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भारत में आधे से ज़्यादा क़ैदी मुस्लिम, दलित और आदिवासी हैं

भारत की आबादी में इन हाशिए की हैसियत वाले समुदायों की हिस्सेदारी 39% है, लेकिन जेलों में इनका अनुपात तक़रीबन 51% है।
भारत में आधे से ज़्यादा क़ैदी मुस्लिम, दलित और आदिवासी हैं

मौजूदा सामाजिक व्यवस्था के किसी न किसी दमनात्मक अभियोग में जेल में बंद क़ैदियो के आंकड़ों पर हाल ही में जारी सरकारी रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत की जेलों में सभी दोषियों और क़ैदियों में से आधे से ज़्यादा मुसलमान या दलित या आदिवासी हैं। 2011 में हुई आख़िरी जनगणना के मुताबिक़, भारत की जनसंख्या में इन तीन समुदायों का अनुपात 39.4% है। लेकिन इन समुदायों के क़ैदियों का अनुपात 50.8% है।

आर्थिक और सामाजिक रूप से ये तीनों भारत में सबसे ज़्यादा पिछड़े समुदाय हैं। इनमें साक्षरता दर कम है, स्कूल और उच्च शिक्षा तक इनकी पहुंच बेहद सीमित है, ग़रीबी की दर ज़्यादा है, बेरोज़गारी ज़्यादा है और समाज में दूसरे समुदायों के मुक़ाबले इनके मालिकाना औसत भूमि की जोत का आकार छोटा है। इसके अलावा, ऊपर से ये कथित ‘उच्च जातियों’ द्वारा सामाजिक उत्पीड़न, हिंसा और भेदभाव के भी शिकार हैं।

दलितों और आदिवासियों के मामले में तो यह सामाजिक उत्पीड़न सदियों पुराना रहा है। संघ परिवार से जुड़े संगठनों-केंद्र और कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकारों के रूप में हालिया उभार और विभिन्न संगठनों की सक्रियता ने मुस्लिम समुदाय को लेकर नफ़रत फ़ैलाने वाली अफ़वाहों और हिंसा के एक नये दौर का आग़ाज़ किया है।

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आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन और भेदभाव का यह मिश्रण ही दरअस्ल भारतीय जेलों में क़ैद इस उच्च दर के लिए ज़िम्मेदार है। यह स्थिति अमेरिका के उस ब्लैक (अफ़्रीकी-अमेरिकी) समुदाय की स्थिति की याद दिलाती है, जिसकी आबादी अमेरिकी सरकार के हालिया आंकड़ों के मुताबिक़ देश की आबादी का तक़रीबन 13% है और अभी तक  बेहद ग़ैर-मुनासिब तरीक़े से 40% की उच्च दर से जेल की सज़ा भुगत रहे हैं।

जैसा कि नीचे दी गयी तालिका में देखा जा सकता है कि मुस्लिम क़ैदियों की तादाद भारत के (दोषी ठहराये गये और विचाराधीन) कुल क़ैदियों का 18.1% है। यह 2011 की जनगणना के मुताबिक़ भारत की आबादी में मुसलमानों के अनुपात यानी 14.2% से ज़्यादा है। यह फ़र्क़ दलितों (अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जातियों) के मामले में तो  और भी ज़्यादा है।  

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जबकि भारत की आबादी में दलितों की हिस्सेदारी 16.6% है,लेकिन जेलों में क़ैद लोगों में इनका अनुपात 21.2% हैं। इसी तरह, आदिवासी (अनुसूचित जनजाति या एसटी) देश की आबादी का 8.6% हिस्सा हैं, लेकिन जेलों में उनका अनुपात 11.5% है।

पहले के सालों के विश्लेषण से पता चलता है कि बारी-बारी से आती-जाती तमाम सरकारों के सामाजिक न्याय, क़ानून के सामने बराबरी और "सबका साथ, सबका विकास" (सभी के लिए विकास) के इन सभी दावों के बावजूद ये विषम स्थिति हमेशा से रही है। यह महज़ आदर्श स्थिति से विलगाव भर नहीं है,बल्कि भारत की ग़ैर-बराबर और भेदभावपूर्ण सामाजिक-आर्थिक प्रणाली की एक विशिष्टता है।

