उत्तराखंड में पुलों के ढहने के पीछे रेत माफ़िया ज़िम्मेदार

उत्तराखंड को भारत का "आपदा प्रदेश" कहा जा सकता है। हालांकि उत्तराखंड में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं, लेकिन एक के बाद एक आपदा से जूझने के चलते यह प्रदेश अपनी बर्बादी की कगार पर खड़ा है। हाल में राज्य में कुछ पुल टूट गए, इनमें झाकन नदी पर स्थित बेहद अहम देहरादून-ऋषिकेश पुल भी शामिल था, जिसके चलते हज़ारों यात्रियों को दूसरा रास्ता लेना पड़ा।
यह अहम पुल जॉली ग्रांट हवाई अड्डे को उत्तराखंड की अहम जगहों से जोड़ता था। लोक निर्माण विभाग के इंजीनियर दावा करते थे कि यह पुल 100 साल तक चलेगा। NDRF द्वारा समय पर उठाए गए कदम से टूटे हुए पुल पर फंसे हुए लोग बच सके। राज्य सरकार ने पुल टूटने की घटना को तुरंत भारी बारिश के जिम्मे डाल दिया, लेकिन स्थानीय रानी पोखरी गांव के रहने वाले लोगों ने पुल टूटने की वज़ह धड़ल्ले से चल रहे रेत खनन को बताया।
गांव के एक बुजुर्ग विनोद रावत कहते हैं, "हमने रेत खनन के ख़िलाफ़ प्रशासन से कई शिकायतें कीं, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई।" रानी पोखरी गांव डोईवाला विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है, जहां से पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद सिंह रावत चुने गए थे। लेकिन इसके बावजूद भी विधानसभा क्षेत्र में धड़ल्ले से चल रहे रेत खनन के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की गई। यह समस्या आज पूरे उत्तराखंड में सिर उठा रही है।
एचएनबी गढ़वाल यूनिवर्सिटी में कार्यरत एक जाने-माने भूगोलशास्त्री डॉ एस पी सती कहते हैं कि उत्तराखंड सरकार के अधिकारी राज्य की ज़्यादातर त्रासदियों के लिए बादल फटने को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं। डॉ सती कहते हैं, "वे लगातार अपनी जिम्मेदारी टालते रहते हैं। लेकिन बड़े स्तर पर सड़कें बनाने से ऊपजा मलबा हमारी सैकड़ों नदियों में डाला जाता है। इससे नदी का आयतन और घनत्व बढ़ता जाता है। अवैध रेत खनन से पुलों के पिलर ख़तरे में आ गए थे। जब पानी की रफ़्तार तेज हुई तो कई पुल बह गए।"
सह्स्त्रधारा से मालदेवता तक जाने वाली सड़क पर सॉन्ग नदी के ऊपर बना पुल भी टूट गया। एक बार फिर प्रशासन ने तेज और भारी बारिश को इसका जिम्मेदार बताया। लेकिन यहां भी आसपास के स्थानीय लोग रेत माफ़िया को पुलों के बहने के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं।
पुल के पास एक रेस्त्रां में काम करने वाले रमन नेगी कहते हैं, "ना केवल धड़ल्ले से रेत खनन हो रहा है, बल्कि नदी के किनारे से बड़े-बड़े पत्थर उठाकर भू माफिया द्वारा ट्रकों में लादे जा रहे हैं और उन्हें तोड़कर उनका इस्तेमाल खनन गतिविधियों में किया जा रहा है।"
पुलों को स्थिर रखने के लिए रेत जरूरी है। जेएनयू में फिज़िसिस्ट प्रोफ़ेसर विक्रम सोनी बताते हैं कि "एक छिद्रनुमा सामग्री होने के चलते रेत पानी को अपने भीतर सोख लेती है और पानी के बहाव को धीमा करने में मदद करती है। जब किसी नदी की तलहटी से रेत को हटाया जाता है, तो पानी तेज रफ़्तार और ज़्यादा मात्रा में बहने लगता है। इससे ढांचे पर दबाव बढ़ जाता है और यह पुलों के ढहने की प्रमुख वज़ह बन जाता है।"
नैनीताल हाई कोर्ट में धड़ल्ले से हो रहे रेत खनन के ख़िलाफ़ 34 जनहित याचिकाएं लगाई जा चुकी हैं। कोर्ट ने समस्या का संज्ञान लिया है, लेकिन अब तक कुछ भी बदलाव नहीं आया है। जो भी लोग रेत माफ़िया के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं, उनके ऊपर खुलेआम हमले होते हैं। अग्रणी पर्यावरणविद् डॉ भारत झुनझुनवाला का चेहरा, माफ़िया के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने पर काला कर दिया गया था। रेत माफ़िया के ख़िलाफ़ जनहित याचिका दाखिल करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अजय नारायण शर्मा को कई बार जान से मारने की धमकियां मिल चुकी हैं और उन्हें पुलिस सुरक्षा लेनी पड़ी।
समस्या यह है कि राज्य प्रशासन खनन को जारी रखने के लिए लगातार नए तरीके निकालता रहता है, क्योंकि इस व्यापार में हज़ारों करोड़ रुपये का खेल है। एनजीओ SANDRP, जो दक्षिण एशिया में बांध और नदियों की निगरानी करता है, उसका कहना है कि उत्तराखंड सरकार ने पुलों और नदियों पर बने तमाम ढांचों की एक किलोमीटर की परिधि में खनन की अनुमति दे रखी है। यह नैनीताल हाई कोर्ट के आदेश का खुला उल्लंघन है।
