"रेप एज़ सिडक्शन" : बहलाने-फुसलाने से आगे की बात
हम जिस तरीके की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह सिर्फ संचार का माध्यम नहीं होती, बल्कि वह भाषा हमारे विचारों का ढांचा भी तय होता है। शिवांगी देशवाल, चवन ज़मानत याचिका केस की भाषा के नज़रिए से व्याख्या कर रही हैं। शिवांगी कहती हैं कि इस भाषा को बदलने की जरूरत है, ताकि महिलाओं को उनके अधिकार वापस मिल सकें, जिससे वे अपनी वास्तविकता और स्वतंत्रता को खुद परिभाषित कर सकें।
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कोर्ट सुनवाईयों में वकील अच्छे से आवाज उठाने और चुप्पी साधने की अहमियत जानते हैं। वे जानते हैं कि कोर्ट में धारणाएं गढ़ने की क्या कीमत होती है। रेप के मामलों में वकील बहुत अच्छे ढंग से बलात्कार की सांस्कृतिक अवधारणाओं को समझते हैं।
कोर्ट में दोनों पक्षों की सुनवाई होती है।
कोई रेप पीड़िता शादी के लिए आवाज़ उठाती है।
कोई रेप पीड़ित सिर्फ़ रेप के खिलाफ़ आवाज उठाती है।
इन दोनों आवाज़ों के बीच, शादी के बारे में बात करने वाली रेप पीड़िता की बात, सिर्फ़ रेप की बात करने वाली पीड़िता से ज़्यादा सुनी जाती है।
हाल में जब सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी से पूछा, "क्या तुम उससे शादी करोगे", तो दरअसल वह ऐसे ही पूर्वाग्रहों से ग्रसित एक भारतीय जज की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। लेखिका इस मुद्दे पर पहले भी लिख चुकी है। लेकिन ताजा वक्तव्य के पीछे छुपे दमन और पितृसत्ता के चलते फिर से कुछ चीजों को दोहराने की जरूरत है।
जब जज ने आरोपी से पूछा, "क्या तुम पीड़िता से शादी करोगे", तो यह दर्शाता है कि पुरुषों के भाषायी नियंत्रण तले महिलाओं का दमन अब भी बरकरार है।
23 साल का मोहित चवन महाराष्ट्र राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी में टेक्नीशियन है। उस पर एक अवयस्क लड़की से रेप का आरोप लगा है। इस मामले में सुनवाई के दौरान हुई टिप्पणियों का बहुत विरोध प्रदर्शन हुआ है।
इस मामले से जुड़े तथ्य कुछ इस तरह हैं: पीड़िता जब स्कूल जाती थी, तो मोहित चवन उसका पीछा किया करता था। पीड़ित और आरोपी रिश्तेदार हैं। लड़की के दादा भी अपने घर के आसपास फटकने को लेकर मोहित को झड़की लगा चुके थे।
जब पीड़िता का परिवार घर से दूर था, तो आरोपी पीछे के दरवाजे से घर में प्रवेश करने में सफल हो गया। इसके बाद उसने पीड़िता का गला दबाया और उसे बांध दिया। फिर मोहित ने उसके साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाए। मोहित ने पीड़िता को धमकी देते हुए कहा कि "अगर वो चुप नहीं रही तो उसके चेहरे पर तेजाब फेंक देगा, जिससे उसकी शादी भी नहीं हो पाएगी।"
मोहित ने "मुंबई के गुंडों की मदद से पीड़िता के भाई को रेलवे ट्रैक पर बांध देने की धमकी भी दी।" इस दौरान आरोपी अपनी मोटरसाइकिल पर पेट्रोल कैन लेकर चलता और उसे पीड़िता के ऊपर डाल देता।
आरोपी आगे भी रेप करता रहा। फिर पीड़िता ने आत्महत्या करने की कोशिश भी की। जब पीड़िता और उसकी मां पुलिस से शिकायत करने जा रहे थे, तो आरोपी की मां ने उन्हें रोकते हुए कहा कि वे पीड़िता को अपनी "बहू" बना लेंगी।
कथित तौर पर, तब एक शपथ पत्र बनवाया गया, जिसमें कहा गया कि पीड़िता जब 18 साल की हो जाएगी तो दोनों की शादी कर दी जाएगी। लेकिन जब वक़्त आया तो आरोपी और उसकी मां मुकर गए।