समाज के वंचित वर्ग

इन भयानक हालात को बनाने में कई कारकों की भूमिका है। किसी भी चीज़ से ज़्यादा जो सबसे अहम बात है,वह यह कि इन समुदायों से जुड़े लोग ज़्यादातर ग़रीब हैं। यह ग़रीबी उन्हें पुलिस की जांच से लेकर अदालतों में चलती कार्यवाही के लिए उचित क़ानूनी सलाह पाने तक के दरम्यान आड़े आती है। उनके वंचित होने की यह स्थिति पुलिस या अदालत के दस्तावेज़ों की प्रतियां हासिल करने और प्रामाणिक जानकारी दर्ज किये जाने की जांच-पड़ताल करने, न्यायिक कार्यवाहियों के चक्रव्यूह को सुलझाने वाले कुशल और निपुण वक़ीलों की नुमाइंदगी पाने, ज़मानत या पेरोल के लिए प्रार्थना पत्र देने या पैरोल, उच्च अपीलीय निकायों के लिए याचिका दायकर करने, आदि जैसे बुनियादी क़ानूनी अधिकारों का इस्तेमाल करने के आड़े आती है।

इसमें न सिर्फ़ उनकी ग़रीबी एक बाधा है, बल्कि उनके ख़िलाफ़ पुलिस और अक्सर अदालतों की तरफ़ से व्यापक रूप से मौजूद पूर्वाग्रह भी एक रुकावट है। जिन्हें पारदर्शी और निष्पक्ष रूप से कार्य करना चाहिए,जब ये निकाय ही मुसलमानों या दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ इस तरह के सांप्रदायिक और जातिवादी पूर्वाग्रहों को प्रदर्शित करना शुरू कर दे, तब तो इंसाफ़ पाने की उम्मीद ही कम हो जाती है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो,भारत की जेल सांख्यिकी,2019 की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत की जेलों में क़रीब  30% क़ैदी अपराधी हैं और लगभग 69% विचाराधीन क़ैदी हैं। बाक़ी बचे 1% क़ैदी नज़रबंद या दूसरे तरह के क़ैदी हैं। बड़ी तादाद में तो ऐसे विचाराधीन क़ैदी हैं,जिनके पास इतने संसाधन नहीं होने होते कि वे अपनी ज़मानत के लिए याचिका भी दायर कर सकें। ज़ाहिर है, तब ग़रीब लोग अपनी घोर ग़रीबी के चलते जेलों में ही फ़ंसे रह जाते हैं। ऐसे लोगों में इन तीन समुदायों का अनुपात बहुत बड़ा है।

राज्य सरकारों की भूमिका-मुसलमान

नीचे दी गयी तालिका से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश की जेलों में 27% क़ैदी मुसलमान हैं, हालांकि राज्य की आबादी में उनका अनुपात 20% है। गुजरात में मुसलमानों का अनुपात राज्य की आबादी का महज़ 10% है, लेकिन क़ैदियों के बीच उनका अनुपात 27% है,जो कि बेहद डरावना है। यह सभी राज्यों के बीच यह सबसे ख़राब रिकॉर्ड है। सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाले राज्य असम (जम्मू और कश्मीर और लक्षद्वीप में ज़्यादतर मुसलमान हैं, लेकिन वे केंद्र शासित प्रदेश हैं) में 45% क़ैदी मुसलमान हैं, हालांकि राज्य की आबादी का वे 34% हैं।

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इन तीनों राज्यों में जो समानता है,वह यह कि वहां भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें हैं और  संघ परिवार और भाजपा द्वारा पोषित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का स्तर (संयोगवश नहीं) बहुत ज़्यादा है। यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार 2017 में सत्ता में आयी थी और यह पूरी ऊर्जा के साथ मुस्लिम-विरोधी नीतियों का अनुसरण किये जा रही है, चाहे वह कथित एंटी-लव-जिहाद अभियान हो या भड़काने वाला मुसलमान विरोधी प्रदर्शन को लेकर मिलता प्रोत्साहन हो या 2019 के आख़िरी महीनों में शुरू होने वाले सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के विरोध में सड़कों पर आये प्रदर्शनकारियों  पर हुए बर्बर हमले हों (इस कारण जेलों में डाल दिये गये लोगों के आकड़ों को उन आंकड़ों में अभी शामिल किया जाना बाक़ी है,जो दिसंबर 2019 तक के हैं)।

