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बीच बहस: शरीयत कानून-1937 बदलाव की मांग करता है!

क्या निकाह के लिए बालिग़ होना जरूरी नहीं? पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के एक हालिया फ़ैसले ने देश में एक बार फिर शरीयत कानून-1937 में बदलाव पर बहस छेड़ दी है।
शरीयत कानून
प्रतीकात्मक तस्वीर

पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के एक हालिया फैसले में माननीय न्यायाधीश अल्का सरीन ने एक 17 वर्षीय नाबालिग मुस्लिम लड़की को 36 वर्षीय पुरुष के साथ विवाह करने की इजाजत देते हुए कहा कि निकाह के लिए बालिग होना जरूरी नहीं। ऐसा कहते हुए उन्होंने लड़की के माता-पिता की लड़की के विवाह के निरस्तीकरण की मांग को खारिज कर दिया। इस फैसले ने देश में एक बार फिर शरीयत कानून-1937 में बदलाव पर बहस छेड़ दी है।

मुस्लिम निजी कानून शरीयत एप्लीकेशन एक्ट-1937 में अभी भी लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु यौवनावस्था या 15 साल है। ऐसे में न्यायाधीश का यह कहना कि निकाह के लिए बालिग होना जरूरत नही, तकनीकी रूप से सही प्रतीत होता है। लेकिन दूसरी ओर यह भी गौर करने की बात है कि बाल विवाह की रोकथाम हेतु बने शारदा अधिनियम-1929 में सुधार करते हुए 1978 में लड़की के विवाह की आयु को 15 से बढ़ा कर 18 और लड़के की आयु 21 हो चुकी है। जिसे संसद द्वारा पारित भी किया जा चुका है, यह एक राष्ट्रीय कानून है जो भारत में रहने वाले हर बच्चे पर लागू होता है। जिसका स्थान किसी निजी कानून से ऊपर है, परन्तु फैसला सुनाते समय इस बात का ध्यान नही रखा गया।

जहां तक यौवनावस्था का प्रश्न है आजकल के जीवनस्तर खान-पान से लड़की अक्सर 12 वर्ष में ही यौवनावस्था को प्राप्त कर लेती है, तो क्या कानून के मुताबिक 12 साल की लड़की का ब्याह हो जाना चाहिए? मुस्लिम निजी कानून बाल विवाह अधिनियम से भी टकराता है, एक तरफ बाल विवाह को समाप्त करने के लिए नए-नए कार्यक्रम तैयार किए जा रहे है तो दूसरी तरफ ऐसा कानून बालिका वधू तैयार करने की बात करता है। जिसके प्रमाण भी समय-समय पर दिखते रहते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि महिलाएं जो 20 वर्ष की आयु से पहले गर्भवती हो जाती हैं उन्हें जन्म के समय बच्चे के वजन कम होने, कुपोषित होने, अपरिपक्व प्रजनन, एवं नवजात शिशु से सम्बन्धित अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। नवजात शिशु के साथ माता को भी अनेको स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम उठाने पड़ सकते है। जो कि मातृ-शिशु मृत्यु दर को बढ़ाते हैं। अपरिपक्व शरीर से जना बच्चा भी अपरिपक्व और कुपोषित ही होता है। इसका प्रभाव लड़की के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।

अक्सर यह देखा जाता है कि जब भी शरीयत कानून-1937 में बदलाव की बात उठती है तो मुस्लिम समुदाय अतिसंवेदनशील हो उठता है और किसी भी बदलाव से इनकार करता है, ऐसा हमने तीन-तलाक (जो कि कुरान सम्मत नही था) को खत्म करने की लड़ाई में भी देखा। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे कानून में समयानुसार बदलाव किया जा सकता?

शरीयत अधिनियम अल्लाह का बनाया कानून नहीं है यह इंसानों का बनाया कानून है जिसमें समय की मांग के अनुसार बदलाव होते रहे हैं और आगे भी हो सकते हैं। प्रथागत कानूनों को शरीयत कानून या इस्लामिक कानून कहना ही गलत है, हमारे सामने जो प्रथागत कानून अभी मौजूद हैं वह है ‘मुस्लिम विधि’ समय के साथ यह मुहम्मडन लॉ और बाद में एंग्लों मोहम्मडन लॉ कहलाया। इसे इस्लामिक लॉ कहना या समझना एक भूल है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इसे ही इस्लामिक लॉ समझा जाता है।

आंग्ल संसद ने शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937 में बनाया। मोटे तौर पर समझें तो यह एक्ट मुसलमानों पर मुस्लिम विधि ही लागू होगी इस बात की महज एक घोषणा भर था। कानून तो पुराना ही लागू रहा जो पूरी तरह पितृसत्तात्मक, एकतरफा, मर्दो द्वारा, मर्दो के लिए ही बना था जिसका कुरान में महिलाओं को जो अधिकार दिए गए है उससे कोई सम्बन्ध नहीं था।

