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राजस्थान चुनाव : आदिवासियों की किसे फ़िक्र है?

चुनावी भाषणों और चुनावी घोषणापत्रों के अलावा राजस्थान में आदिवासियों की फ़िक्र करने वाला कोई नहीं। बीजेपी जिसे आदिवासियों ने 2013 में 24 आरक्षित सीटों में से 18 सीटें दीं, उसने न सिर्फ उसे भुला दिया, बल्कि एक तरह से उसके विरोध में ही काम किया।
RAJSASTHAN TRIBALS
Image Courtesy: Financil Express

राजस्थान में आदिवासियों की करीब 14% आबादी है और आगामी चुनावों में वह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। पिछली बार जहाँ आदिवासी बहुल इलाकों में बीजेपी ने ज़्यादतर सीटों पर कब्ज़ा किया था वहीं इस बार हालात काफी बदले हुए लग रहे हैं। राजनीति के जानकार बताते हैं कि इन इलाकों में बीजेपी कि हालत खस्ता हो सकती है ।

राजस्थान के आदिवासी देश भर के आदिवासी समाज की तरह आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं। यह मुख्य तौर पर दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर और प्रतापगढ़ ज़िले में रहते हैं। इन इलाकों में आदिवासियों की 50% से ज़्यादा जनसंख्या है और यहाँ से विधानसभा की 16 सीटें हैं। वैसे पूरे राजस्थान में 24 सीटें ऐसी हैं जो आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं।

2013 में बीजेपी इन में से 18 सीटों पर जीती थी। यह एक बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इससे पहले इन इलाकों में काँग्रेस और बीजेपी दोनों बराबर ही रही हैं।

राजस्थान के आदिवासी ज़्यादातर खेती और मज़दूरी पर निर्भर हैं। सरकारी क्षेत्र में आरक्षण होने के बावजूद अपने पिछड़ेपन की वजह से वह नौकरियाँ नहीं पा पाते हैं। जानकारों की माने तो ऐसा इसीलिए है क्योंकि जनजाति कोटे में ही आने वाले मीणा उनसे ज़्यादा समृद्ध हैं और कोटे का फायदा उन्हें मिल जाता है।

इलाके में आदिवासियों के मुख्य मुद्दे हैं ज़मीन के पट्टे न मिलना और बढ़ती बेरोज़गारी। राज्य में आदिवासी छोटी ज़मीनों पर खेती करते हैं और इसमें से बड़ा हिस्सा जंगल की ज़मीन का है।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए इस इलाके के जानकार शंकर लाल चौधरी ने कहा “सितंबर 2005 के बाद सरकार ने एक कमेटी बनाई थी जिसने यह निर्णय लिया था कि जो भी आदिवासी जंगलों की ज़मीन पर खेती करते हैं उन्हें खेती की ज़मीन दी जाएगी। इस तरह के 76,000 ज़मीनों के पट्टों के क्लेम सरकार के पास गए थे। इसमें से 36,000 ज़मीनों के पट्टे उन्हें मिले तो लेकिन यह भी ढंग से नहीं किया गया। जैसे ज़मीन है 5 पाँच बीगा, तो पट्टा मिला आधा बीगा का। बाकी जगह ज़मीन ही नहीं दी गयी। 2013 में सत्ता में आने के लिए बीजेपी ने यह पट्टे देने का वादा किया था लेकिन दिये नहीं। फॉरेस्ट डिपार्टमेन्ट के लोग कई जगहों पर आदिवासियों की खड़ी हुई खेती को ध्वस्त कर देते हैं। इससे आदिवासियों में बीजेपी के खिलाफ काफी गुस्सा है।’’

आदिवासी इलाकों में उनके पास ज़मीन न होने की वजह से उन्हें बैंकों से कृषि लोन नहीं मिलता। आदिवासी साहूकारों से लोन लेते हैं और उसी कर्ज़ के चक्र में फंस जाते हैं जिससे सारा देश ग्रसित है। इस साल हालत और भी खराब हैं क्योंकि इलाके में सूखे जैसे हालात हैं और सिंचाई के लिए यहाँ कुछ नहीं है।

इसी तरह बेरोज़गारी भी सारे देश और प्रदेश की तरह यहाँ भी एक बड़ी समस्या है। खेती घाटे का सौदा बन जाने की वजह से आदिवासी दूसरे काम ढूंढते हैं। लेकिन जैसा की पिछले लेखों में भी बताया गया है राज्य में मनरेगा के तहत मिलने वाला कार्य बिलकुल खत्म हो गया है।