निश्चित रूप से गुजरात आक्रामक हिंदू धर्म का जाना-माना प्रयोगशाला है, जहां भाजपा 25 वर्षों से सत्ता में है, और जिसने फ़रवरी-मार्च 2000 में भारत के इतिहास का सबसे ज़्यादा बर्बर मुस्लिम-विरोधी तबाही देखी है। पूर्वोत्तर में असम बीजेपी की हालिया जीत दर्ज करने वाला राज्य है, लेकिन चुनावी फ़ायदे के लिए संघ परिवार / बीजेपी ने यहां जातीय दरार से पैदा किये गये भयावह सांप्रदायिक तनाव को भी अपना हथियार बना लिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि यहां मुस्लिम क़ैदियों का अनुपात ज़्यादा है।

पश्चिम बंगाल इस मुद्दे का एक दिलचस्प पहलू पेश करता है। यहां 2011 से ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस का शासन है,जो कि अल्पसंख्यक अधिकारों की हिफ़ाज़त करने वाली शख़्सियत के तौर पर ख़ुद को चित्रित करती हैं। इसके बावजूद, राज्य के क़ैदियों में मुस्लिम समुदाय के 37% क़ैदी शामिल हैं, जबकि राज्य की आबादी में इस समुदाय की हिस्सेदारी 27% है। ज़ाहिर है, मुसलमानों के हितों की हिफ़ाज़त को लेकर टीएमसी सरकार के दावे झूठे और कुल जमा ज़ुबानी हैं, क्योंकि जहां तक मुसलमानों के जेलों में बंद होने का सवाल है,तो इसकी भी शासन प्रणाली भाजपा सरकार से अलग नहीं है।

राज्य सरकारों की भूमिका-दलित और आदिवासी

जैसा कि नीचे दी गयी तालिका में दिखाया गया है कि अगर जेलों में क़ैद दलित और आदिवासी क़ैदियों पर राज्य-वार आंकड़े पर नज़र डाला जाय,तो जो तस्वीर उभरती है,वह कोई एक दूसरे से अलग नहीं है।

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यूपी, गुजरात, असम, मध्य प्रदेश (सभी भाजपा शासित राज्य) और बिहार (जनता दल-यूनाइटेड / भाजपा गठबंधन शासित राज्य)-इन सभी में राज्य की सम्बद्ध आबादियों के अनुपातों के मुक़ाबले जेलों में बंद दलितों और आदिवासियों का अनुपात ज़्यादा है। जबकि यूपी में दलितों की आबादी 21% है,लेकिन जेलों में बंद कुल क़ैदियों में इनका अनुपात 24% है, यहां तक कि यूपी में छोटे आदिवासी समुदाय (सोनभद्र ज़िले में केंद्रित महज़ 0.6%) को भी नहीं बख्शा गया है और राज्य की जेलों में क़ैद लोगों में इनका अनुपात 5% है।

गुजरात में दलितों और आदिवासियों को लेकर वैसी ही वैमनस्यता दिखती है,जैसी कि मुसलमानों को लेकर है, क्योंकि यहां कुल आबादी में दलितों का अनुपात 7% है,जबकि जेलों में बंद दलितों का अनुपात 16% है,वहीं आदिवासी यहां की कुल आबादी का 15% है,जबकि इस समुदाय से जेलों में क़ैद लोगों की संख्या का अनुपात थोड़ा ज़्यादा,यानी 16% है।

इस साल की शुरुआत में कुछ लालची कांग्रेसी विधायकों के दल-बदल के बाद मध्यप्रदेश में एक भाजपा सरकार का गठन कर दिया गया था। इसलिए,इस आंकड़े में कमल नाथ की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल का ज़िक़्र होगा,जिन्होंने 2018 में कांग्रेस को मुश्किल से मिली जीत का नेतृत्व किया था। लेकिन,लम्बे समय से निर्बाध चल रहे भाजपा शासन के पिछले सालों के विश्लेषण से यह बात पुष्ट हो जाती है कि राज्य में अल्पकालिक कांग्रेस मंत्रालय भी बस वही सब करता रहा,जो भाजपा इन वर्षों में करती रही थी।