शरीयत एक्ट 1937 क्यों बनाया गया? इसे भी जानना ज़रूरी है। जैसा कि विदित है मुसलमानों के पास एक अपनी मुस्लिम विधि पहले से थी, उसमें तब से लेकर अब तक कोई विशेष सुधार नही हुआ है। 1937 से पहले भारतीय आंग्ल अदालते सम्परिवर्तित (converted) मुसलमानों के उत्तराधिकार के मामले मुस्लिम विधि के अनुसार न देखकर प्रथागत हिन्दू विधि द्वारा विनियमित कर दिया करती थी,  जो मृतक के जीवन के अधिकांश वर्षो तक लागू रहती। इससे मुस्लिमों पर गैर-मुस्लिम विधि लागू हो जाया करती थी। मुसलमानों के मन में इससे कई आशंकाए उभरीं, उन्हें लगा कि ऐसा करने से मुस्लिम विधि के दूषित हो जाने की सम्भावना है। यह सवाल उठने लगा। तत्पश्चात ब्रिटिश-शासन प्रणाली ने किसी भी प्रकार की प्रथा एवं अन्य विधि को मुस्लिम व्यैक्तिक विधि में स्थान न देने के उद्देश्य से केन्द्रीय विधान मण्डल ने यह अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम की धारा-2 यह निर्धारित करती है कि वैयक्तिक मामलों से सम्बन्धित किसी वाद में यदि दोनों पक्षकार मुस्लिम हैं तो निर्णय देने में केवल मुस्लिम विधि के नियम ही लागू होंगे, इन मामलों में कोई अन्य विधि लागू नहीं हो सकती। इस धारा में निम्न मामले वैयक्तिक मामले माने गए हैं-

निर्वसीयत उत्तराधिकार (विरासत), महिलाओं की विशिष्ट सम्पत्ति, विवाह, विवाह विच्छेद (सभी प्रकार के), भरण-पोषण अथवा निर्वाह, मेहर, संरक्षकता, दान, न्यास एवं न्यास सम्पत्तियां और वक्फ।

अदालतें अब उपरोक्त मामलों में मुस्लिम विधि लागू करने के लिए न केवल सक्षम है वरन बाध्य भी हैं।

शरीयत एक्ट बनवाने का उस दौर के मुसलमानों का बस इतना ही मकसद रहा, लेकिन जो मुस्लिम विधि पहले से चल रही थी जो नाइंसाफी पर थी, उसमें सुधार करने का कोई प्रयास न तो सरकार और न ही मुस्लिम समुदाय ने किया।

आज के समय में जरूरत इस बात की है कि क्षेत्रीय प्रथागत नियमों पर आधारित अंगे्रजो द्वारा पारित शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937 में सुधार किया जाए।

यह तभी मुमकिन हो पाएगा जब इंसाफपसंद कानून बने और उसे लागू करने की सरकार की मंशा भी साफ हो, वरना ऐसे फैसले भी आते ही रहेगे जो तार्किक रूप से गलत न होते हुए भी बाल विवाह को समर्थन देंगे।

पिछले कुछ वर्षों से शिक्षित लड़कियां, महिला संगठन, व डॉक्टरों के संगठन यह मांग उठा रहे हैं कि लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु जो अभी 18 वर्ष है उसे भी बढाया जाए। देश में बहस जारी हो गई है। लड़कियां अपनी आवाज बुलंद करते हुए पूछ रही हैं कि क्या हम लड़कियों को मात्र 12वी तक ही पढ़ना चाहिए? चूंकि विवाह संस्था अभी भी पूर्ण रूप से पितृसत्ता के हाथों में है, जहां ब्याह कर आने वाली लड़की को थाली, रकाबी, अच्छी बहू बनने के साथ रसोई और बिस्तर के गणित में ही उल्झा दिया जाता है, अपेक्षाएं बहुत हो जाती है, ऐसे में विवाह के बाद कितनी लड़कियां पढ़ लिख पाएंगी, अन्जाम यही होगा कि वह समाज के हर क्षेत्र में पिछड़ जाएंगी और पितृसत्ता उनपर अपना नियंत्रण बढ़ा देगी।

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शिक्षित भारत बनने के लिए बेटियों को उच्च शिक्षा प्राप्त होना बहुत जरूरी है। विज्ञान, तकनीकि, व संचार क्रांति से उपजी बिल्कुल नए प्रकार की शैक्षिक प्रतियोगिता के बीच लड़की को भी अपनी जगह बनानी है नहीं तो वह हाशिए पर चली जाएगी इसके लिए जरूरी है कि लड़कियों को भी उतना ही समय दिया जाए जितना लड़कों को दिया जाता है। यदि उन्हें गैरजरूरी जिम्मेदारियों में उलझा कर उन्हें रोक दिया जाएगा तो फिर उस बदलते समाज की शिक्षा प्रणाली की किसी प्रतियोगिता में अपना स्थान नही बना पाएंगी। यह बात भारत की सभी लड़कियों पर लागू होती है।

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अगर ऐसे ही कानून रहे तो मुसलमान लड़कियों के और पीछे रह जाने की सम्भावना बढ़ जाएगी। क़ानून समय की मांग के अनुसार बनाए जाते है जिनमें हमेशा बदलने की सम्भावना मौजूद होती है। कभी बेहद तरक़्क़ीपसन्द मानी जाने वाली क़ानून प्रणालियां पुरानी और बेअसर हो जाती हैं और सामाजिक ज़रूरतों के हिसाब से उन्हें देाबारा ढाला और गढ़ा जाता है। आज जरूरत इस बात की है कि शरीयत कानून-1937 में बदलाव किया जाए और विवाह की न्यूनतम आयु अनिवार्य रूप से वही रखी जाए जो बाल विवाह निरोधक कानून में है ताकि बाल विवाह पर नियंत्रण लगाया जा सके।

(लेखक रिसर्च स्कॉलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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