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स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर संसद और लोकतंत्र

जैसे-जैसे भारत स्वतंत्रता के बाद की अपनी यात्रा में एक प्रमुख मील के पत्थर के करीब पहुंच रहा है, तब संविधान सभा और स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने संसदीय लोकतंत्र को क्यों चुना, इस पर एक नजर डालना जरूरी है।
Parliament of India

स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ से कुछ समय पहले, संसद की भूमिका और उसकी जिम्मेदारियों के उन विचारों को याद करना अनिवार्य है, जिन पर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहस हुई थी। तब यह अवधारणा उभरी थी कि: संसद लोगों की संप्रभु इच्छा का प्रतिनिधित्व करेगी और उनके सामने आने वाले मुद्दों पर विचार-विमर्श करने के बाद कानून बनाएगी। सबसे बढ़कर, संसद के प्रति सरकार जवाबदेह होगी। 

गांधी की दृष्टि 

3 नवंबर 1917 को गुजरात में हुए के राजनीतिक सम्मेलन में महात्मा गांधी के संसद के चित्रण और उसकी भूमिका का सबसे महत्वपूर्ण विवरण माना जाता है। पूर्व राष्ट्रपति, स्वर्गीय केआर नारायणन ने अपने निवर्तमान भाषण में गांधी के जिन शब्दों का हवाला दिया था। वे ये हैं, "अगर हमारे पास कोई संसद होगी, तो हमारी संसद क्या करेगी? गांधी ने कहा कि जब हमारे पास यह होगी, तो हमें गलतियाँ करने और उन्हें ठीक करने का अधिकार होगा। उन्होंने कहा कि गणतंत्र के शुरुआती दौर में लोगों से बड़ी भूल होगी, "लेकिन, धरती के लाल होने के नाते, हम खुद को सही करने में समय नहीं गंवाएंगे।" 

नारायणन ने आजादी से कुछ दशक पहले भारत के सामने महत्वपूर्ण संघर्षों पर गांधी के शब्दों को उजागर करना चुना था; कि हम "जल्द ही गरीबी के खिलाफ उपाय खोज लेंगे" और अब "लंकाशायर के उत्पादों" पर निर्भर नहीं रहेंगे। महत्वपूर्ण रूप से, गांधी ने इस संबोधन में कहा कि भारत "शाही दिल्ली के निर्माण पर अनकहा धन खर्च नहीं करेगा"। यह, निश्चित रूप से, भारत के गरीबों को ध्यान में रखते हुए कहा था, जिनके बारे में गांधी ने अपने जीवनकाल में बात की थी। नारायणन ने कहा कि गांधी के अनुसार, "गलती करने की स्वतंत्रता और त्रुटियों को ठीक करने की शक्ति स्वराज की एक परिभाषा है। संसद होने का मतलब स्वराज का होना है।"

उसी नवंबर 1917 के संबोधन में, गांधी ने प्रसिद्ध रूप से कहा था कि, "हमारे पास जल्द ही एक संसद होनी चाहिए। हम इसके लिए काफी फिट हैं। इसलिए, हम इसे अपनी मांग से  हासिल करेंगे। यह 'इसी दिन' को परिभाषित करने के लिए हमारे ऊपर टिकी हुई है।"

कुछ ही महीने बाद, 21 फरवरी 1918 को, गांधी ने मानवतावादी फ्लोरेंस विंटरबॉटम को लिखा कि भारत को "संसदीय सरकार के रास्ते से गुजरना होगा और, यह देखते हुए कि ऐसा होगा,  मैं स्वाभाविक रूप से एक ऐसे आंदोलन का समर्थन करता हूं जो सर्वोत्तम संसदीय सरकार का मार्ग सुनिश्चित करेगा..."

ध्यान दें कि तीस साल बाद, 17 दिसंबर 1946 को, यहां तक कि दक्षिणपंथी नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी कहा था कि संविधान सभा, जिसके वे सदस्य थे, को एक स्वतंत्र और संप्रभु भारतीय गणराज्य की पहली संसद घोषित किया जाना चाहिए था।

नेहरू के उद्देश्य संकल्प

भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में प्रसिद्ध उद्देश्य का संकल्प  पत्र पेश किया था, जिसने संसद और संसदीय लोकतंत्र के मूल ढांचे के हिस्से के रूप में एक संविधान लिखने के लिए मंच तैयार किया था। 14 नवंबर 1985 को, भारत के 8वें राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने नई दिल्ली में आयोजित नेहरू और संसद पर संगोष्ठी में अपने उद्घाटन भाषण में नेहरू के विचारों का हवाला दिया था।

