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किताबों का मेला : क्यों प्रगतिशील जनवादी साहित्य की तरफ़ रुख़ करना ज़रूरी है

'किताब क्या है ये भीतर से खोलकर देखो’...। दिल्ली में लगे विश्व पुस्तक मेला में प्रगतिशील जनवादी साहित्य के प्रति पाठकों का रुझान एक उम्मीद तो जगाता है।
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दिल्ली में वर्ल्ड बुक फेयर शुरू हो चुका है। 25 फरवरी से 5 मार्च 2023 तक चलने वाले इस फेयर में सुबह 11 बजे से रात 8 बजे तक जाया जा सकता है। इस बार बुक फेयर का थीम आज़ादी का अमृत महोत्सव पर है। किताबों के इस मेले में प्रगतिशील जनवादी साहित्य के प्रति पाठकों का रुझान किताबों से दूर होते इस दौर में आश्वस्त करता है, एक उम्मीद तो जगाता है।

किसे पता था इमरजेंसी भेस बदलकर आएगी

तानाशाही नए दौर में लोकतंत्र कहलाएगी ;

उनके ज़ोर-ज़ुल्म सब हमने अब तक चुपचाप सहे

संघर्षों के वारिस होकर यारों क्यों चुपचाप रहें ;

क्रांतिकारी कवि-शायर बल्ली सिंह चीमा की कविता की इन पक्तियों को सुनते ही मौजूद लोग ख़ुद को रोक नहीं पाए और हर तरफ़ से एक साथ ‘वाह!वाह!’ की आवाज़ गूंज गई। किसान आंदोलन के दौरान लिखे गए उनके इस जनगीत को भी काफी पसंद किया गया। इसकी कुछ और पंक्तियां हैं-

मौत के डर को छोड़ छाड़कर तू जीने के क़ाबिल हो

ज़िन्दा है तो सड़कों पे आ , संघर्षों में शामिल हो

जात-धर्म से ऊपर उठ जा इंसानों में शामिल हो

हर मजूर और किसान की आशाओं में शामिल हो

रोज़गार और शिक्षा का हक़ अधिकारों में शामिल हो

ज़िंदा है तो सड़कों पे आ, संघर्षों में शामिल हो

बल्ली सिंह चीमा अपना जनगीत सुनाते हुए

बल्ली सिंह चीमा किसान आंदोलन के दौरान क़रीब एक साल तक दिल्ली के बॉर्डर पर रहे और संघर्षों में डूबी कविताएं रचते रहे लेकिन दिल्ली में चल रहे बुक फेयर में एक स्टॉल गुलमोहर किताब पर कुछ लोगों के बीच जब उन्होंने इस कविता को सुनाना शुरू किया तो आते-जाते लोग भी ठहर कर एक निगाह उनपर डालने को मजबूर दिखे।

गुलमोहर किताब के स्टॉल के आस-पास अलग-अलग संघर्षों से जुड़े लोगों का जमावड़ा किसी जन आंदोलन की जगह ही लग रही थी।

दो साल बाद लौटी बुक फेयर की रौनक

दो साल बाद दिल्ली के प्रगति मैदान में एक बार फिर किताबों की दुनिया की वही रौनक लौटी थी जिसका दिल्ली के लोग बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही हॉल नंबर दो में दाख़िल हुए किताबों की ख़ुशबू ज़ेहन में उतरने लगी, बुक फेयर का दूसरा दिन रविवार का था और लोगों की भीड़ किताबों से मोहब्बत बयां कर रही थी। कंधों पर बैग या फिर थैला टांगे लोग, किताबों को ख़रीदने से पहले उसके कुछ एक पन्नों को पलटकर पढ़ते हुए दिखे, किसी कोने में किताब का विमोचन तो कहीं किताब पर चर्चा, बच्चों के लिए बनाया ख़ास 'बाल मंडप' बच्चों की खिलखिलाट से गूंज रहा था उनके लिए स्टोरी टेलिंग सेशन में ख़ासी भीड़ दिख रही थी।

बाल मंडप, बच्चों का स्टॉल व भीड़

कोई रेख़्ता के स्टॉल पर 'उर्दू लर्निंग गाइड' के पन्ने पलट रहा था तो इसी स्टॉल की सबसे ज़्यादा बिकने वाली फ़ैज़ की किताब 'गुलों में रंग भरे' पैक करवाई जा रही थी। हॉल के बाहर बने सेल्फ़ी पॉइंट पर भी ख़ासी भीड़ दिखाई दे रही थी। तो कुछ रीडर और राइटर मोमेंट को क्लिक करवा कर तुरंत ही इंस्टाग्राम पर पोस्ट करने की जल्दी भी दिखी।

