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आज़ादी का अमृत महोत्सव : ‘आज़ाद देश’ में महिलाएं कब आज़ाद होंगी

आज़ादी के 75 साल बाद आज भी स्कूलों तक पहुंच से लेकर शारीरिक पोषण और मानसिक विकास के समान अवसर तक लड़कियां बहुत पीछे नज़र आती हैं। अपनी मर्ज़ी के कपड़े पहनने से लेकर रात में सड़कों पर निकलने तक के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। क्या ये आज़ादी है?
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फ़ोटो साभार: हरिभूमि

देश में औरत अगर बेआबरू नाशाद है, 

दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है?

अदम गोंडवी की तर्ज पर आज़ाद देश में महिलाओं की आज़ादी तलाशती, सवाल पूछतीं ये पंक्तियां हमारे देश में महिलाओं की स्थिति के बारे में काफ़ी कुछ कह देती हैं। रोज़ अख़बार हाथ में लेते ही देश के अलग-अलग राज्यों में हो रहे बलात्कारों की ख़बरें हमारी आज़ादी पर सवालिया निशान लगा देती हैँ। यूं तो भारत को आज़ाद हुए सात दशक से अधिक का समय हो गया है, लेकिन इस आज़ादी के अमृतमहोत्सव की गिरती बारिश में एक सवाल बार-बार जहन में आता है कि आखिर 72 साल के इस युवा आज़ाद देश में हम महिलाएं कितनी आज़ाद हैं?

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने स्वतंत्रा आंदोलन के दौरान 'आधी आबादी' का आवाहन 'भारत की अप्रयुक्त शक्ति' के तौर पर किया था। बाबा साहब आम्बेडकर ने समाज और कई बार अपनी ही संविधान सभा के सदस्यों से लड़कर भारत के संविधान में हम औरतों के लिए आज़ाद और स्वावलंबी भविष्य के बीज बोये थे। समय-समय पर इस देश में स्त्री सशक्तिकरण के लिए क़ानून बनाए गए, उसे कठोर भी किया गया, लेकिन आज भी आधी आबादी को अपनी क्षमताओं के पूरे दोहन का अवसर नहीं मिला। कभी इज्ज़त के नाम पर तो कभी समाज के डर के साए में उसे घर की चार दिवारी लांगने से रोका जाता रहा है।

पितृसत्ता ने लैंगिक भेद को कभी नहीं होने दिया खत्म

पढ़ने के लिए स्कूलों तक पहुंच से लेकर शारीरिक पोषण और मानसिक विकास के समान अवसर तक लड़कियां बहुत पीछे नज़र आती हैं। काम में उन्हें एक पद के लिए सामान वेतन नहीं मिलता तो वहीं वो देर रात बेखौफ सड़कों पर नहीं निकल सकतीं। पितृसत्ता उस पर बुर्क़ा पहनने से लेकर सिंदूर, बिंदी और लाल लिपस्टिक लगाने तक तमाम नैतिक निर्णय थोप देती है। यहां तक की शादी करने न करने के साथ-साथ बच्चे पैदा करने और माँ न बनने में भी वो अपने लिए ख़ुद फैसला नहीं कर पाती। और तो और घरेलू हिंसा और कन्या भ्रूण हत्या जैसे मामलों के ख़िलाफ़ भी वो उठ खड़े होने की हिम्मत परिवार की लाज के आगे खो देती है। हालांकि ऐसा नहीं कि इतने सालों में कुछ बदला नहीं है, लेकिन सच्चाई ये भी है कि आज भी हमारे यहां 'देवी' और 'स्त्री की गरिमा' के नाम पर महिलाओं पर अक्सर समाज अत्याचार ही करता रहा है।

संविधान ने भले ही अधिकारों के मामले में मर्द और औरत में कभी भेद नहीं किया है लेकिन पितृसत्ता ने आज भी इस लैंगिक भेद को खत्म नहीं होने दिया। मौजूदा मानसून सत्र में केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया कि साल 2020 में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम पाक्सो के तहत 47,221 केस दर्ज किए गए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के के अनुसार भारत में हर रोज़ करीब 77 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं। इस 77 में कम से कम 40 प्रतिशत पीड़ित नाबालिग लड़कियां हैं। आंकड़ों की यह स्थिति तब है जब ज्यादातर यौन हिंसा के मामले दर्ज होने के लिए थाने तक पहुंच ही नहीं पाते हैं।

