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वन नीति पर जनजातीय मंत्रालय के उठाए मुद्दे पर पर्यावरण मंत्रालय ध्यान देगा?

आदिवासियों के लिए वन प्रशासन अधिकार सुनिश्चित करने के क़ानूनों के बावजूद दशकों से भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं ने उन्हें नज़रअंदाज़ किया है।
Tribal Ministry

निजी कंपनियों को फायदा पहुँचाने के लिए ये प्रस्तावित नीति मौजूदा वन कानूनों को ख़त्म कर देगा। इससे आदिवासियों और वनवासियों का बड़ा नुकसान होगा।

एक महीने से भी कम समय में नई राष्ट्रीय वन नीति (एनएफसी) 2018 को अंतिम रूप देने की उम्मीद है। जैसा कि इसकी घोषणा पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय(एमओईएफसीसी) के अधिकारियों द्वारा की गई थी। इस मसौदा नीति के विभिन्न प्रावधानों पर जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) सहित कई क्षेत्रों से उठाए गए मुद्दे अभी भी अस्पष्ट है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

इस साल मार्च में एमओईएफसीसी ने एनएफसी 2018 का मसौदा प्रकाशित किया था और इसके जवाब में 700 से अधिक लोगों ने अपने विचार भेजे थें। ये नीति साल 1988 की नीति को प्रतिस्थापित कर देगी। इस नीति की विभिन्न पहलुओं पर कड़ी आलोचना हुई है। इसकी आलोचना वन की परिभाषा की अस्पष्टता से लेकर वनों की "बढ़ती उत्पादकता" के लिए पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल लाने तक की गई। एमओटीए ने इस मामले में भी हस्तक्षेप किया जिसने कहा कि एमओईएफसीसी के पास वनों से संबंधित नीतियों को तैयार करने के लिए "विशेष क्षेत्राधिकार" नहीं है।

19 जून के एक पत्र में जनजातीय मामलों के सचिव लीना नायर ने पर्यावरण सचिव सीके मिश्रा को पत्र लिखा कि इस तरह की नीति तैयार करने से पहले एमओईएफसीसी को जनजातीय मंत्रालय और वनवासियों से सलाह लेने की आवश्यकता है। नायर ने कहा, "वन नीति लाने का विचार स्वागतयोग्य है, लेकिन दुर्भाग्यवश इस नीति ने वनों के परंपरागत संरक्षक और वनों के पारंपरिक समाज अर्थात् आदिवासियों को नज़रअंदाज़ कर दिया है।" उन्होंने आगे कहा कि एक आम धारणा थी कि ये मसौदा नीति "निजीकरण, औद्योगिकीकरण और व्यावसायीकरण के लिए वन संसाधनों का विघटन पर ज़ोर देता है।"

वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) का ज़िक्र करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि "यह भी महसूस किया जाता है कि इस नीति में वर्णित वनीकरण और कृषि वानिकी के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल उन क्षेत्रों में खुलेंगे जिन पर आदिवासियों और वनवासियों के पास एफआरए के तहत क़ानूनी अधिकार हैं।" एफआरए के अनुसार आदिवासी और वनवासियों की सहमति उनके पारंपरिक वन भूमि के किसी भी तरह के इस्तेमाल के लिए ज़रूरी है। हालांकि, खबरों से पता चलता है कि पर्यावरण मंत्रालय पीपीपी मॉडल और वनों के व्यावसायीकरण से पीछे नहीं लौटना चाहता है।

यद्यपि अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम, 1996 मे पंचायत विस्तार और एफआरए आदिवासी क्षेत्रों में वनों पर ग्राम सभा प्राधिकार देता है जबकि ये मसौदा नीति इसे नज़रअंदाज़ करती है। नायर ने लिखा कि "ये दोनों क़ानून अनुसूचित जनजातियों के समग्र विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं और समुदाय-आधारित वन प्रशासन को सुनिश्चित करके जैव विविधता संरक्षण के साथ-साथ जनजातीय समाज को संसाधनों के प्रबंधन में प्रमुख हितधारक भी बनाते हैं।"

सैकड़ों नागरिक समाज संगठनों ने सर्वसम्मति से इस मसौदा नीति की आलोचना की है और यह दावा करते हुए कहा कि यह केवल कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाएगा। इसके साथ-साथ यह बताया गया था कि प्रस्तावित नीति में 'वनों' की परिभाषा में स्पष्टता भी नहीं थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान सरकार ने जनजातीय मंत्रालय को नज़रअंदाज़ कर दिया है। इस महत्वपूर्ण मंत्रालय के बजट आवंटन पर नज़र डालने पर जो नतीजे सामने आते हैं वो चौकाने वाले है।

ये मंत्रालय आदिवासी कल्याण के लिए नोडल एजेंसी है। इस मंत्रालय के आवंटन में मामूली वृद्धि हुई है। कुल आवंटन 2017-18 में 5329 करोड़ रुपए से बढ़कर चालू वर्ष में 5935करोड़ रुपए हुए है। इस क्षेत्र में सरकार द्वारा कुल व्यय का हिस्सा पहले से ही चौंकाने वाला है। पिछले साल 0.25 फीसदी थी जो कम होकर इस साल 0.24 फीसदी हो गई हैइससे साफ पता चलता है कि जब धनराशि आवंटित की जाती है तो जनजातीय मंत्रालय सरकार को दिखाई ही नहीं देती है। दूसरी तरफ आवंटित इस मामूली रक़म को भी अनुमानित रूप से खर्च नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए यद्यपि 2017-18 के दौरान न्यूनतम वन उत्पादन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत 100 करोड़ रुपए आवंटित किए गए इसमें से मात्र 25 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए थे। इसी तरह पिछले साल आवंटित राशि 505 करोड़ रुपए का लगभग 21 प्रतिशत सरकार ख़र्च करने में विफल रही जिसके चलते अन्य कल्याणकारी योजनाओं सहित 'वनबंधु कल्याण योजना' के लिए कुल आवंटन लगभग 17 प्रतिशत घट गया है।

आदिवासियों के लिए वन प्रशासन अधिकार सुनिश्चित करने के क़ानूनों के बावजूद दशकों से भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं ने उन्हें नज़रअंदाज़ किया है। अब केंद्र सरकार द्वारा तैयार की गई वन नीति यदि पारित हो जाती है तो यह मौजूदा वन क़ानूनों को आदिवासियों और वनवासियों की क़ीमत पर निजी कंपनियों को फायदा पहुँचाने के लिए प्रतिस्थापित कर देगा।

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