किताबों से राब्ता रखने वालों के लिए 25 फरवरी से 5 मार्च तक चलने वाला दिल्ली बुक फेयर बहुत ही ख़ास रहने वाला है। अपने शौक़ और मिज़ाज के मुताबिक़ लोग किताबों में झांकते नज़र आ रहे हैं। लेकिन हॉल नंबर दो में कुछ स्टॉल बहुत ही ख़ास दिखे। वहां सजी किताबें बीते कुछ सालों के हालात और उनसे निकले आंदोलन और संघर्षों की कहानी बयां करती दिखीं। तो कौन से ऐसे स्टॉल हैं जिन्हें बुक फेयर में बिल्कुल मिस नहीं किया जाना चाहिए।

कुछ ख़ास स्टॉल

-वाम प्रकाशन (नया रास्ता प्रकाशक प्राइवेट लिमिटेड), गार्गी प्रकाशन, रुझान प्रकाशन, गुलमोहर किताब, प्रतिश्रुति प्रकाशन, शब्दसंधान,फिलहाल, दलित दस्तक दास पब्लिकेशन, फॉरवर्ड प्रेस, नवारूण प्रकाशन, जनचेतना, आदिवासी इंडिजनस बुक-अखाड़ा (Adivasi Indigenous Book-Akhra )

वाम प्रकाशन का स्टॉल

वाम प्रकाशन पर जो किताबें ध्यान खींचती हैं वो हैं 'मुसाफ़िर की डायरी' (ख़्वाजा अहमद अब्बास), वक़्त की आवाज़ सीरीज के तहत 'जाति से जंग', 'कितने यातना शिविर', 'हल्ला बोल' इस स्टॉल में हमारी मुलाक़ात संजय कुंदन से हुई जो बताते हैं कि मौजूदा दौर में इस तरह की किताबों को पढ़ना क्यों ज़रूरी है, वो कहते हैं कि ''अभी जिस तरह से विचार का जो संकट है, जिस तरह से विचार पर हमला हो रहा है उसमें ऐसी किताबों की प्रसांगिकता ज़्यादा बढ़ जाती है। ऐसी किताबें जो विचारों को सामने लाती हैं, बहुत सी बातें स्पष्ट भी करती हैं, बहुत से ऐतिहासिक बातों को लेकर जो विमर्श है जिसे दक्षिणीपंथी ताकतों के द्वारा धुंधला करने की कोशिश चल रही है तो उसे काउंटर करती हैं या फिर तस्वीर को साफ़ करती हैं, या कह सकते हैं कि जागरुकता लाने के लिए हमें वैचारिक किताबों की ज़रूरत है।''

वो उदाहरण देकर समझाते हैं कि, '' हमारे यहां किसान आंदोलन पर किताब है, ये किताब मुख्यधारा की मीडिया के द्वारा जो भ्रम फैलाया गया था उसे जवाब देने के लिए ज़रूरी है, इसलिए हम ऐसी किताबें सामने लाए, इसके अलावा हम एक और किताब लाए हैं 'कुछ और अलगू, कुछ और जुम्मन' प्रेमचंद की सांप्रदायिकता विरोधी कहानियां हैं, तो हमारे साहित्य में सांप्रदायिकता से लड़ने के सूत्र उपलब्ध हैं, उन्हें फिर से लाना और स्थापित करना भी हमारा एक काम है।''

इसी स्टॉल पर हमारी मुलाकात सचिन सार्थक नाम के युवा से हुई जिन्होंने इसी स्टॉल से दो किताबें ख़रीदी थीं, एक किताब का नाम था 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' और दूसरी, 'जाति से जंग, वक़्त की आवाज़' । जब हमने जानना चाहा कि उन्होंने इन किताबों को क्यों ख़रीदा तो वो कहते हैं कि ''सबसे पहले तो मैं आपको बता दूं मैं किसी भी छात्र संगठन से नहीं हूं, मुझे ऐसी किताबें पढ़ना पसंद है, जो समाज में बराबरी की बात करती हैं, आज कल के दौर में इतना कुछ घट रहा है तो उसके ख़िलाफ़ अगर कुछ अच्छा लिख रहा है तो उसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।''

