तिरछी नज़र : श्राप देने की कला

प्राचीन भारत में एक कला होती थी जिसे श्राप देने की कला कहा जाता था। उस समय यह कला कुछ तपस्वी, मुनियों आदि को ही उपलब्ध होती थी। प्राचीन ग्रंथों में ऐसे बहुत सारे दृष्टांत उपलब्ध हैं, जिनमें ऋषि गण किसी को भी श्राप दे कर उसका अहित कर देते थे। उसके उलट भी एक कला होती थी जिसे वर या वरदान देने की कला कहा जाता था।
ये दोनों कलायें बहुत ही कठिनाई से, लम्बी तपस्या के बाद प्राप्त होती थी। मुनिवर कठिन और लम्बी तपस्या कर अपने इष्टदेव को प्रसन्न किया करते थे। जब इष्टदेव प्रसन्न हो प्रकट होते थे तो तपस्या रत मुनि उनसे फलस्वरूप श्राप देने या वर देने की कला मांग लेते थे। पुराने ग्रंथों में श्राप देने की या वर देने के बहुत से दृष्टांत मिलते हैं। जब भी श्राप दिया जाता था, साथ ही उससे निजात पाने का उपाय भी बता दिया जाता था।
यह आवश्यक नहीं होता था कि जिसे श्राप दिया जाये उसकी गलती ही हो। भगवान राम के काल में अहिल्या को श्राप मिला था और वह पत्थर की बन गई थी। उसके श्राप मिलने में उसकी क्या गलती थी यह तो गौतम ऋषि को भी नहीं पता था। पर उन्हें क्रोध आ गया था और वह श्राप दिये बिना शांत नहीं हो सकता था। साथ ही उसकी काट भी बता दी। देवराज इंद्र के छूने के पाप से मिले श्राप के कारण पत्थर बनी अहिल्या, राम के छूने से फिर महिला बन गयी। वह तो भगवान राम की कृपा से राम जी ने वनवास के समय वह रास्ता चुना जिसमें अहिल्या शिला बनी पड़ी थी। अन्यथा अहिल्या अभी तक पड़ी रहती।
महाभारत में भी श्राप और वरदान देने के बहुत से किस्से वर्णित हैं। यहां हम पांडवों की मां कुन्ती को मिले वर की बात करते हैं। कुन्ती को कुंवारेपन में ही महाऋषि दुर्वासा ने वर दिया था। वैसे ऐसा कम ही होता था कि दुर्वासा ऋषि वर दें। वे तो श्राप देने के लिए प्रसिद्ध थे। पर इस बार वर दे दिया। वर भी क्या दिया। जिसका स्मरण करोगी, उससे गर्भवती हो जाओगी। यह वर था या श्राप! खैर जो भी रहा हो, कुन्ती ने अपने कुंवारेपन में ही सूर्य का स्मरण किया और गर्भवती हो गई। उस समय के वर में इतनी शक्ति होती थी कि सिर्फ स्मरण करने भर से गर्भाधान हो जाता था। विवाह के बाद भी कुन्ती ने अपने पति से इसी प्रकार गर्भाधान किया। बाद में उसने अपने को मिले वर को अपनी सौत माद्री को भी ट्रांसफर कर दिया और माद्री भी इसी तरह से दो बार गर्भवती हुई। सारा विज्ञान एक तरफ और वरदान की शक्ति एक तरफ।
परन्तु ऐसा नहीं है कि यह कला काल के गर्त में समा गयी है। आज भी हमारे देश में एक से बढ़कर एक साधु साध्वी हैं जो श्राप देने की कला में पारंगत हैं। वे किसी को भी श्राप दे कर उसे स्वर्ग, ओह सॉरी नरक, पहुंचा सकते हैं। आजकल श्राप देने की शक्ति प्राप्त करने के लिए कठिन तप नहीं करना पड़ता है। आजकल तो कुछ आतंकवादी गतिविधियां कर और मुसलमानों को गाली दे कर यह शक्ति प्राप्त की जा सकती है।
अभी हाल में ही सांसद बनी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को तो श्राप देने में इतनी महारत हासिल है कि वे हेमंत करकरे को भी श्राप देकर मार सकती हैं। और उधर दूसरी ओर पुनर्निवाचित सांसद साक्षी महाराज हैं, जिन्होंने हारने की स्थिति में अपने इलाके के सभी वोटरों को श्राप देने की धमकी दे डाली थी। वह तो मोदी जी और चुनाव आयोग की कृपा से वह जीत गये अन्यथा उन्नाव चुनाव क्षेत्र के सारे वोटरों को श्राप झेलना पड़ता। इसके अतिरिक्त अवश्य ही और भी ऐसे सांसद, एम एल ए आदि होंगे जिनमें श्राप देने की प्रतिभा होगी।
पर हमारे प्रधानमंत्री हैं, आजकल जगह जगह जा कर पाकिस्तान की, आतंकवाद की भत्सर्ना करते हैं। पहले भी मोहम्मद मसूद अजहर को सुरक्षा परिषद से विश्व आतंकवादी घोषित करवाने के लिए चीन की खुशामद करते रहे। अरे, साध्वी प्रज्ञा से कहा होता, वे श्राप दे मोहम्मद मसूद को वहीं का वहीं भस्म कर देतीं। न रहता बांस और न बजती बांसुरी। न बचता मसूद न सुरक्षा परिषद में पापड़ बेलने पड़ते।
अंतिम सलाहः प्रधानमंत्री जी को मेरी सलाह है कि विश्व नेताओं के सामने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जी की श्राप देने की कला का प्रदर्शन करवा दें। सभी, इमरान तो क्या, पुतिन, डोनाल्ड और शी जिनपिंग भी, सभी कांपते कांपते भारत के चरणों में झुक जायेंगे।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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