शंकर लाल चौधरी के हिसाब से "गाँवों में जेसीबी मशीने लगा रखी हैं, जिनके ज़रिये काम कराया जा रहा है। गाँव के सरपंच, प्रधान,कांट्रेक्टर और स्थानीय राजनेता मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाले वाले पैसे को इस तरह खर्च कर रहे हैं। जहाँ 100 लोगों को काम मिलना चाहिए वहाँ सिर्फ 6 -7 लोगों को काम मिलता है। बाकी के पैसे का हिसाब नहीं है। इसके अलावा आरक्षण के ज़रिये जो लोगों को नौकरियाँ मिलनी चाहिए वहाँ एक भी भरती नहीं हुई।"

बिज़नेस लाइन के एक लेख में इलाके के निवासी ने बताया कि उन्हें पहले महीने में नरेगा के तहत 10 दिन का काम मिलता था। लेकिन पिछले 3 सालों से अब बिल्कुल काम नहीं मिल रहा है।

इसके साथ ही राज्य में स्कूलों को भारी संख्या में बंद किया गया है, जिसका असर इस इलाके में साफ देखा जा सकता है। आंकड़ों के मुताबिक वसुंधरा राजे की सरकार में राज्यभर में करीब 20,000 सरकारी स्कूलों को एकीकरण के चलते बंद कर दिया गया। इस वजह से राज्य भर में करीब 90,000 अध्यापकों और कर्मचारियों के खाली पद ख़त्म हो गए थे। योजना यह भी थी कि 300 स्कूलों को निजी हाथों में सौंप दिया जाए। लेकिन भारी जन विरोध के बाद सरकार को इस फैसले केसे पीछे हटना पड़ा। इसका सबसे ज़्यादा असर आदिवासी और दलित समाज से आने वाले छात्रों को हुआ है क्योंकि सरकारी स्कूलों में जाने वालों छात्रों में सबसे ज़्यादा पिछडे तबकों से आने वाले छात्र ही हैं ।

काम न मिलने कि वजह से इस इलाके के लोग गुजरात जा रहे हैं। लोग बताते हैं कि हालात इतने खराब हैं कि प्रतापगढ़ और आसपास के इलाकों में मज़दूरों की प्रतिदिन औसत आय सिर्फ 150 से 200 रुपये है। यह भी रोज़ नहीं मिलती है।

इलाके के ज़्यादातर लोग निर्माण मज़दूर के तौर पर काम करने बड़े शहरों में जाते थे। लेकिन एक नोटबंदी और दूसरा बजरी के खनन पर रोक के चलते निर्माण का काम बहुत कम हो गया है।

आदिवासी जन आधिकार एकामंच के राज्य संयुक्त सचिव संजय माधव ने कहा कि इस इलाके में करीब 30 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं जिन्हें निजी हाथों में सौंपने का प्रयास किया गया। लेकिन लोगों के विरोध के चलते इन्हें सरकारी ही रहने दिया गया। फिर भी इन स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत बहुत खराब है। संजय का कहना है कि यहाँ डॉक्टरों कि कमी होती है और बाकी सुविधाओं की भी । डॉकटर अपनी पहुँच लगा कर अक्सर अपना तबादला दूसरी जगह करा लेते हैं ।

इलाके में सड़कों और बाकी सुविधाओं की स्थिति राज्य में बेहद खराब है। साथ ही आधार कार्ड के राशन कार्ड लिंक न होने और दूसरी तकनीकी दिक्कतों की वजह से पीडीएस के तरह सरकारी सुविधाएं यहाँ तक नहीं पहुँचती ।

संजय ने यह भी बताया कि आदिवासियों में गुस्सा आंदोलन का रूप न ले इसीलिए आरएसएस उन्हें सांप्रदायिक एजेंडे से जोड़ने का प्रयास कर रही है। आरएसएस का वनवासी कल्याण आश्रम और उनकी शाखाएँ यहाँ बहुत सक्रिय हो गयी हैं। यह आदिवासियों की संस्कृति को खत्म करके हिन्दुत्व थोपने का प्रयास कर रही हैं।

इस सबके बावजूद इलाके के जानकार मान रहे हैं कि इस इलाके कि खराब स्थिति कि वजह से लोगों में गुस्सा है, इस वजह से इस बार बीजेपी को यहाँ मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

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