गार्गी प्रकाशन का स्टॉल

सामाजिक सरोकारों से जुड़े गार्गी प्रकाशन पर जब हम पहुंचे तो वहां एक उत्सव का माहौल था पता चला कि एक महिला पाठक गार्गी प्रकाशन की किताबों से इतनी प्रभावित थीं कि वो इस स्टॉल के नाम को बहुत ही सुंदर लिखकर स्टॉल को भेंट करने पहुंची थीं। इस स्टॉल पर सुभाष चंद्र बोस के पोस्टर ने ध्यान खींचा जिसपर उनकी तस्वीर के नीचे लिखा था, -''भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं- भारतीय श्रमिकों को आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते।'' इस स्टॉल पर 'नौजवानों के नाम शहीदे - आज़म भगतसिंह का संदेश', 'बटुकेश्वर दत्त: एक जिंदगीनामा', लेनिन की किताब 'राज्य और क्रांति' के अलावा किसानों से जुड़ी 'किताब किसान', 'देश विदेश', 'बढ़ती बेरोजग़ारी, कौन है इसका ज़िम्मेदार' दिखी, इन किताबों को कई युवा खरीदते और पलटते दिखे जो बता रहा था कि भगत सिंह के विचार हर दौर पर पढ़े और पंसद किए जाने वाले विचार हैं।

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यहां हमारी मुलाक़ात शालू से हुई जो अपने स्टॉल के बारे में बताती हैं कि ''यहां का साहित्य बहुत अलग है, ये प्रगतिशील साहित्य है। यहां जो कहानियां, किस्से और इतिहास की किताबें हैं वो बहुत ही चुनिंदा किताबें हैं, यहां महिलाओं का जो साहित्य है 'रोज़ वाली स्त्री', 'मुक्ति के स्वर' (पत्रिका) 'फ़िरदौस' नाम की एक किताब है ये सारी किताबें मेरी पढ़ी हुई हैं, ये बहुत अच्छी किताबें हैं, जब मैं इन्हें पढ़ती हूं तो ऐसा लगता है कि ये मेरी कहानी कह रही है या फिर ऐसी औरत की कहानी कह रही है जो रोज़-ब-रोज़ हर चीजों से जूझती रहती हैं, उनकी कुछ समस्याएं होती हैं, इन किताबों को पढ़ना बहुत ज़रूरी है, प्रगतिशील साहित्य है, पढ़ने के लिए, जानने के लिए बहुत कुछ है इनमें।''

इसी स्टॉल पर अमरपाल मिले वो गार्गी प्रकाशन के साहित्य को पढ़ने के बारे में बताते हैं कि, ''गार्गी प्रकाशन की ज़िम्मेदारी है कि वो लोगों को वैज्ञानिक नज़रिए से जागरूक करे, उन्हें तार्किक बनाए, किसानों, मजदूरों का इतिहास जो जनता का इतिहास है उससे रूबरू करवाए, वो आगे कहते हैं कि ''किसी ने कहा है कि जो लोग अपना इतिहास नहीं पढ़ते, अपने इतिहास पर गोलियां चलाते हैं, भविष्य उन पर तोप से गोले दाग़ता है, तो अगर हम अपना इतिहास नहीं समझेंगे तो आगे नहीं बढ़ पाएंगे, हमें ये जानना होगा कि बीते मुश्किल दौर में हमारे नायक और नायिकाओं ने उससे निकलने के लिए कैसे संघर्ष किया, कैसे लड़ाइयां लड़ी तो वो नायक हमें प्रेरणा देते हैं।''

बेशक, इतिहास कैसा भी हो उसे तार्किक तरीक़े से पढ़ने की ज़रूरत है, न कि इतिहास के पन्नों को बदल कर इतिहास को ही बदलने की कोशिश की जानी चाहिए।

फ़िलहाल प्रकाशन का स्टॉल

इनके अलावा एक बहुत ही ख़ास स्टॉल दिखा। फ़िलहाल, यहां भी चारों तरफ भगत सिंह, चे ग्वेरा, ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले और मंटो की तस्वीरें दिखती हैं। लेकिन पाश की फेमस कविता अपनी ओर ध्यान खींच लेती है।

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना

तड़प का न होना

सब कुछ सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर जाना...

सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपने का मर जाना...