नेहरू ने कहा था, "संसदीय लोकतंत्र कई गुणों की मांग करता है। यह निश्चित रूप से, क्षमता की मांग करता है। यह काम के लिए एक निश्चित समर्पण की मांग करता है। लेकिन यह बड़े पैमाने पर सहयोग, आत्म-अनुशासन, संयम की भी मांग करता है ... हम अच्छी तरह से जानते हैं कि दुनिया में ऐसे कई देश नहीं हैं जहां इसने सफलतापूर्वक काम किया है। मुझे लगता है कि बिना किसी पक्षपात के यह कहा जा सकता है कि इसने इस देश में बहुत बड़ी सफलता के साथ काम किया है। क्यों? इसलिए नहीं कि हम, इस सदन के सदस्य, ज्ञान के उदाहरण हैं, बल्कि, मुझे लगता है, हमारे देश की पृष्ठभूमि के कारण, और क्योंकि हमारे लोगों में लोकतंत्र की भावना है।”

याद कीजिए कि पहले कानून मंत्री डॉ बीआर अंबेडकर ने संविधान सभा में संविधान के मसौदे को पेश करते हुए शानदार ढंग से समझाया था कि संसदीय लोकतंत्र का केंद्र विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही है। यह राष्ट्रपति प्रणाली के विपरीत है जहां जवाबदेही नहीं बल्कि कार्यपालिका की स्थिरता परिभाषित करने वाली विशेषता है।

केआर नारायणन और बहुदलीय चर्चा की व्यवस्था 

2000 में भारतीय गणराज्य के स्वर्ण जयंती समारोह के दौरान राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में, नारायणन ने कहा था कि संविधान के ढांचे में कार्यपालिका की स्थिरता के मुक़ाबले जवाबदेही को प्राथमिकता दी है। ऐसा इसलिए था ताकि सरकार की व्यवस्था सत्तावाद में न फिसल जाए।

दुर्भाग्य से, एक तरह से भारत को निरंकुश राज्य के सिद्धान्त जकड़ लिया है, खासकर पिछले आठ वर्षों के दौरान ऐसा हुआ है। यह संविधान बनाने वालों की दृष्टि के विपरीत है। नारायणन के शब्दों में, "सरकार का रूप, संसदीय लोकतांत्रिक स्वरूप को इसके संस्थापकों ने गहन विचार और बहस के बाद चुना था।" उनके लिए संसदीय प्रणाली संविधान सभा का एक सुविचारित और समझा बुझा विकल्प था। उन्होंने जोर देकर कहा, "इसे ब्रिटिश व्यवस्था की नकल में या इसके जानकार होने के कारण नहीं चुना गया था, जिसे भारत ने औपनिवेशिक काल के दौरान हासिल किया था।"

इसके बाद उन्होंने गांधी को ब्रिटिश संसदीय शासन प्रणाली द्वारा भारत के उस कर्ज़ को स्वीकार करने का उल्लेख किया था, जिसमें सदियों पुरानी ग्राम पंचायतों की व्यवस्था होने की पुष्टि की थी। उन्होंने अम्बेडकर के इस स्पष्टीकरण का भी उल्लेख किया कि बौद्ध संघ एक संसदीय प्रकार की संस्था थी, जो आधुनिक संसदीय उपकरणों जैसे कि संकल्प, विभाजन, सचेतक आदि का उपयोग करती थी। नारायणन के शब्दों में, "हमारी विरासत में इन तत्वों ने भारत में लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली को अपनाना संभव और आसान बना दिया था।" उन्होंने एक अन्य कारक का उल्लेख किया, जो भारत की भौगोलिक सीमा और हैरान करने वाली विविधता के बारे में जिक्र करता है, जिसने संसदीय शासन को सबसे उपयुक्त बनाया है।

हमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा संविधान की समीक्षा करने के फैसले को भी याद करना चाहिए। उस समय, नारायणन ने एक तीखा सवाल पूछा था, "जांच हमें इस बात की करनी चहाइए क्या हमें संविधान ने विफल किया है या हमने संविधान को विफल किया है।" उस सवाल ने सरकार को समीक्षा आयोग के इरादे को त्यागने पर मजबूर कर दिया था - हालाँकि फिर भी संविधान के 'कार्यों' की समीक्षा के लिए एक आयोग बनाया गया था!

