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मांस खाने का राजनीतिकरण करना क्या संवैधानिक रूप से सही है?

मांस पर प्रतिबंध लगाना, किसी भी किस्म के व्यापार करने के मामले में मौलिक अधिकार का उल्लंघन कहलाता है और किसी वैधानिक क़ानून के समर्थन के अभाव में, यह संवैधानिक जनादेश के मामले में कम प्रभावी हो जाता है।
meat shop

मांस पर प्रतिबंध लगाना, किसी भी किस्म के व्यापार करने के मामले में मौलिक अधिकार का उल्लंघन कहलाता है और किसी वैधानिक क़ानून के समर्थन के अभाव में, यह संवैधानिक जनादेश के मामले में कम प्रभावी हो जाता है।

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पहले वे समाजवादियों के लिए आए,

और मैं कुछ नहीं बोला-

क्योंकि मैं समाजवादी नहीं था।

फिर वे ट्रेड यूनियनिस्टों के लिए आए, 

और मैं कुछ नहीं बोला-

क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था।

तब वे यहूदियों के लिए आए, 

और मैं कुछ नहीं बोला;

क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।

जब वे मेरे लिए आए, 

तो मेरे लिए बोलने वाला कोई न बचा था।

— मार्टिन निमोलेर

विवाद क्या है?

पहले वे हिजाब पर प्रतिबंध लगाना चाहते थे। अब वे हलाल मीट और लाउडस्पीकर पर दी जाने वाली अज़ान पर प्रतिबंध लगाना चाहते हैं। और अब वे मांस पर भी प्रतिबंध लगाना चाहते हैं।

5 अप्रैल को, दक्षिण दिल्ली नगर निगम [एसडीएमसी] के मेयर मुकेश सूर्यन को उस वक़्त नागरिकों की आलोचना का सामना करना पड़ा जब उन्होंने एसडीएमसी आयुक्त ज्ञानेश भारती को एक पत्र लिखा, जिसमें उनसे नवरात्रि के दौरान अपने अधिकार क्षेत्र में चल रही मांस की दुकानों को बंद करने का आदेश देने का अनुरोध किया था। नवरात्रि नौ दिनों तक चलने वाला हिंदू त्योहार है, जिसे इस साल 2-11 अप्रैल तक मनाया जा रहा है।

पत्र के अनुसार, जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट किया है, सूर्यन ने लिखा है कि, “नवरात्रि के दिनों में, लोग देवी का सम्मान करने के लिए अपने और अपने परिवार के लिए आशीर्वाद लेने के लिए मंदिरों में जाते हैं। इस दौरान लोग प्याज-लहसुन का इस्तेमाल भी छोड़ देते हैं और इसलिए खुले में या मंदिरों के आस-पास मांस बेचे जाने का नजारा उन्हें असहज कर देता है। जब लोग देवी की दैनिक पूजा करने जाते हैं तो मांस की दुकानों से उठती मांस की गंध को सहन करना पड़ता है, जिससे उनकी धार्मिक आस्था और भावनाएं भी प्रभावित होती हैं।“

इसी मामले में, एसडीएमसी के समकक्ष, पूर्वी दिल्ली के मेयर की अपील भी अगले दिन आ गई थी। उन्होंने व्यापारियों से अपील की थी कि वे नवरात्रि के सभी नौ दिन या कम से कम अंतिम तीन दिनों में अपनी दुकानें बंद रखें। लेकिन इस संबंध में कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया गया। दोनों निगमों पर भाजपा का शासन है।

2018 में, एसडीएमसी ने सभी रेस्तरां और भोजनालयों को प्रमुख बोर्ड लगाने का निर्देश देते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें यह निर्दिष्ट किया गया था कि क्या वे अपने क्षेत्र में 'हलाल' या 'झटका मांस' बेच रहें हैं उसकी सूचना उपलब्ध है। हलाल और झटका दो अलग-अलग प्रकार के पशु वध के तरीके हैं, जिनमें इस्लाम में हलाल की अनुमति है क्योंकि यह दावा किया जाता है कि इसे इसलिए डिजाइन किया गया है ताकि जानवर को होने वाला दर्द कम हो सके।  जबकि, झटका तुरंत जानवर को मार देता है।