इस स्टॉल से जुडे एक शख़्स ने हमसे बात करते हुए कहा कि ''ये फ़िलहाल पत्रिका का स्टॉल है, फ़िलहाल पत्रिका पिछले 25 सालों से नियमित तौर पर निकलती है और बराबर बुक फेयर में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाती रही है, ये प्रकाशन प्रगतिशील जनवादी पुस्तकों का प्रकाशन भी करता है, आज के युवाओं और आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए इस बार हम कुछ नई किताबों के साथ आए हैं जैसे किसान आंदोलन पर किताब, जो समसामयिक आंदोलन रहा है, हाल के दिनों में औद्योगिक मजदूरों के आंदोलनों में मारुति सुजुकी के मज़दूरों का आंदोलन बहुत मशहूर हुआ था तो उस पर एक किताब छापी है, तो इस तरह हम आंदोलनों से जुड़ी किताबों को छापते हैं।''

दलित दस्तक का स्टॉल

किताबों के इस समंदर में एक स्टॉल है दलित दस्तक, दास पब्लिकेशन का, यहां सबसे पहले जिस पर नज़र जाती है वो भारत का संविधान है, कुछ देर यहां रुक कर हमने देखना चाहा कि किन किताबों को पाठक सबसे ज़्यादा ख़रीद रहे हैं, तो पता चला है कि 'करिश्माई कांशीराम', 'बहुजन कैलेंडर', 'पूना पैक्ट', 'डॉ आंबेडकर और वाल्मीकि समाज', 'सावित्रीबाई फुले', 'मैं हिन्दू क्यों नहीं हूं' जैसी किताबें ज़्यादा ख़रीदी जा रही थीं, इसके अलावा ओमप्रकाश वाल्मीकि की किताब 'जूठन' भी हाथों-हाथ ली जा रही थी। दिल्ली के बाहरी इलाक़ों से कुछ दोस्तों के ग्रुप से बात हुई जिनसे पता चला कि उन्होंने मिलकर 16 किताबें ख़रीदी हैं। उनका कहना था कि दलित साहित्य ऑनलाइन फिर भी थोड़ा बहुत मिल जाता है लेकिन आम दुकानों पर मिलने में दिक्कत होती है। इसलिए वो बुक फेयर से बहुत सी किताबों को ले जाना चाहते हैं। वो बताते हैं कि मौजूदा दौर में बहुजन समाज का जागरूक होना बहुत ज़रूरी है और ये साहित्य इसमें बहुत सहयोग करता है।

गुलमोहर किताब का स्टॉल

पुस्तक मेले में किताबों की दुनिया में खोने की पूरी गुंजाइश है, तमाम स्टॉल से गुज़रते गलियारे एक ऐसी दुनिया बनाते हैं जहां हर तरफ़ से हो रही बातचीत में कुछ ख़ास सुनाई पड़ता है, ऐसे ही एक स्टॉल का पता है गुलमोहर किताब। रविवार के दिन इस स्टॉल पर कुछ ख़ास गहमागहमी दिखी और वजह थी पत्रकार, संस्कृतिकर्मी मुकुल सरल की नई किताब 'मेरी आवाज़ में है तू शामिल'। स्टॉल के बाहर खड़े लोगों के हाथ में किताब थी और मुकुल सरल से ग़ज़लों और नज़्मों से सजी किताब से कुछ सुना देने की गुज़ारिश हो रही थी जिसे वो पूरा करते हुए सुनाते हैं :

मुकुल सरल की नई किताब 'मेरी आवाज़ में है तू शामिल'

सच कहने में सर कटने का ख़तरा है

चुप रहने में दम घुटने का ख़तरा है

ये कौन सा निज़ाम है, ये कौन सा नया नगर

कि रोज़ एक हादसा, कि रोज़ इक बुरी ख़बर

इस किताब के पहले पन्ने पर ही किताब के नाम का संदर्भ मौजूद है। जिसकी महज़ कुछ पंक्तियों को ही पढ़ने से पता चल जाता है कि इस किताब का हर हर्फ़, हर लफ़्ज़ उस आवाज़ के साथ शामिल है जो ग़रीब और मेहनतकश की आवाज़ है, जो मोहब्बत की आवाज़ है, जो नफ़रत के ख़िलाफ़ उठी आवाज़ है।

इस किताब में बहुत कुछ ऐसा है जो बताता है कि वक़्त का भी कुछ तकाज़ा है जैसे

मुल्क मेरे तुझे हुआ क्या है

ये है अच्छा तो फिर बुरा क्या है !