बीजेपी 2016 में बिहार में भी निर्वाचित जदयू-राष्ट्रीय जनता दल से बने गठबंधन वाली सरकार को उखाड़ फेंका और नीतीश कुमार की जदयू के साथ नये सिरे से चुनावी गठबंधन बनाकर सत्ता पर काबिज़ हो गयी। फिर भी जैसा कि ऊपर की तालिका से देखा जा सकता है कि दोनों ही सहयोगियों ने दलितों और छोटे आदिवासी समुदाय के प्रति अपनी वैमनस्यता को जारी रखा है। बिहार की आबादी का 16% दलित हैं, लेकिन जेलों में इनका अनुपात 21% तक है। इसी तरह, हालांकि आदिवासियों की तादाद राज्य की कुल आबादी की महज़ 1.3% है, लेकिन जेलों में क़ैद लोगों में आदिवासियों का अनुपात 4% है।

ओडिशा में पिछले दो दशकों से नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली ग़ैर-भाजपा और ग़ैर-कांग्रेसी सरकार वाला राज्य रहा है। यहां 17% दलित और 23% आदिवासी आबादी हैं,जो राज्य की पूरी आबादी का तक़रीबन 40% हैं। लेकिन, इस तरह की एक बड़ी मौजूदगी के बावजूद, ये समुदाय आपराधिक न्याय प्रणाली के कोप और पूर्वाग्रह का सामना करते हैं। जेल के 30% क़ैदी दलित और 28% क़ैदी आदिवासी हैं,दोनों मिलकर राज्य के कुल क़ैदियों की संख्या का 58% का गठन करते हैं।

फिर किया क्या जाये

दुखद है कि अलग-अलग सरकारों की तरफ़ से स्थापित ज़्यादातर क़ानूनी या जेल सुधार आयोगों या समितियों ने इस चल रहे अन्याय को आसानी से नज़रअंदाज कर दिया है। वामपंथियों को छोड़कर,ज़्यादतर राजनीतिक दलों ने इसकी कभी सुध नहीं ली है,क्योंकि वे सिर्फ़ सरपरस्ती की सियासत में संलिप्त हैं,यानी ये पार्टियां सिर्फ़ अपने समर्थकों की हिफ़ाज़त करती हैं और बाक़ियों की परवाह बिल्कुल ही नहीं करती हैं। क़ानूनी और मानवाधिकार की वक़ालत करने वाले समूह भी अक्सर इसकी अनदेखी कर देते हैं। इस दुखद स्थिति को बदलने वाले किसी भी सामान्य नुस्खों में किसी प्रकार का जेल सुधार या नगण्य क़ानूनी सहायता होते हैं। लेकिन,सिस्टम बहुत ताक़तवर होता है और इसके हाथ बहुत लंबे होते हैं।

इस हालात को बदलने के लिए सबसे पहले उस गहन और व्यापक जांच-पड़ताल की ज़रूरत है, जिसमें जेलों के क़ैदियों के आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक पृष्ठभूमि पर संपूर्ण डेटा का संग्रह किया जाना शामिल होना चाहिए, सभी क़ानूनी ज़मानत आवेदनों और तमाम मामलों के तत्काल निपटान (कानूनी प्रावधानों के अनुसार) को लेकर ख़ास तौर पर मुसलमान, दलित और आदिवासी समुदायों से आने वाले उन मामलों का विश्लेषण किया जना चाहिए, जिन पर आरोप लगाए गये (या जो दोषी पाये गये) हैं।

इसके अलावा, इन क़ैदियों के ख़िलाफ़ राजनीति या आंदोलन से जुड़े आरोपों की जांच और उनके त्वरित निपटान होने चाहिए। ऐसा इसलिए ज़रूर है,क्योंकि कई मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों को प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन या बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए वन भूमि का अधिग्रहण; जातिगत अत्याचार; सांप्रदायिक क़ानूनों (जैसे सीएए) जैसी लोकतांत्रिक मांगों की सीमा में विरोध करने तक के लिए उन्हें जेल में डाल दिया गया है या सांप्रदायिक और जातिवादी प्रकृति के आरोपों में ग़लत तरीक़े से उन्हें फ़ंसा दिया गया है।

ख़ासकर जब प्रतिशोधी और प्रगतिविरोधी सत्ताधारियों की सरकार सत्ता में है,और निरंकुश तरीक़े से काम कर रही है,ऐसे समय में अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए इन सबको व्यापक, ज़्यादा गहन आंदोलन के ज़रिये मज़बूती से साथ देने की ज़रूरत है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Over Half of Prisoners in India are Muslims, Dalits and Adivasis

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