SANDRP के भीम सिंह रावत कहते हैं, "प्रशासन ने खनन की गहराई भी 1।5 मीटर से बढ़ाकर 3 मीटर कर दी है। जबकि इसके लिए कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया। इस तरह के खुलेआम हो रही खनन गतिविधियों से बाढ़ की स्थिति और भी विकराल होगी।"
राज्य के पर्यावरण क़ानूनों में एक और अहम बदलाव 2020 जनवरी में "नदी प्रशिक्षण नीति" की घोषणा के बाद आया। सरकार ने यह तथाकथित प्रशिक्षण, वन या सिंचाई विभाग कर्मियों को नदी संरक्षण को प्रशिक्षित करने के लिए नहीं बनाया है। बल्कि इस प्रशिक्षण में हज़ारों नदियों की तलहटों से पत्थर और रेत निकाली जा रही है। चूंकि इससे नदियों का बहाव केंद्र की तरफ़ होता है, तो सरकार का तर्क है कि इससे किनारों पर कटाव कम होता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो बिना किसी पर्यावरण या खनन क़ानून के नदियों में रेत और पत्थर का खनन किया जा रहा है। नदियों को चौड़ाई को ध्यान में रखे बिना, आधे चौड़ाई तक खोदने के लिए भारी मशीनों को अनुमति दी गई है।
राज्य सरकार द्वारा दी गई इन छूटों से खनन और पत्थर तुड़ाई की गतिविधियां यमुना घाटी, दकपाथर बैराज, पोंटा साहिब, कोह नदी, अलकनंदा नदी, पिंडार नदी, आसन नदी, कोसी नदी और दूसरी नदियों तक पहुंच गई हैं।
देहरादून स्थित राजपुर कम्यूनिटी इनीशिएटिव नाम के NGO की प्रमुख रेणु पाल कहती हैं, "नदी प्रशिक्षण नदियों के किनारों को छांटने की एक साजिश है। इस प्रशिक्षण के ज़रिए नदी की तलहटी में बड़ी गुफानुमा आकृतियां बनाई जा रही हैं। यह लोग इसके लिए नदी की धारा को मोड़ने का बहाना ले रहे हैं। जल विहीनी हुई कई तलहटियों को अब बिल्डरों को बेच दिया गया है, जो उनपर कॉलोनियां बना रहे हैं।"
निश्चित तौर पर अफ़सर जानते हैं कि राज्य में क्या हो रहा है, लेकिन जो भी लोग रेत माफ़िया के ख़िलाफ़ कार्रवाई करते हैं, उनके ख़िलाफ़ नेता खुलकर मोर्चा खोल देते हैं। पिछले महीने नोडल मसूरी और देहरादून विकास प्राधिकरण के सचिव हरवीर सिंह ने गैरक़ानूनी अतिक्रमण और खनन माफ़िया के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की योजना बनाई। रातों-रात मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उनके स्थानांतरण का आदेश जारी कर दिया।
अगस्त में हल्द्वानी को भीमताल, अल्मोड़ा और रानीखेत से जोड़ने वाला हल्द्वानी-रानीबाग पुल टूट गया। एक वरिष्ठ लोक निर्माण विभाग के अधिकारी ने शिकायत में कहा कि राज्य मशीनरी द्वारा मिट्टी का परीक्षण, योजना, पहाड़ों के कंटूरों का अध्ययन जैसी बुनियादी निर्माण शर्तों को पूरा ना कर पाना भी मौजूदा हालातों के लिए जिम्मेदार है।
लोक निर्माण विभाग से सेवानिवृत्त एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, "राज्य सरकार ने पुराने हल्द्वानी-रानीबाग पुल की जगह नया पुल बनाने के लिए 800 करोड़ रुपये की एक योजना बनाई थी। नए पुल का निर्माण शुरू हो चुका है। लेकिन यह निर्माण पुराने पुल के इतने करीब़ है कि हो सकता है इससे पुराने ढांचे का आधार अस्त-व्यस्त हुआ हो।"
भारत के सबसे लंबे सस्पेंशन पुल- टिहरी बांध पर बने डोबरा-चांती पुल में निर्माण के 9 महीने के भीतर ही दरारें आ गईं। इस पुल का उद्घाटन 2020 के आखिर में हुआ था। मौजूदा हालात यह हैं कि इस सड़क पर पूरा ट्रैफिक रुक चुका है और बांध के उस तरफ रहने वाले हजारों लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है।
फिर झाकन नदी पर स्थित सूर्यधर झील के इर्द-गिर्द भी बहुत सारे सवाल उठा रहे हैं। पाल कहते हैं, "यह झील और बैराज पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के दबाव में बनाए गए थे। पूर्व कांग्रेस प्रमुख प्रीतम कुमार के नेतृत्व में कांग्रेस नेता आरोप लगाते हैं कि रावत ने सूर्यधर झील का विकास करवाया और पास में 70 करोड़ रुपये की लागत से एक छोटा पावर स्टेशन भी खुलवाया ताकि झील के आसपास उनकी पत्नी द्वारा खरीदी गई ज़मीन की कीमत बढ़ सके।"
वह कहती हैं कि अगस्त के आखिर में पावर स्टेशन से झाकन नदी में अतिरिक्त पानी बहाया गया होगा, इससे भी पहले से कमज़ोर चल रहे रानी पोखरी पुल के आधार को नुकसान हुआ होगा।
पाल कहती हैं, "चूंकि यह पावर स्टेशन का पहला साल है, इसलिए राज्य प्रशासन द्वारा बैराज से जुलाई और अगस्त में बहाए जाने वाले पानी पर जानकारी जारी किया जाना बाकी है।"
पर्यावरणविदों का कहना है कि इन पुलों की मरम्मत पर हज़ारों करोड़ रुपये खर्च होंगे। कर्ज़ में घुटनों तक डूबे राज्य के लिए अब रेत माफ़िया पर कार्रवाई ही आखिरी विकल्प है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
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