इसके अलावा गुलमोहर किताब की नई किताब है 'परिवारनामा', जो हिन्दुस्तान के बंटवारे और बाद की कहानी किस्सागोई के अंदाज़ में कहती है। इसी के साथ डॉ. द्रोण कुमार शर्मा का व्यंग्य संग्रह 'उफ़!, टू मच डेमोक्रेसी', शोभा सिंह का कविता संग्रह 'यह मिट्टी दस्तावेज़ हमारा', कवि अजय सिंह का कविता संग्रह 'यह स्मृति को बचाने का वक़्त है' महत्वपूर्ण किताबें हैं, जिनका स्वर मूलत: राजनीतिक है। इसके साथ ही राना अय्यूब की किताब 'गुजरात फ़ाइल्स' तो बेस्ट सेलर है ही। इसे भी हिंदी में गुलमोहर किताब ने छापा है।

जनचेतना का स्टॉल

दो साल बाद किताबों के इस मेले में ऐसा रेला नज़र आता है जो ख़ुद में उमड़ रहे विचारों के समंदर को पाठकों के बीच रखने को बेताब दिखता है।

ऐसा ही एक स्टॉल दिखा 'जनचेतना' का जिसे दिल्ली के अलग-अलग यूनिवर्सिटी के छात्र मिलकर चला रहे थे, हर तरफ़ इंक़लाबी पोस्टर, कोट्स दिखाई दे रहे थे, स्टॉल पर युवाओं की भीड़ साफ़ बता रही थी कि ये स्टॉल बुक फेयर में लोगों को अपनी तरफ़ खींच रहा है।

यहां हमारी मुलाक़ात प्रियंवदा से हुई जो अपने स्टॉल के बारे में बताते हुए कहती हैं कि, ''जनचेतना एक ideological project भी है जिसके तहत हम मानते हैं कि तमाम उन क्रांतिकारियों के विचार, लेखकों, जनपक्षधर साहित्यकारों के विचार लोगों तक पहुंचने चाहिए जिन्होंने समाज को बदलने की बात की, एक बेहतर समाज बनाने की बात की।''

आदिवासी इंडिजनस बुक-अखाड़ा का स्टॉल

इसके अलावा आदिवासी इंडिजनस बुक-अखाड़ा ( Adivasi Indigenous Book-Akhara) भी एक स्टॉल दिखा जहां आदिवासी समाज से जुड़ी बेहतरीन किताबें नज़र आ रही थीं, यहां एक छात्रा से मुलाक़ात हुई जिनका कहना था कि उन्हें यहां इंग्लिश में वो किताब आसानी से मिल गई जो आमतौर पर तलाश करने पर भी नहीं दिखती।

बुक फेयर का पहला रविवार था तो हर स्टॉल पर ही भीड़ थी लेकिन राजपाल, राजकमल, वाणी प्रकाशन, नेशनल बुक ट्रस्ट( NBT) Penguin, रेख़्ता और हिन्द युग्म पर कुछ ज़्यादा ही पाठक दिखे।

दिव्य प्रकाश दुबे पाठक के साथ

हिन्द युग्म (नई वाली हिंदी) पर मानव कौल और दिव्य प्रकाश दुबे की मौजूदगी ने बेशक पाठकों को कुछ क्रेजी कर दिया था। इस दौरान हमने दिव्य प्रकाश दुबे से बात की और जानने की कोशिश की कि आख़िर इस भीड़ की वजह क्या है जिसके जवाब में उन्होंने कहा, ''ये हम लोगों की कोशिश है। हम लोगों ने जबसे लिखना शुरू किया है एक-एक पाठक ढूंढा है, तो जो हमने सालों साल मेहनत की वो अब फल दे रहा है, हमारे पाठक हमें ऐसे नहीं देखते कि हम लेखक हैं वो ऐसे देखते हैं कि ये हमारे ही मोहल्ले का कोई लड़का है, हमारे घर के कोई बड़े भाई हैं तो वो एक स्नेह है।''

किताबों की इस जश्न-ए-महफ़िल में हर तरह के पाठक पहुंच रहे हैं, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि कौन सी किताबें पढ़ी जा रही हैं या फिर कौन सा साहित्य पढ़ा जाना चाहिए? और इसी सवाल को लेकर जब हम आगे बढ़े तो मुकुल सरल का इस 'पुस्तक मेले' पर पढ़े गए ये शे'र बहुत वाजिब लगे :

किताब क्या है ये भीतर से खोल कर देखो

कि वज़्न कितना है, शब्दों को तोल कर देखो

समय को दर्ज किया है कि बतकही की है

ये लफ़्ज़- लफ़्ज़ इशारे टटोल कर देखो

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