कर दिया गया है। वसंत आदित्य जे बताते हैं कि वैश्विक मामलों में बिग टेक कंपनियों के अत्यधिक प्रभावी होते जाने और उनके एकाधिकार की ताक़त के ख़िलाफ़ दुनिया भर में क़वायद क्यों शुरू हो गयी हैं।

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जिस रफ़्तार से 'बिग टेक' कंपनियां आम तौर पर दुनिया और ख़ास तौर पर हमारे निजी जीवन को प्रभावित करती जा रही हैं, उस पर तुरंत रोक लगाये जाने की ज़रूरत है। अपने प्रतिस्पर्धा-विरोधी तौर-तरीक़ों से कोरोबारी प्रतिद्वंद्वियों को पंगु बना देने से लेकर चुनावों के दौरान 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति पद की दौड़ जैसे मामलों में राजनीतिक बहस को तय करने तक में ये टेक दिग्गज कंपनियां अकल्पनीय शक्तियों का इस्तेमाल करती रही हैं।

प्रतिस्पर्धा-विरोधी तौर-तरीक़ों को लेकर दुनिया भर में प्रतिस्पर्धा नियामकों की तरफ़ से बढ़ती सख़्ती का सामना करने के बावजूद इन 'बिग फ़ाइव' यानी गूगल, एपल, फ़ेसबुक, अमेज़ॉन और माइक्रोसॉफ़्ट ने ख़ुद को डिजिटल बाज़ार में मज़बूती से स्थापित कर लिया है, ऐसे में ज़रूरत है कि कार्यपालिका सख़्त कार्रवाई करे और न्यायालय हस्तक्षेप करे।

भारत के छोटे और मझोले कारोबारी लंबे समय से अमेज़ॉन इंडिया और वॉलमार्ट के स्वामित्व वाली फ़्लिपकार्ट जैसी बेहद ताक़तवर ई-कॉमर्स कंपनियों पर विक्रेताओं को तरज़ीह देने और मनमाफ़िक मूल्य निर्धारण जैसे प्रतिस्पर्धा-विरोधी तौर-तरीक़े अपनाने का आरोप लगाते रहे है।

कई सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यम (MSME) वाले व्यापारियों की एक पंजीकृत संस्था, दिल्ली व्यापार महासंघ ने 2019 में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (CCI) से अनुरोध किया था कि अमेज़ॉन इंडिया और फ़्लिपकार्ट अपने एकाधिकार की हैसियत का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं और चुनिंदा विक्रेताओं द्वारा बेचे जाने वाले स्मार्टफ़ोन जैसे उत्पादों पर उन्हें तरज़ीह दे रहे और बहुत ज़्यादा छूट दे रहे हैं।

इसके बाद सीसीआई ने 2020 में इन दो ई-कॉमर्स दिग्गज कंपनियों के ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा-विरोधी तौर तरीक़ों की जांच का आदेश दे दिया था, जिस पर कर्नाटक हाई कोर्ट (HC) ने रोक लगा दी थी। हालांकि, इस महीने की शुरुआत में हाई कोर्ट ने अमेज़ॉन और फ़्लिपकार्ट की उन रिट याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया है, जिनमें जांच को रद्द करने और स्टे बढ़ाने का अनुरोध किया गया था।

न्यायमूर्ति पी.एस. दिनेश कुमार का 51 पन्नों का यह आदेश अपने आप में इसलिए एक मिसाल हैं, क्योंकि यह न सिर्फ़ भारत जैसे बड़े पैमाने पर बढ़ते उपभोक्ता बाज़ार के छोटे खुदरा विक्रेताओं के हितों की हिफ़ाज़त करता है, बल्कि यह आदेश यह भी दर्शाता है कि डिजिटल मार्केट स्पेस में इन कॉर्पोरेट दिग्गजों के एकाधिकार को उचित न्यायिक और नियामक हस्तक्षेप से कैसे रोका जा सकता है।

सोशल मीडिया का व्यापक प्रभाव

2010 तक तेल और ऊर्जा क्षेत्रों के सबसे अहम कंपनियों को अब उस 'फ़्रेटफुल फ़ाइव'(डरावनी पांच कंपनियों) वाली शब्दावली से बाहर कर दिया गया है, जिसे न्यूयॉर्क टाइम्स के तकनीकी स्तंभकार फ़रहाद मंजू ने गढ़ा था। फ़रहाद मंजू ने 2017 में चेतावनी दी थी कि "वे सामूहिक रूप से कई सरकारों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ताक़तवर हैं।”

