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कला गुरु उमानाथ झा : परंपरागत चित्र शैली के प्रणेता और आचार्य विज्ञ

कला मूल्यों की भी बात होगी तो जीवन मूल्यों की भी बात होगी। जीवन परिवर्तनशील है तो कला को भी कोई बांध नहीं सकता, वो प्रवाहमान है। बात ये की यह धारा उच्छृंखल न हो तो किसी भी धार्मिक कट्टरपन का भी शिकार न हो। उसे निर्बाध ढंग से बहने का अवसर मिलते रहना चाहिए।
शबीह चित्र, चित्रकार: उमानाथ झा, साभार: रक्षित झा
शबीह चित्र, चित्रकार: उमानाथ झा, साभार: रक्षित झा

सुधी कला प्रेमी और कला मर्मज्ञ अगर परंपरागत कला शैली के संरक्षण की बात कर रहे हैं तो इसके पीछे यह नहीं है कि प्राचीन कला के विषय-वस्तु, संदर्भों का अनुकरण ही किया जाय। समकालीन और ज्वलंत विषयों की ही, अपने विचारों और रूचि की अभिव्यक्ति हो। हम सभी नव कलाकारों को एक ही छड़ी से नहीं हांक सकते। अगर वरिष्ठ कलाकार अपनी ही पसंद को प्राथमिकता देंगे उसी के अनुसार कला सृजन करने के लिए बाध्य करेंगे, बढ़ावा देंगे तो क्या होगा? संभवतः पुरानी कला शैली और उसके भाव-सौंदर्य की खोज-बीन होने लगेगी। अपने सृजन में ही नयापन लाने के लिए। लेकिन पता चला कि कला की वह गूढ़ चित्र तकनीक कोई जानता ही नहीं। शायद तुरंत लोकप्रियता और सफलता के चक्कर में इतना आगे निकल गये कि उन कला गुरूओं को पीछे छोड़ आये, उपेक्षित कर दिया, जिन्होंने अपना जीवन कला छात्रों को पुरानी चित्र शैली सिखाने में ही जीवन अर्पित कर दिया।

अगर हमें प्रेमचंद प्रासंगिक लगते हैं तो कालिदास की कृतियाँ हमें भारत की प्राचीनतम समाज और उनके कला प्रेम से रुबरू कराती हैं। अतः हमें दोनों की जरूरत है। कला मूल्यों की भी बात होगी तो जीवन मूल्यों की भी बात होगी। जीवन परिवर्तनशील है तो कला को भी कोई बांध नहीं सकता, वो प्रवाहमान है। बात ये की यह धारा उच्छृंखल न हो तो किसी भी धार्मिक कट्टरपन का भी शिकार न हो। उसे निर्बाध ढंग से बहने का अवसर मिलते रहना चाहिए।

टेम्परा चित्र शैली को भारत की शास्त्रीय चित्रकला शैली कह सकते हैं। इसी का और विकसित और सुन्दर रूप है लघु चित्रण शैली। दो तीन वर्ष की बात है लखनऊ स्थित राष्ट्रीय ललित कला अकादमी के कला विथिका में घूम रही थी । एक चित्र प्रदर्शनी का अवलोकन कर रही थी। तमाम चित्रों के भीड़ में टेम्परा पेंटिंग देख कर मन खुश हो गया। जैसे कोई पुराना आत्मीय मिल गया। याद आ गये अपने कला गुरु श्री उमानाथ झा सर। उनके द्वारा सिखाई गयी अमूल्य विलुप्त होती प्राचीन भारतीय चित्रकला शैली।

प्रोफेसर उमानाथ झा। तस्वीर सुमन सिंह के फेसबुक से साभार:

श्री उमानाथ झा का जन्म 2 नवंबर 1928 में भागलपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित जगन्नाथ झा था जो भागलपुर में ही डिस्ट्रिक जज के पेश्कार थे। माँ का नाम सावित्री देवी था। उमानाथ झा की प्रारम्भिक शिक्षा एसआर हाईस्कूल भागलपुर में हुई थी। कला की शिक्षा उन्होंने विश्व प्रसिद्ध कला संस्थान शांति निकेतन में प्राप्त की थी। बहुत कोशिशों के बावजूद उनके जीवन के बारे में मैं ज्यादा जानकारी हासिल नहीं कर पाई। वर्तमान समय में अस्वस्थ अवस्था में अपने छोटे बेटे रक्षित झा और बहू के साथ रह रहे हैं। बड़ी कोशिशों से मार्च माह में मोबाइल फोन के जरिये उनसे बात हुई। बड़ी खुशी की बात है वे मुझे पहचान गये।

