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विडंबना: मार्क्सवादी मैनेजर पांडेय को राम नाम सत्य!

हिंदी-उर्दू पट्टी के ज़्यादातर वामपंथी/मार्क्सवादी लेखकों और बुद्धिजीवियों के विचार और जीवन में गहरा विरोधाभास और फांक दिखायी देती है।
MANAGER PANDEY

इसे गहरी विडंबना कहा जायेगा—हालांकि हिंदी-उर्दू पट्टी के ज़्यादातर वामपंथी/मार्क्सवादी लेखकों/बुद्धिजीवियों के लिए अब यह विडंबना – जैसी चीज़ नहीं रही—कि घोषित तौर पर हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पांडेय (1941-2022) को आख़िरी विदाई सनातनी हिंदू नारे ‘राम नाम सत्य है’ के साथ दी गयी।

दिल्ली के लोदी रोड शवदाहघर में 7 नवंबर 2022 को लकड़ी की चिता पर पूरे हिंदू कर्मकांड के साथ—ब्राह्मणवादी तरीक़े से—उनका अंतिम संस्कार किया गया।

मैनेजर पांडेय की अरथी उठाये उनके परिवारवाले जब ज़ोर-जोर से ‘राम नाम सत्य है’ के नारे लगाते लोदी रोड शवदाहघर में घुसे, तो ऐसा लगा, जैसे मार्क्सवाद की कपालक्रिया होने जा रही है!

मुझे याद आया, कुछ दिन पहले हिंदी लेखक शेखर जोशी का इंतकाल हुआ था और उनकी लाश उनके परिवारजनों ने एक अस्पताल को सौंप दी थी—मेडिकल मक़सद के लिए। शेखर जोशी की इच्छा थी कि मैं देहदान करूं। मुझे याद आया, कुछ साल पहले हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने भी देहदान किया था, उनकी इच्छा के मुताबिक उनके परिवारवालों ने उनकी लाश एक अस्पताल को सौंप दी थी।

मैनेजर पांडेय भी यह कर सकते थे। वह इच्छा जता सकते थे या लिख कर सख़्त निर्देश दे सकते थे, कि मेरे मरने के बाद कोई धार्मिक पाखंड न किया जाये, कोई धार्मिक रस्म-ओ-रिवाज न हो। वह इच्छा जता सकते थे कि मेरे मरने के बाद मेरी लाश किसी अस्पताल को सौंप दी जाये (देहदान) या फिर बिजली या सीएनजी से चलनेवाले शवदाहघर में जला दी जाये—बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाज के।

हिंदी-उर्दू पट्टी के ज़्यादातर वामपंथी/मार्क्सवादी लेखकों और बुद्धिजीवियों के विचार और जीवन में गहरा विरोधाभास और फांक दिखायी देती है। वे एक ही साथ हिंदू कर्मकांड/ब्राह्मणवाद और मार्क्सवाद को साध लेना चाहते हैं! कई बार यह चीज़ पाखंड का रूप ले लेती है।

अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि मैनेजर पांडेय इस प्रवृत्ति से मुक्त नहीं थे। उनके विचार और जीवन में गहरी फांक दिखायी देती थी। विचार से वह धुरंधर मार्क्सवादी थे, निजी जीवन में वह धुरंधर हिंदू कर्मकांडी थे। यह हिंदू कर्मकांड ब्राह्मणवाद से ही अपना दाना-पानी लेता है।

कुछ साल पहले मैनेजर पांडेय ने अपनी पहली पत्नी के साथ शादी की (शायद) पचासवीं सालगिरह अपने गांव (गोपालगंज, बिहार) में मनायी। इस कार्यक्रम की तस्वीरें व वीडियो सार्वजनिक तौर पर जारी किये गये। मैनेजर पांडेय ने यह सालगिरह पूरे हिंदू धार्मिक विधि-विधान से मनायी—उन्होंने जनेऊ धारण किया, धोती पहनी, मंत्र पढ़ा, पूजा-अर्चना की, आग (हवन) का फेरा लगाया... जयमाला-छापा-तिलक सब हुआ!

हमारे समाज में कई ऐसे वामपंथी/मार्क्सवादी बुद्धिजीवी हैं, जो यह मानते हैं कि मार्क्सवाद सिर्फ़ विचार, बहस, साहित्य, भाषण, क्लासरूम लेक्चर की चीज़ है, उसका व्यक्ति के निजी जीवन से कोई ताल्लुक नहीं, न होना चाहिए। इसलिए वे अपने-अपने परिवार में कभी कोशिश नहीं करते कि मार्क्सवाद के पक्ष में माहौल बने और परिवार के सदस्य मार्क्सवाद के हमदर्द बनें। इन बुद्धिजीवियों के जीवन में पोंगापंथ और दकियानूसी भी अच्छी-ख़ासी दिखायी देती है।