इसके बाद भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 417 और 506, पॉक्सो एक्ट, 2012 की धारा 4 और धारा 12 के तहत मामला दर्ज किया गया।
पीड़िता के साथ लगातार हिंसक अपराध किए गए। जब कोर्ट में चवन की ज़मानत याचिका आई, तो मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "तुम्हें उस लड़की को बहलाने-फुसलाने और उसके साथ रेप करने से पहले सोचना चाहिए था। तुम जानते हो कि तुम एक सरकारी नौकर हो। हम तुम पर शादी करने के लिए दबाव नहीं बना रहे हैं। अगर तुम चाहते हो तो बात दो, नहीं तो तुम कहोगे कि हम तुम पर उससे शादी का दबाव बना रहे हैं।"
यह बेहद हैरान करने वाली बात है कि एक अवयस्क लड़की के रेप की सुनवाई के दौरान कोई उसे आरोपी के साथ शादी करने के लिए कह रहा है। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचा, शर्म की सांस्कृतिक धारणाएं, महिला लैंगिकता और महिला-कौमार्य ही वह मंशा है, जिसके आधार पर कोई शख़्स किसी रेप पीड़िता को आरोपी से शादी करने के लिए कह देता है।
इन स्थितियों में किसी आपराधिक मामले में शादी एक समझौता बन जाती है। शादी के ज़रिए यहां सजा से बचा जाता है, पिता की पुत्री के कौमार्य की रक्षा की जाती है, मौजूदा स्थिति को बनाए रखा जाता है, रेप की हिंसा को भुला दिया जाता है और सिर्फ़ यौन संभोग को ही याद रखने की परिस्थितियां बनाई जाती हैं।
किस्मत से हाल में सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक संवेदनशीलता और फ़ैसला सुनाने के दौरान लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर रखने के सिलसिले में दिशा-निर्देश जारी किए हैं। कोर्ट ने विशेष तौर पर कहा, "समझौते का विचार, खासतौर पर आरोपी और पीड़िता के बीच शादी के ज़रिए होने वाले समझौता बेहद घिनौना है। इसे एक न्यायिक उपाय नहीं समझा जाना चाहिए, क्योंकि यह एक महिला के सम्मान और उसकी अखंडता के खिलाफ़ जाता है।"
दिशा-निर्देशों में आगे कहा गया, "पीड़िता से शादी करने और इस आधार पर ज़मानत दिए जाने से कोर्ट पर एक आपराधिक मामले में फिर से मोलभाव करवाने और न्याय के बीच में मध्यस्थता करवाने का आरोप लगेगा। साथ में कोर्ट पर पहले से बनी पूर्वाग्रही लैंगिक मान्यताओं को बढ़ावा देने का आरोप भी होगा।"
कोर्ट ने कहा कि ऐसी भाषा का प्रयोग जिससे अपराध की प्रबलता कम नज़र आती हो और पीड़ित का माखौल बनता हो, उससे हर हाल में बचना चाहिए। यह बेहद जरूरी था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के ही मुख्य न्यायाधीश ने "युवा लड़की को बहलाने-फुसलाने और रेप करने" जैसे शब्दों से युक्त भाषा का उपयोग किया था। भाषा पर पुरुष वर्ग का यह नियंत्रण दमन और पितृसत्ता में गहराई तक फैला हुआ है और इसे चुनौती दिए जाने की जरूरत है।
रेप के अपराध का "फुसलाने" जैसे शब्द के साथ उपयोग यह मानकर चलता है कि सहमति से बनाए गए यौन संबंधों में हिंसा हो सकती है या कई बार होती है। मतलब "ना" हमेशा "हां" नहीं होती; ना कई बार हां भी होती है और कई मौकों पर ना का मतलब सिर्फ ना ही होता है। इस अस्पष्टता से झलकता है कि जैसे रेप ना हुआ हो, बल्कि बहलाया-फुसलाया गया हो। यहां प्रदर्शित करने की कोशिश है कि आदर्श महिला पवित्र, साफ़ और धैर्यवान होती है, जो अपनी इच्छाओं के आधार पर निर्णय नहीं लेती। इसलिए उसे "पाना" पड़ता है।