इसी तरह के आदेश अलीगढ़ की जिला पंचायत [डीपीए] और गाजियाबाद नगर निगम [जीएनएन] ने पारित किए कि नवरात्रि के दौरान मांस और मछली की दुकानों को बंद रखा जाए। डीपीए अध्यक्ष विजय सिंह द्वारा जारी आधिकारिक निर्देश, जैसा कि हिंदुस्तान टाइम्स ने रिपोर्ट किया था, ने व्यापारियों को एक अल्टीमेटम दिया कि इसका पालन करने में विफल होने पर बिना किसी पूर्व सूचना के लाइसेंस रद्द किया जा सकता है। जबकि, मेयर आशा शर्मा द्वारा जारी जीएनएन के आदेश में कहा गया है कि, “महापौर ने मंदिरों में सफाई बनाए रखने और इस दौरान मांस की दुकानों को बंद करने का निर्देश दिया है। यह निर्देश दिया गया है कि संबंधित क्षेत्रों और मंदिरों में सफाई कायम रखी जाए, और मांस की दुकानों को बंद रखा जाए।” उक्त रिपोर्ट भी इंडियन एक्सप्रेस में रिपोर्ट की गई है।

जीएनएन के अधिकारियों ने दावा किया कि ऐसे निर्देश, जो जिले के पांच क्षेत्रों पर लागू होते हैं, हर साल नवरात्रि के दौरान जारी किए जाने वाले नियमित आदेश हैं। उक्त आदेश, जो 1 अप्रैल को जारी किया गया था, अगले दिन यह कहते हुए उसे उलट दिया गया कि सरकार की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक नियमन नहीं आया है। हालाँकि, इन कार्यकारी आदेशों ने अंततः व्यापारियों के बीच हंगामा खड़ा कर दिया, क्योंकि उन्हें अंततः अधिकारियों की कार्रवाई के डर से दुकानें बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

प्रतिबंध पर अब तक की राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या रही है?

हालांकि प्रतिबंध ने समुदायों के बीच हंगाम बरपा दिया, लेकिन ताबूत में कील ठोकने का काम  तब हुआ जब इस मुद्दे पर राजनीतिक रूप से आरोपित बयान आने लगे। पश्चिमी दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा सांसद परवेश साहिब, प्रतिबंध के समर्थन में आए और एनडीटीवी के संवाददाताओं से कहा, “मैं दक्षिण एमसीडी द्वारा लिए गए निर्णय का स्वागत करता हूं। मैं चाहता हूं कि तीनों नगर निगम इसे लागू करें। साथ ही, मैं चाहता हूं कि दिल्ली-एनसीआर और पूरा देश इसे लागू करे।

लोनी विधायक, नंद किशोर गुर्जर का अपने निर्वाचन क्षेत्र में मांस की दुकानों को जबरन बंद करने का इतिहास रहा है। पिछले साल अक्टूबर में विधायक ने एक-एक पर दुकान जाकर दूकानदारों से दुकान बंद करने का आदेश दिया था। विधायक के अनुसार, जैसा कि टीओआई ने रिपोर्ट किया था कि लोनी में सभी मांस की दुकानें अवैध हैं।

एसडीएमसी मेयर के आदेशों के जवाब में दिल्ली मीट एसोसिएशन के उपाध्यक्ष यूनुस इद्रेस कुरैशी ने कहा, “मेयर का अनुरोध राजनीति से प्रेरित है”। दूसरी ओर, लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा ने ट्वीट कर प्रतिबंध के खिलाफ अपनी आलोचना करते हुए कहा, "मैं दक्षिण दिल्ली में रहती हूं। संविधान मुझे अनुमति देता है कि मैं जब चाहूं मांस खा सकती हूं और दुकानदार को अपना व्यापार चलाने की आजादी है।

नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने एसडीएमसी मेयर के आदेश के खिलाफ आवाज उठाई और ट्वीट किया, “रमजान के दौरान हम सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच भोजन नहीं करते हैं। मुझे लगता है कि यह ठीक है अगर हम हर गैर-मुस्लिम निवासी या पर्यटकों को सार्वजनिक रूप से खाने से प्रतिबंधित करते हैं, खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों में। अगर दक्षिण दिल्ली के लिए बहुसंख्यकवाद सही है, तो इसे जम्मू-कश्मीर के लिए भी सही होना चाहिए।

भारत में कितने लोग मांस खाते हैं?