किसी भी दूसरे उद्योग के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ताक़त और पैसे बनाने के बाद फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया दिग्गज कंपनियों का इस्तेमाल व्यापक रूप से राजनीतिक प्रचार के लिए ग़लत सूचना और फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाने, लोगों को नस्लीय और सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकृत करने और यहां तक कि हिंसा को भड़काने और सरकार विरोधी विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए भी किया जाता है।

ये प्लेटफ़ॉर्म न सिर्फ़ घट रही घटना के सटीक समय के विश्लेषण का इस्तेमाल करते हुए किसी शख़्स के सरल विकल्पों पर किये जा रहे मानव व्यवहार का मुद्रीकरण कर देते हैं और उनका नियंत्रण करते हैं, बल्कि देश के भाग्य का फ़ैसला भी कर सकते हैं।

अरब लहर; हांगकांग, रूस और बेलारूस में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन आयोजित करने; रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जैसे निरंकुश नेताओं की ओर से किये गये दुष्प्रचार को फैलाने और म्यांमार में रोहिंग्याओं के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने में फ़ेसबुक, ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया के इस्तेमाल के सिलसिले में इन टेक दिग्गज कंपनियों का व्यापक प्रभाव दिखता है।

महामारी ने बढ़ायी आर्थिक असमानता

कोविड-19 विश्व स्तर पर ई-कॉमर्स बिक्री के लिहाज़ से इसलिए एक उत्प्रेरक था, क्योंकि लोग दैनिक उपभोग की वस्तुओं को भी ऑनलाइन ऑर्डर देकर मंगाना पसंद करते थे। इन बिग टेक कंपनियों ने उस कोविड-19 को एक मौक़े की तरह इस्तेमाल किया और बड़े पैमाने पर पैसे इकट्ठे किये, जिससे दुनिया में तबाही आयी, तक़रीबन चालीस लाख लोगों की मौत हो गयी और लाखों लोग बेरोज़गार हो गये, यह इस बात को दिखाता है कि उस महामारी के होते हुए भी ये कंपनियां एक अजेय बाज़ीगर बन गयी हैं, जिसकी वजह से विश्व बैंक की चेतावनी के मुताबिक़ पिछले अक्टूबर से इस साल तक 15 करोड़ लोग ग़रीबी के हवाले हो सकते हैं।

कंपनियों के वित्तीय विवरणों के मुताबिक़, 2020 की पहली तिमाही में एपल की शुद्ध आय 110% बढ़कर 23.6 बिलियन डॉलर, गूगल की मूल कंपनी अल्फ़ाबेट की 162% बढ़कर 17.9 बिलियन डॉलर, माइक्रोसॉफ़्ट की 44% से से बढ़कर 15.5 बिलियन डॉलर, फ़ेसबुक की 94% से बढ़कर 9.5 बिलियन डॉलर और अमेज़ॉन की शुद्ध आय 220% से बढ़कर 8.1 बिलियन डॉलर हो गयी।

18 मार्च, 2020 और 12 अप्रैल, 2021 के बीच अमेरिकी धनकुबेरों की सामूहिक संपत्ति 1.62 ट्रिलियन डॉलर या 55% बढ़कर 2.95 ट्रिलियन डॉलर से 4.56 ट्रिलियन डॉलर हो गयी। लगभग 197 बिलियन डॉलर की कुल संपत्ति वाले अमेज़न के जेफ़ बेजोस की संपत्ति में 74% की बढ़ोत्तरी हुई। टेस्ला और स्पेस एक्स के संस्थापक एलोन मस्क, 172 बिलियन डॉलर के साथ इस महामारी के दौरान आश्चर्यजनक रूप से 599% से ज़्यादा की बढ़ोत्तरी की। माइक्रोसॉफ़्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स, जिनकी कुल संपत्ति 130 बिलियन डॉलर थी, उन्होंने मार्च 2020 से 33% से ज़्यादा पैसे जोड़े और फ़ेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग के पास 113.5 बिलियन डॉलर हैं, जो कि बढ़कर दोगुने (108% ऊपर) से भी ज़्यादा है।