संसद और लोकतंत्र पर हमला

भारत का संविधान और उसका दृष्टिकोण आज भी संसद और लोकतंत्र की तरह लगातार खतरे में है। विधेयकों को बिना चर्चा और ध्वनिमत से पारित किया जाता है। यदि संसद सदस्य संविधान के अनुसार वास्तविक मतदान की मांग करते हैं, तो उन्हें अस्वीकार कर दिया जाता है। कृषि कानून जिसके खिलाफ किसानों ने एक ऐतिहासिक आंदोलन लड़ा और जो एक साल से अधिक समय तक चला, जो इस तरह के इनकार के नतीजे का एक प्रमुख उदाहरण रहा है। सरकार को उन कानूनों को लोगों को भारी कीमत अदा कर निरस्त करने के लिए मजबूर होना पड़ा, केवल इसलिए कि उसने जानबूझकर और परामर्शी कानून बनाने की प्रक्रिया को खारिज कर दिया था। कोई और नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री ने जब विरोध करने वाले किसानों का "आंदोलनजीवी" कहकर उपहास किया, तो यह अम्बेडकर का अपमान था, जिनके नारा "शिक्षित रहो, आंदोलन करो, संगठित रहो", न्याय और उत्थान का दलित संघर्ष का नारा हैं।

केंद्र सरकार भी जांच के लिए संसदीय स्थायी समितियों को बिल भेजने से हिचक रही है। विभाग से संबंधित इन समितियों का उद्घाटन 1993 में नारायणन के उपाध्यक्ष (जो राज्यसभा के अध्यक्ष भी हैं) के कार्यकाल के दौरान किया गया था। उन्होंने उनके वास्तविक उद्देश्य को उन स्थानों के रूप में परिभाषित किया जहां सभी राजनीतिक दलों के विचार-विमर्श के माध्यम से शासन को ठीक किया जाएगा। इसके मूल में, समिति बहूदलीयता का उदाहरण है, जबकि एक पक्षपातपूर्ण प्रणाली लोगों की इच्छा को प्रतिबिंबित करने के लिए संसद की बड़ी भूमिका को नष्ट कर देती है।

संसद विपक्ष की होती है

डॉ अम्बेडकर ने कहा कि संसद विपक्ष की होगी। लेकिन दुख की बात है कि राज्यसभा के सभापति ने भी "विपक्ष की तानाशाही" के बारे में बात की है। संसद में विपक्ष के लिए जगह कम हो रही है, और इसलिए संसद में मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी और बिगड़ती आर्थिक स्थिति पर चर्चा करने के लिए कोई जगह नहीं है। हाल ही में 20 से अधिक विपक्षी सांसदों को मुद्रास्फीति पर चर्चा की मांग के लिए निलंबित कर दिया गया था। यह पिछले वर्ष की प्रवृत्ति का अनुसरण करता है, जब शीतकालीन सत्र के दौरान, बारह राज्यसभा सांसदों को अगस्त 2021 में पिछले (मानसून) सत्र के अंतिम दिन कथित कदाचार के लिए पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि पिछले सत्र में घटनाओं पर, नियम में निलंबन का प्रावधान नहीं है, फिर भी ऐसा किया गया था। इस तरह के घटनाक्रम से राज्य सभा की गरिमा और प्रतिष्ठा पर असर पड़ता है।

2020 में, इस लेखक ने कोविड-19 महामारी का हवाला देते हुए भारत सरकार द्वारा शीतकालीन सत्र को समाप्त करने की समस्याओं पर ध्यान आकर्षित किया था। स्थिति की विडंबना यह थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं ने राजनीतिक रैलियों को संबोधित किया, जिसमें हजारों लोग शामिल हुए क्योंकि महामारी चरम पर थी। 1935 में, अम्बेडकर ने कहा था कि ब्रिटिश शासकों ने विधायिका को "मुख्य रूप से राजस्व एकत्र करने के लिए" इस्तेमाल किया था, जबकि इसे सामाजिक शिकायतों को दूर करने के लिए दिन-प्रतिदिन के प्रशासन या कानून पर सवाल उठाने की अनुमति दी जानी चाहिए थी। उन्होंने संविधान सभा में कहा, "मुझे नहीं लगता कि कोई भी कार्यकारिणी इसके बाद विधायिका के प्रति इस तरह के कठोर आचरण को दिखाने में सक्षम होगी"। 71 साल बाद मोदी सरकार ने उन्हें गलत साबित किया है।

संसद कम और बहुत कम दिनों के लिए बुलाई जाती है। विधायी प्रस्तावों की जांच की संस्कृति कमजोर हो रही है। विधायी प्रक्रियाओं पर क्रूर कार्यकारी प्रभुत्व प्रबल होता जा रहा है। विधायिका का पतन और सरकार को जवाबदेह ठहराने की संस्कृति का पतन दिखाई दे रहा  है। यह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पोषित संसद नेताओं की दृष्टि को नकारता है और संसदीय प्रणाली की इच्छा के लिए संविधान सभा के कारणों को बुलडोज़ करता है। हमें अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर संसद और लोकतंत्र को बचाना चाहिए और भारत के विचार की रक्षा करनी चाहिए।

एसएन साहू भारत के पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के विशेष कार्य अधिकारी और प्रेस सचिव थे। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Parliament and Democracy on 75th Independence Anniversary

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