2021 के प्यू रिसर्च सर्वे के अनुसार:

  • अधिकांश भारतीय, 39 प्रतिशत को छोड़कर, जो खुद को शुद्ध शाकाहारी बताते हैं, बाकी मांस खाने से परहेज नहीं करते हैं।
  • प्रमुख धर्म, जैसे कि हिंदू, त्योहारों के समय मांस नहीं खाते हैं। हालांकि, केवल 44 प्रतिशत हिंदू खुद को शुद्ध शाकाहारी मानते हैं।
  • केवल 8 प्रतिशत मुसलमान और 10 प्रतिशत ईसाई खुद को क्रमशः शाकाहारी मानते हैं।

अनिवार्य रूप से, भारत में 10 में से 8 लोग मांस का सेवन करते हैं, जिनमें बहुसंख्यक धर्म के लोग भी शामिल हैं। इस सर्वेक्षण की पुष्टि भारत के महापंजीयक द्वारा प्रकाशित 2014 के राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण से भी की जा सकती है। सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि मांस, मछली या अंडे खाने वाले 15 वर्ष से अधिक आयु के पुरुषों की संख्या 71.6 प्रतिशत थी। जबकि महिलाओं का अनुपात मामूली रूप से कम होकर 70.7 प्रतिशत था। 

क्या प्रतिबंध अवैध है?

कर्नाटक में प्रतिबंध तब शुरू हुआ जब बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद सहित विभिन्न हिंदू संगठन घर-घर जाकर लोगों से हलाल मांस का इस्तेमाल नहीं करने के लिए कह रहे थे, जब हिंदुओं के एक वर्ग ने उगाडी के बाद 'होसा टोडाकू' (नए साल का दिन)का आयोजन किया। 

उगाडी 2 अप्रैल को मनाई जाती है, जिसके बाद होसा तड़ाकू मनाया जाता है जिसमें हिंदू मांसाहारी भोजन खाते हैं, मांस पकाते हैं और देवताओं को चढ़ाते हैं।

ये प्रतिबंध, विशेष रूप से मांस पर प्रतिबंध, अंतत दो मुद्दों पर आकर रुकते हैं। सबसे पहले, क्या ये प्रतिबंध किसी धर्म की पवित्रता को बनाए रखने के लिए जरूरी हैं? दूसरा, यदि हाँ, तो  प्रतिबंध कैसे लगाया जाता है?

पहले का उत्तर जानने के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि संविधान का अनुच्छेद 19(1)(g)  व्यापार करने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इस मौलिक अधिकार की एकमात्र अनुमेय सीमा अनुच्छेद 19(2)-(6) के तहत है जो उचित प्रतिबंध लगाने का प्रावधान करता है। हालांकि, अनुच्छेद 19(2)-(6) के तहत कोई भी उचित प्रतिबंध केवल एक वैधानिक 'क़ानून' के माध्यम से होना चाहिए जैसा कि बिजो इमैनुएल और अन्य बनाम केरल राज्य (1986) के मामले में तय पाया गया था। महापौरों के आदेश कार्यकारी आदेश हैं और व्यापार की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसके लेई क़ानून का अस्तित्व होना एक आवश्यक जरूरत है।

दूसरा, भले ही इन प्रतिबंधों को वैधानिक क़ानून द्वारा समर्थन हासिल हो, इसे स्वर्ण त्रिभुज (अनुच्छेद 14, 19 और 21) के जांच से गुजरना होगा। अनुच्छेद 14 की कसौटी पर खरा उतरने के लिए, क़ानून को तर्कसंगतता के मापदंडों के माध्यम से परखना होगा क्योंकि समानता की गारंटी मनमानी के खिलाफ गारंटी है। कोई भी क़ानून जो अनुपातहीन या अत्यधिक है, स्पष्ट रूप से मनमाना होगा जैसा कि शरया बानो बनाम यूओआई (2017) में तय पाया गया था।

ये क़ानून, प्रथम दृष्टया समानता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं क्योंकि संविधान मांस पर पूर्ण प्रतिबंध की अनुमति नहीं देता है। संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 15 के तहत एकमात्र प्रतिबंध, वह भी बिना किसी वैधानिक क़ानून के, गोहत्या पर है। प्रतिबंध एक वैध उद्देश्य से समर्थित नहीं है क्योंकि यह सिर्फ मांस नहीं है जिसे लोग नवरात्रि के दौरान नहीं खाते हैं। मांस पर पूर्ण प्रतिबंध जबकि प्याज और लहसुन का भी सेवन नहीं किया जाता है, जैसा कि एसडीएमसी मेयर ने दावा किया है, अनुचित है। इसके अलावा, यदि मांस की गंध किसी समुदाय की भावनाओं और विश्वासों को प्रभावित करती है, तो इसका प्रभाव पूरे वर्ष होना चाहिए, न कि केवल नवरात्रि के दिनों में। 