परम्परा के भीत पर ही नया सृजन होता है। परम्परागत कलाएँ हमारी जमीन हैं। उनका अध्ययन कर उनपर सिद्धता हासिल कर के ही हम नया कला रूप और रंग रच सकते हैं। आधुनिक संगीत और नृत्य को सृजित करने वाले समकालीन कला महारथियों को भी शास्त्रीय संगीत और नृत्य में महारत हासिल करनी पड़ी है।

उमानाथ झा कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में वहां के पांच वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम में टेम्परा चित्र शैली और लघुचित्र शैली (मेथर्ड एंड मटेरियल) की कक्षाएं लेते थे। वे बेहद शालीन और कम बातें करने वाले प्राध्यापक रहे हैं। 1983 में उनकी पत्नी का निधन हो गया था। उनके बेटे ने बताया कि, माँ के मृत्यु के बाद सफलतापूर्वक अध्यापन करते हुए उन्होंने अपने बच्चों को संभाला।' हमारे लिए माँ भी वही थे और पिता भी वही थे'। सचमुच यही वात्सल्य पूर्ण  भाव उनका अपने छात्रों के प्रति भी था। तभी तो उनके कई छात्र आज भारतीय कला में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। उदाहरण स्वरूप महिला कलाकार शांभवी सिंह की एक टेम्परा पेंटिंग जो ग्रामीण हाट विषय पर बनाई गई थी आज भी मुझे याद है। जिसे मैं उनके बेहतरीन चित्रों में से ही मानती हूँ। एक चित्रकार विपिन कुमार के टेम्परा चित्र बेहतरीन होते थे। राधाकृष्ण के प्रेम पर बनाए उनके चित्र बहुत सुन्दर थे।

माँ-पुत्र वात्सल्य, चित्रकार: मंजु प्रसाद, जिसमें महत्वपूर्ण रेखाएँ आचार्य प्रवर श्री उमानाथ झा की हैं।

मेरी ही साथ की एक महिला चित्रकार मृदुला कुमारी के टेम्परा चित्र और लघुचित्र अनुकरणात्मक जरूर होते थे लेकिन उसमें भी मृदुला कुमारी के कोमल मनोभाव और प्राचीन कला शैली की तकनीकी सिद्धता दिख जाती थी। जैसा कि भारतीय कलाजगत और कलाकारों के साथ हमेशा से रहा है विदेशी कला के प्रति विशेष आकर्षण। चूंकि भारतीय सामाजिक ढांचा में परम्परागत जीवन शैली ही सर्वमान्य है। यही बात ज्यादातर कलाकारों के जीवन शैली में भी है अगर वे आधुनिक होते हैं,  तो अपनी कलाकृतियों में  प्रभाववाद , अभिव्यंजनावाद ,अतियथार्थवाद,  अमूर्तवाद  आदि पर ही आधारित होते हैं उनके कलासृजन। चूंकि उनका सामाजिक और भौगोलिक परिवेश अलग है इसलिए इन शैलियों के अनुकरण में वे आगे नहीं जा पाते और थोड़े ही समय में उनकी कलाशैली बोझिल हो जाती है, और वे कोई उत्कृष्ट कलाकृति नहीं सिरज पाते। इसका मुख्य कारण है अपनी ही देश की उत्कृष्ट चित्रण शैली को हेय दृष्टि से देखना। उस शैली में चित्रण करने वाले प्रतिभाशाली छात्रों को पिछड़ा मानना। कहा जाता है अंग्रेज चले गये और अपना छाड़न छोड़ गये। दरअसल वे ज्यादा समझदार निकले अपनी परंपरागत कला शैली को तो उन्होंने सुरक्षित रखा ही साथ ही उनके कला प्रेमी और कला मर्मज्ञ विद्वानों ने यहाँ की प्राचीनतम कला शैली को परख लिया था। तभी तो यहाँ की अमूल्य कला धरोहरों में से ज्यादातर लघुचित्र इंग्लैंड और अन्य महत्वपूर्ण कला संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं ।

बहरहाल मैं अपने सर्वश्रेष्ठ शिक्षक उमानाथ झा के बारे में बात कर रही थी। उन्होंने शांति निकेतन में अपनी कला साधना शुरू की थी। उस समय जबकि पुरानी कला शैली और पुरानी अवधारणा को तोड़ कर बंगाल के कलाकार नया सृजन कर रहे थे वे भी प्राच्य कला और विदेशी कला शैली में प्रवीण थे। अपने सीधे-सरल व्यक्तित्व के अनुरूप और सुरुचिपूर्ण सौंदर्य बोध के तहत ही उन्होंने, परम्परागत भारतीय चित्रण शैली में सिद्धहस्तता हासिल किया ।