बिग टेक के ख़िलाफ़ वैश्विक कार्रवाई असरदार नहीं

प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यवहार पर अंकुश लगाने को लेकर दुनिया भर की संसदों और नियामकों की कोशिश बेहद लचर रही है। हालांकि, अमेरिकी टेक कंपनियों को अपनी शक्ति और बाज़ार विरोधी व्यवहारों पर बढ़ते अडंगे का सामना करना पड़ा है, लेकिन राजनीतिक मतभेद अक्सर आगे की कार्रवाई में आड़े आते हैं। मिसाल के तौर पर, यूएस हाउस ज्यूडिशियरी कमेटी की एंटीट्रस्ट सबकमिटी ने पिछले अक्टूबर में डिजिटल अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा की स्थिति की जांच में पाया कि एपल, अमेज़ॉन, गूगल और फ़ेसबुक ने "प्रतिस्पर्धी विरोधी तौर-तरीक़ों से बाज़ार में अपनी ताक़त का विस्तार किया था और उसका दोहन किया था।

जब डेमोक्रेट्स ने इन कंपनियों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए इन निष्कर्षों के जारी होने के बाद बदलाव की मांग की, तो उन्हें रिपब्लिकनों के विरोध का सामना करना पड़ा था।

इन बिग टेक को भारत के अलावा कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्रांस, इटली, आयरलैंड, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया और जापान में भी क़ानूनी विरोध का सामना करना पड़ा है। लेकिन, उनका एकाधिकार और शक्ति ज्यों के त्यों बने हुए हैं।

इन तकनीकी दिग्गज कंपनियों पर घोषित यूरोपीय संघ के जुर्माने या तो पक्षों के बीच समझौता तक पहुंच जाने की वजह से लग नहीं पाये हैं या जुर्माने की ये राशियां इतनी कम हैं कि इनसे उनके राजस्व पर कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता है।

ई-कॉमर्स को क़ानूनों के दायरे में लाने की ज़रूरत

नियामकों को न सिर्फ़ बिग टेक की प्रतिस्पर्धा-विरोधी कारगुज़ारियों की शिनाख़्त करनी चाहिए और उन पर ज़्यादा सख़्ती से अंकुश लगाना चाहिए। बल्कि फ़र्ज़ी ख़बरों के फैलने और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के दुष्प्रचार किये जाने पर भी रोक लगानी चाहिए।

भारत ने उपभोक्ता संरक्षण (ई-कॉमर्स) नियम, 2020 में संशोधन का प्रस्ताव दिया है और ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म पर वस्तुओं और सेवाओं की "ग़लत तरह से की जा रही बिक्री" और धोखाधड़ी से की जा रही "फ़्लैश बिक्री" पर प्रतिबंध लगाने पर लोगों से टिप्पणियां मांगी हैं। केंद्र चाहता है कि अनुचित व्यापारिक तौर-तरीक़ों को विनियमित करने और दोषपूर्ण उत्पाद या सेवाओं में कमी लाने के सिलसिले में ई-टेलरों को आंशिक रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जाये।

हमें ऐसे क़ानूनों और विनियमों की ज़रूरत है, जो ऐसी टेक कंपनियों के एकाधिकार को ख़त्म करते हों, उपभोक्ता को शिकार बनाने वाले तौर-तरीक़ों से बचाते हों और मुक्त और निष्पक्ष व्यापार प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देते हों।

फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म को भ्रामक सूचना, ग़लत सूचना और फ़र्ज़ी ख़बरों को फैलाने में मदद करने से रोकने को लेकर एक वैश्विक स्तर पर कोशिश होनी चाहिए।  और ऐसी कोशिशें निष्पक्ष होनी चाहिए। मसलन, सत्ता में बैठे लोगों के भ्रामक पोस्ट को फ़्लैग करने के लिए ट्विटर पर निशाना साधना, मगर सरकार समर्थकों की तरफ़ से नफ़रत फैलाने वाली भाषा से आंखें मूंद लेना सरासर पाखंड है।

(वसंत आदित्य जे. कर्नाटक हाई कोर्ट में अधिवक्ता हैं और 'कॉन्सेप्चुअल फ़ाउंडेशन ऑफ़ कॉम्पिटिशन लॉ इन इंडिया' के लेखक हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

साभार: द लीफ़लेट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Need to Rein in Big Tech Before it Gallops Beyond Control

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