दूसरा, यदि हुकूमत अनुच्छेद 19(1)(g) को प्रतिबंधित करना चाहती है, तो यह हुकूमत के मामले में वैध होना चाहिए क्योंकि यह सुनिश्चित करेगा कि क़ानून स्पष्ट मनमानी से तो ग्रस्त नहीं है। कि ये प्रतिबंध धार्मिक नैतिकता के सम्मान के आधार पर लागू किए गए हैं, वह भी इसके प्रभाव के वैधानिक क़ानून की अनुपस्थिति में ऐसा किया गया है। नैतिकता, हालांकि किसी भी व्यापार को करने के अधिकार पर उचित प्रतिबंध का एक स्वीकार्य आधार है, लेकिन इसका मतलब बहुसंख्यकवादी भावनाओं से प्रेरित नहीं होना चाहिए। संवैधानिक नैतिकता, जैसा कि एनसीटी दिल्ली बनाम यूओआई (2018) में देखा गया है, लोकप्रिय नैतिकता के खिलाफ संतुलन रखती है। मांस की दुकानें, जिन्हें बंद कर दिया गया है या जबरन बंद कर दिया गया है, विभिन्न समुदायों के व्यक्तियों के स्वामित्व में हैं, जिनकी आजीविका इस पर निर्भर है। इस प्रकार, भले ही छोटी आबादी प्रभावित हो, जो इस मामले में है, संवैधानिक अदालतें केएस पुट्टस्वामी बनाम यूओआई (2017) और नवतेज सिंह जौहर बनाम यूओआई (2018) में उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए बाध्य हैं।

इसके अलावा, इस किस्म का प्रतिबंध, अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तियों की पसंद की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है। हाल ही में भोजन का अधिकार पर जैसा कि प्रोब्लम्स एंड मिजारिज ऑफ माइग्रेंट लेबर्स (2021) में पुन: दोहराया गया है: और चुनने का अधिकार जैसा कि सोनी गेरी बनाम गेरी डगलस (2018) में देखा गया है, वह अनुच्छेद 21 का एक आंतरिक हिस्सा है। इस प्रकार, यह समझ में आता है कि पसंद का एक विशेष भोजन चुनने की स्वतंत्रता भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वायत्तता का मामला माना जाएगा। 

अंत में, मौलिक कर्तव्यों का अनुच्छेद 51 (ए) (ई) धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या अनुभागीय विविधताओं से परे भारत के सभी लोगों के बीच सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देता है।

भारत की जनगणना के अनुसार, बहुसंख्यक धर्मों के अलावा, 6 मिलियन से अधिक लोग अन्य धर्मों और आस्थाओं को मानते हैं। हर धर्म और आस्था की अपनी परंपरा और प्रथा होती है। इन आदेशों को किसी भी विधायी रंग देने का प्रयास संविधान की धर्मनिरपेक्ष विशेषता का उल्लंघन होगा क्योंकि ऐसा करने से से विभिन्न धार्मिक समुदायों के विभिन्न दावों की बाढ़ आ जाएगी, जिससे अनुच्छेद 25 का सार हिल जाएगा। संविधान का अनुच्छेद 25 स्वतंत्र रूप से धर्म का अभ्यास और प्रचार स्वीकार करने की अनुमति देता है। 

वैधता के बिना, ये प्रतिबंध केवल सामाजिक अशांति पैदा कर सकते हैं जिससे सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा होता है। जबकि कई समुदाय कुछ अवसरों पर मांस खाने या कुछ प्रकार के मांस खाने पर संयम का पालन करते हैं, भारत में 70 प्रतिशत से अधिक लोग इसका उपभोग करते हैं, तो दूसरों के लिए मांस की खपत पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का कोई तर्क संगत नहीं है।

इस प्रकार, कोई भी राजनीतिक अतिरेक, पहनने के कपड़े की पसंद से लेकर खाने के भोजन के प्रकार को विनियमित करना, निश्चित रूप से अनुचित और संवैधानिक रूप से निराधार है।

गुरसिमरन बख्शी द लीफ़लेट में स्टाफ़ राइटर हैं।

सौजन्य: द लीफ़लेट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

The Politicisation of Eating Meat: Is it Constitutionally Sound?

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