जिस मनोयोग और उत्साह से उमानाथ सर हमें प्राचीन भारतीय चित्रकला शैली की तकनीकियों को बारीकी से चरणबद्ध ढंग से, बड़े धैर्य से सीखाते थे, हम छात्र बहुत पसंद करते थे इसे। हमारे लिए उनकी कक्षा बहुत ही रुचिकर रहती थीं। छात्र जीवन में हम सब अक्सर झा सर से उनकी मौलिक कलाकृतियों को दिखाने की मांग करते थे। एक दिन उन्होंने बताया कि कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में उनका कक्ष नीचे था इसलिए जब पटना में भीषण बाढ़ आई थी तभी उनके ज्यादातर चित्र चूंकि कागज पर थे इसलिए नष्ट हो गये ।

टेम्परा चित्र शैली में प्राचीन काल में पत्थर की भित्ति को घिसकर समतल किया जाता था। फिर उसपर गोंद के साथ चूने के घोल की परत चढ़ाई जाती थी । इस भित्ति को स्थायित्व देने के लिए वज्रलेप या चपड़ा (भैंस के चमड़े को सुखाकर, फिर गलाकर बनाया गया घोल) चढ़ाया जाता था।

खनिज रंगों जैसे गेरू, रामरज, चूना आदि और वानस्पतिक रंगों में भी टिकाऊ बनाने के लिए वज्र लेप मिलाया जाता है। तभी तो आज भी अजंता, बाघ गुफाएँ (मध्य प्रदेश), एलीफेण्टा, ऐलोरा और बादामी गुफाओं के भित्तिचित्रों की रंगत में समय की मार पड़ने के बावजूद जो चमक और ताजगी है, वो दुर्लभ है।

भित्ति को शिष्यगण तैयार करते थे। जिसके ऊपर गुरु अपने सिद्धहस्त गतिशील सुन्दर रेखाओं से चित्र दृश्य तैयार करते थे। चित्र में रंग भरने का कार्य शिष्यगण ही करते थे। चित्रों को अंतिम रूप प्रमुख कला गुरु ही देते थे। यह सब बहुत ही अद्भुत और रूचिकर प्रक्रिया रही है , जिसमें बहुत धैर्य और लगन की जरूरत होती थी।

आधुनिक कलाकार बनने की दौड़ में हम इस तरह शामिल हो गये हैं कि नींव की ओर देखना ही छोड़ दिया। उमानाथ जी जब तक महाविद्यालय में अध्यापनरत रहे, उनका महत्त्व रहा। उनके पुत्र के अनुसार, 1992 में वे कॉलेज से सेवानिवृत्त हो गये। 2004 में जब मुझे संयोग वश कला एवं शिल्प महाविद्यालय में अल्पकाल के लिए पढ़ाने का सुअवसर मिला तो मैंने उनके बारे में पता करने की कोशिश की। मुझे महाविद्यालय के स्टाफ खूबलाल जी ने बताया कि वे बस पेंशन लेने के लिए पटना आते हैं। दरअसल उन्हें और उनके योगदान को हाशिए पर डाल दिया गया है। आज जब मैं नव कलाकारों के बेसिर पैर के विरूपित और वीभत्स रस से भरपूर अरुचिकर चित्रों को देखती हूँ तो बड़ा अफसोस होता है। ऐसे में उमानाथ झा सर जैसे महान कला गुरूओं का योगदान याद आता है। मैंने जब फोन से उनसे बात की तो टेम्परा चित्र के नाम पर ही उनकी स्मृति जागी। आज भारतीय कलाजगत में पुरस्कारों की बारिश हो रही। आलम ये है कि ' पुरस्कार नाम की लूट है लूट सके तो लूट, अंतकाल पछतायेगा ...। मैं कला गुरु उमानाथ झा की आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे भारत की उत्कृष्ट चित्र चित्रण शैली से परिचित कराया । उनके परिवार जनों के पास बस एक ही चित्र मौजूद है जो अमूल्य निधि है। उमानाथ सर अभी जीवित हैं। उन्होंने अपने बड़े पुत्र अजित झा को भी बम्बई के सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा दिलाई है। मुझे उनके जीवन वृत्त संबंधी जो भी अल्प जानकारी जो भी मिली है इसमें उनकी भतीजी और बिहार की चित्रकार प्रेरणा झा (निवास दिल्ली) का भी योगदान है। खेमेबाजी से अलग उमानाथ सर, कला के मौन साधक और अपने छात्रों को अपने कला संबंधी ज्ञान से समृद्ध करने में परम संतुष्टि होती थी। उमानाथ झा सर की सुध लेने की आवश्यकता है। कला सृजन एवं शिक्षण में उनके योगदान पर उनको, "लाइफ टाईम अचीवमेंट पुरस्कार" से सम्मानित किया जाना चाहिए (जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था।) उन्हें मेरी शुभकामनाएं!!

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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