घरों से ही हो जाती है महिलाओं की ग़ुलामी की शुरूआत

महिला सशक्तिकरण के तमाम वादों और दावों के बीच लोकसभा में महिला आरक्षण बिल दशकों से अधर में लटका हुआ है। राजनीति में महिलाओं के प्रतिनित्व को बढ़ाने को लेकर जहां महिलाएं आज भी जंतर-मंतर पर संघर्षरत हैं तो वहीं दूसरी ओर कोरोना काल के बाद आए आर्थिक सर्वेक्षण में पाया गया महिलाएं लेबर फोर्स से भी लगातार बाहर हो रही हैं। देश की कुल जनसंख्या का 49 प्रतिशत बनाने वाली भारतीय महिलाओं का संसद और अन्य ज़रूरी सरकारी पदों पर प्रतिनिधित्व पहले से ही बहुत कम है। लेकिन अब वो धिरे-धिर महामंदी के दौर में प्राइवेट नौकरियों से भी बाहर हो रही हैं। भारतीय रोज़गार के बाज़ार में औरतों की सिर्फ 18 प्रतिशत हिस्सेदारी है। सीएमआईई के कंज़्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 10 में से चार महिलाओं ने नौकरी गंवाई और मार्च और अप्रैल 2020 के देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान एक करोड़ 70 लाख महिलाओं की नौकरी छूट गई।

शिक्षा की बात करें तो आज जहां देश के लगभग 85 प्रतिशत पुरुष शिक्षित हैं, वहीं 65 प्रतिशत लड़कियां ही साक्षर हो पाई हैं। यह बात और है कि एक अदद मौका मिलने पर लड़कियां हर तरह की राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार अपना परचम लहरा कर ख़ुद को साबित कर रही हैं। पर शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकता से ही वंचित देश की हज़ारों लड़कियों के लिए रेस की शुरूआती लकीर औरों से पीछे खिंच जाती है। खैर, गुलामी की शुरुआत तो हमारे घरों से ही हो जाती है, जहां हमारे समाज में आज भी लड़की को अपने ही घर में पराये घर की अमानत समझकर पाला जाता है। तो वहीं जिस घर को उसे अपना मानने को कहा जाता है वहां उसे दूसरे घर से आई लड़की मानकर जीवन भर ताने दिए जाते हैं।

रूढ़िवाद की बेड़ियां तोड़तीं महिलाएं

हालांकि आज़ादी की लड़ाई से लेकर चिपको आंदोलन तक देश में महिलाओं के संघर्ष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। 2012 निर्भया मामले से लेकर किसान मोर्चे तक महिलाओं में ये सजगता और साहस पहले भी कई मौक़ों पर दिखा है। रूढ़ीवादी परंपरा को तोड़ती हुई औरतें, सबरीमाला मंदिर हो या हाजी अली दरगाह, हिंसक प्रदर्शनकारियों के सामने अपनी जान जोख़िम में डालकर भी मंदिर पहुँचीं। महाराष्ट्र में मार्च 2018 में महिला किसानों के छिले हुए नंगे पैरों की तस्वीरें आज भी इंटरनेट पर मिल जाती हैं। महिलाओं की इस ताक़त में उम्र की कोई सीमा नहीं है। युवा, उम्रदराज़ और बुज़ुर्ग, हर उम्र की महिला के हौसले बुलंद नज़र आते हैं।

यूं तो महिलाओं के संघर्ष ने एक लंबा सफ़र तय किया है लेकिन साल 2020 में जिस तरह नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं और जिस तरह साल 2021 की सर्द रातों में महिलाओं ने किसान आंदोलन में अपनी आवाज़ बुलंद की, उसने आने वाले दिनों में महिला आंदोलनों की एक नई इबारत लिख दी है। अब महिलाएं पितृशाही और मनुवादी सोच को चुनौती देकर तमाम आंदोलनों में न सिर्फ़ अपनी हिस्सेदारी दिखा रही हैं बल्कि उन आंदोलनों की अगुवाई भी कर रही हैं, जो आज के दौर में लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी हैं। आज महिलाएं न सिर्फ़ अपने समुदाय के बल्कि सभी के अधिकारों के लिए सड़क की लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि आज़ादी के 75 सालों में न सही लेकिन आगे आने वाले दिनों में महिलाएं अपनी संपूर्ण आज़ादी का सपना जरूर साकार करेंगी।

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