मैनेजर पांडेय के साथ दिक़्क़त यह थी कि वह झोलावाला बुद्धिजीवी तो थे, लेकिन वह झोलावाला आंदोलनकारी नहीं थे—सड़क पर चल रहे आंदोलन में शायद ही कभी उन्हें देखा गया हो। वह जन बुद्धिजीवी नहीं, क्लासरूम बुद्धिजीवी और सेमिनार रूम बुद्धिजीवी थे।

वह हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के पुरस्कार वापसी अभियान के दौरान उदासीन और निष्क्रिय बने रहे, जबकि इस मुहिम में उन्हें आगे बढ़कर काम करना चाहिए था। इसी दौर में वह दिल्ली में एक ऐसे खान-पान कार्यक्रम में शामिल हुए, जिसका आयोजन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े नेताओं ने किया था। ख़ास बात यह थी कि वह कवि नीलाभ की मौत पर बुलायी गयी शोक सभा में तो नहीं आये, लेकिन खाने-पीने वाले इस कार्यक्रम में ज़रूर गये।

लेखक अज्ञेय के मूल्यांकन को लेकर मैनेजर पांडेय ख़ासे दुविधाग्रस्त—बल्कि विरोधाभास से भरे हुए—थे। वर्ष 2011 में तीन महीने के भीतर उन्होंने अज्ञेय पर दो अलग-अलग राय रखी। उस साल जनवरी में उन्होंने एक साहित्यिक कार्यक्रम में अज्ञेय की निंदा करते हुए उन्हें ‘दक्षिणपंथी’ और ‘सांप्रदायिक’ लेखक बताया। मार्च का महीना आते-आते उनकी राय बदल चुकी थी—अब अज्ञेय ‘सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ने वाले एक महत्वपूर्ण लेखक’ और ‘विशेष के अन्वेषक’ बन चुके थे।

मैनेजर पांडेय लंबे समय तक जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष रहे। इस दौरान संगठन को आत्मालोचन और आत्मान्वेषण का जो काम करना चाहिए था, वह नहीं हुआ।

कहना चाहिए कि तीनों लेखक संगठनों—जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संगठन—ने आत्मालोचन और आत्मान्वेषण के काम को बरसों पहले तिलांजलि दे दी। अब किसी भी लेखक संगठन के अंदर विचारोत्तेजक, बौद्धिक स्फूर्ति देनेवाली बहस नहीं होती, नये विचार नहीं रखे जाते, आलोचना और विचार-विमर्श नहीं होता, विचारों की टकराहट नहीं होती, नये सवाल नहीं पूछे जाते, सवाल-जवाब नहीं होता। संगठनों के अंदर लोकतांत्रिक, दोस्ताना माहौल और स्पेस लगातार सिकुड़ता गया है, आपसी कॉमरेडशिप कमज़ोर होती चली गयी है, और बराबरी का व्यवहार ख़त्म हो चला है।

हालत यह हो गयी है कि सवाल-जवाब करने या असहमति जताने पर आपको संगठन से बाहर का रास्ता दिख़ाया जा सकता है या आपको सांगठनिक अलगाव में डाला जा सकता है। नेतृत्वकारी निकाय की आलोचना बर्दाश्त नहीं की जाती। प्रायोजित सवाल पूछने की ‘छूट’ ज़रूर है, और स्त्री-विरोध और पुरुषवाद भी हावी है।

इसी का नतीज़ा है कि जन संस्कृति मंच का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति (रविभूषण) को बनाया गया है, जो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ/जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय का समर्थक और प्रशंसक है; प्रगतिशील लेखक संघ का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति (विभूतिनारायण राय) को बनाया गया है, जो हिंदी लेखिकाओं को ‘रंडी’ और ‘छिनाल’ कह चुका है; जनवादी लेखक संघ का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति (असग़र वजाहत) को बनाया गया है, जिसने शाहीनबाग़ आंदोलन की महिलाओं का अपमान यह कह कर किया कि “...अगर ये महिलाएं केवल बैठी न रहतीं बल्कि कुछ करती होतीं, जैसे बर्फ़ीले पहाड़ों पर तैनात भारतीय सिपाहियों के लिए स्वेटर या दस्ताने बुनती होतीं तो शायद और अच्छा होता।"

तकलीफ़देह बात यह है कि यूआर अनंतमूर्ति, मंगलेश डबराल, नीलाभ, वीरेन डंगवाल, पंकज सिंह, और मैनेजर पांडेय के अंतिम संस्कार हिंदू कर्मकांडी/ब्राह्मणवादी तरीक़े से किये गये। इस कड़ी में नामवर सिंह का नाम भी शामिल किया जा सकता है। इनमें से पहला विवेकवादी/नास्तिक लेखक था, बाक़ी सब वामपंथी कवि या लेखक थे। पंकज सिंह की लाश पर रामनामी चादर भी डाल दी गयी थी!

(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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