"बहलाना" और "रेप" शब्द को एक ही वाक्य में उपयोग घटना से हिंसा को अलग करने जैसा लग रहा है। जैसे यह बताने की कोशिश हो रही हो कि वहां जो हुआ, वह "राजी करने से थोड़ा सा कुछ ज़्यादा", लेकिन रेप से कम था। थॉमस हार्डी के उपन्यास "टेस ऑफ द अर्बरविल्स" में भी कुछ ऐसा ही हुआ था, जिसके बारे में टिप्पणी करते हुए आलोचक कहते हैं कि हार्डी के विचार में "रेप, बहलाने-फुसलाने की ही क्रिया को आगे ले जाना है।" इसमें यह बताने की कोशिश की गई कि विरोध बस भीतरी भावनाओं को बाहर आने रास्ता दे रहा था, इस पूरी घटना पर बाद में पछतावा भी हुआ, लेकिन यह रेप नहीं था।
मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की भाषा सामाजिक आवाज़ के ज़रिए बोलती है। डेल स्पेंडर ने अपनी किताब "मेन मेड लैंग्वेज" में तर्क दिया है कि पुरुषों का नियंत्रण हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली भाषा के ज़रिए जारी रहता है। यहां यह विचार है कि भाषा सिर्फ़ संचार का माध्यम नहीं है, बल्कि इससे हमारे विचार भी ढाले जाते हैं। पुरुषों के नज़रिए पर आधारित भाषा, महिलाओं के अनुभवों को ज़गह नहीं दे सकती।
इस तरह महिलाओं के दमन का आधार पुरुषों का संस्कृति, भाषा और ज्ञान पर एकाधिकार है। भाषा खुद अपने-आप में हमारे सोचने के दायरों को सीमित कर देती है और हमें पितृसत्तात्मक पूर्वधारणाओं को मानने के लिए प्रेरित करती है, फिर यह मायने नहीं रखता कि कोई पुरुष है या महिला।
फ्रांस के दार्शनिक मिशेल फॉउकॉल्ट और जाने-माने मनोविश्लेषक जैक्स लाकान का तर्क था कि वास्तिवक स्थिति में भाषा और अनुभव मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं। हर किसी के लिए वास्तविकता अलग है, यहां वस्तुनिष्ठ या अवैयक्तिक नहीं है, बल्कि यह हर किसी के लिए वैयक्तिक है। इसलिए बोबडे द्वारा रेप का अनुवाद "युवा महिला को बहलाने" में करना, एक व्यक्ति के भीतर की पितृसत्ता को दर्शाता है, जो महिला लैंगिकता और महिला सम्मान के बारे में अपनी धारणाओं के तहत काम कर रहा है।
न्यायाधीश किसी आपराधिक कृत्य को किस तरीके से देखते हैं, इसके साथ-साथ उनके फ़ैसलों से उनकी सामाजिक स्थिति, जाति, वर्ग और नृजातीयता के प्रभाव को अलग नहीं किया जा सकता। किसी न्यायिक फ़ैसले की भाषा, उस फ़ैसले को सुनाने वाले के व्यक्तिपरक सत्य और वास्तविकता का विस्तार होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो किसी फ़ैसले की "निष्पक्षता", न्यायाधीशों की व्यक्तिपरक धारणाओं को दिखाती है।
महिलावादियों के लिए भाषा एक राजनीतिक संघर्ष का केंद्र रही है। महिलाएं खुद को पितृसत्तात्मक नियंत्रण से तब तक आज़ाद नहीं कर सकतीं, जब तक भाषा के साथ किए जाने वाले प्रयोगों पर ध्यान केंद्रित नहीं हो जाता। पुरुषों का भाषा पर नियंत्रण सिर्फ़ किसी फ़ैसले में शब्दों का उल्लेख और उसके मतलब की बात नहीं है, बल्कि यह उनमें छिपे ढांचे को दर्शाता है।
यह वह ढांचे हैं, जिन्हें हमें फिर से परिभाषित करना होगा, जिन्हें हमें तोड़ना होगा, जिनके ज़रिए किसी रेप पीड़िता को आरोपी के साथ शादी करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। संक्षिप्त में कहें तो हमें उन ढांचागत बदलावों को करने की जरूरत है, जो महिलाओं को उनके अधिकार लौटाएं, ताकि वो अपनी वास्तविकता और स्वतंत्रता की खुद व्याख्या कर सके।
(शिवांगी देशवाल एक प्रशिक्षित नारीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
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