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ग्रामीण भारत में कोरोना-5 : कुलोठ के ग़रीब परिवार ज़िंदा रहने के लिए खेत मज़दूरी पर निर्भर हैं

राजस्थान के इस गाँव के ग़रीब और भूमिहीन परिवार फँसे हुए हैं क्योंकि रोज़गार के दूसरे विकल्पों की तलाश के लिए ये लोग बाहर नहीं जा सकते।
ग्रामीण भारत
तस्वीर का इस्तेमाल मात्र प्रतिनिधित्व हेतु। सौजन्य: लाइवमिंट

इस विषय पर जारी श्रृंखला की यह पांचवीं रिपोर्ट है जिसमें ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों की वजह से पड़ने वाले प्रभावों की झलकियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं। सोसाइटी फ़ॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थित गाँवों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल किये गए गांवों में मौजूद महत्वपूर्ण सूचना-प्रदाताओं के साथ हुई टेलेफोन वार्ताओं के आधार पर तैयार की गई है। यह रिपोर्ट देशव्यापी लॉकडाउन राजस्थान के झुन्झुनू ज़िले के कुलोठ गाँव की एक प्राथमिक पड़ताल करती है। यह वहाँ पर जारी कृषि कार्यकलापों, श्रम और लोगों की आजीविका से सम्बन्धित मुद्दों पर दो मंझोले किसानों से (29 मार्च, 2020 को) और एक दिहाड़ी मज़दूर से (6 अप्रैल, 2020) से टेलीफोन के ज़रिये हुई वार्ता पर आधारित है।

कुलोठ गाँव में क़रीब 600 घरों की बसाहट है। कुलोठ में मौजूद प्रमुख जाति समूहों पर नजर डालें तो जाट (लगभग 300 घर), चमार (लगभग 100 घर), धानक (लगभग 50 घर), लिल्गर (20 से 30 घर) और बनिया समुदाय के (20 से 30 के बीच) घर बसे हुए हैं। इसके अलावा थोड़े से गुवारिया (चूड़ी बेचने वाले), भोप्पा (जिप्सी, घुमंतू), लोहार, न्याक, सिक्का (सूती चादर रंगाई), कुम्हार और ब्राह्मण परिवार हैं।

शेखावाटी क्षेत्र में, जिसके अंतर्गत झुन्झुनू भी आता है, यहाँ के हस्तशिल्प समुदाय से जुड़ी कारीगर जातियों के बीच पश्चिमी एशिया या भारत के विभिन्न हिस्सों में काम पर जाने की एक लंबी परंपरा रही है। कुलोठ गाँव के (10 से लेकर 15) कुशल कारीगरों और तकनीशियनों का समूह आज के दिन सऊदी अरब में कार्यरत है, लेकिन इस महामारी के दौर में उनमें से कोई एक भी वापस गाँव नहीं लौटा है)। इसी तरह चमार, लिल्गर, सिक्का, गुवारिया, नायक और कुम्हार जातियों में से कई कुशल भवन निर्माण से सम्बद्ध मज़दूर और राजमिस्त्री भी काम की तलाश में कुलोठ से दूसरे गाँवों और शहरों (ज्यादातर हरियाणा) में पलायन करते रहे हैं।

कुलोठ में रबी की फसल मुख्य तौर पर गेहूं और सरसों की उगाई जाती है। पिछले कुछ सालों में चने की खेती में कमी देखने को मिली है, क्योंकि बेमौसम बारिश और अंधड़ में चने की फसल के बर्बाद हो जाने की आशंका अधिक बनी रहती है।

जबसे ट्यूबवेल के जरिये सिंचाई के विकल्प बढे हैं तबसे इस क्षेत्र के किसानों ने गेहूं और सरसों जैसी अधिक मुनाफा देने वाली फसलों की ओर खुद को स्थानांतरित कर लिया है। इस साल सरसों की फसल लॉकडाउन लागू होने से पहले ही काटी जा चुकी थी। जहाँ कुछ किसानों ने फसल काटकर अपने घरों में उसके अनाज का भंडारण कर लिया था, वहीँ कई ऐसे भी हैं जिनके पास काटी हुई फसल से दाना अलग कर पाने का मौका नहीं मिल पाया है, जो अभी भी उनके खेतों में पड़े हुए हैं। इसके साथ ही अधिकतर किसानों को अपने सरसों की फसल को बाजार में बेच पाने का अवसर नहीं मिल सका है।

लाकडाउन की वजह से गेहूं की फसल खेतों में कटने के लिए तैयार है। हालांकि इसमें कुछ हफ्तों की देरी से गेहूं की फसल पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ने जा रहा, लेकिन इसमें हो रही देरी से छोटे किसानों के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं, जिन्हें अपने गुजारे के लिए या अपने कर्जे चुकाने के लिए पैसों की जरूरत है। वे असिंचित भूखंड जिनमें फ़िलहाल रबी की फसल नहीं बोई गई थी, ऐसे खेत किसानों द्वारा बाजरे और कपास की बुवाई के लिए तैयार किए जा रहे हैं।  उम्मीद है कि गाँव में इस काम के लिए किसानों को खेत मज़दूरों की जरूरत पड़ेगी।

आमतौर पर कुलोठ में मज़दूरों की आमद पडोसी जिले जोधपुर से और पूर्वी राज्यों जैसे के बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के प्रवासी मज़दूरों के जरिये होती रही है। हालाँकि नहीं लगता कि हर साल की तरह इस साल भी व्यापक स्तर पर प्रवासी मज़दूर गाँव पहुँच सकेंगे। इस बार गेहूं की कटाई के दौरान मज़दूरों की संभावित कमी (मज़दूरी की दर में वृद्धि की संभावना बनी हुई है) को लेकर ग्रामीण चिंतित हैं।

लॉकडाउन की घोषणा से पहले हनुमानगढ़ से कुलोठ पहुँच पाने में सिर्फ एक प्रवासी परिवार कामयाब हो सका था। यह परिवार पिछले कुछ वर्षों से इस सीजन में यहां काम करने के लिए आ रहा है, और तालाबंदी के दौरान गांव के सराय में इसे ठिकाना दिया गया है। यह परिवार खेतों में काम पर लगा हुआ है और अपनी मज़दूरी से गांव की दुकान से अपने दैनिक उपभोग की आवश्यक वस्तुएं खरीद पाने में सक्षम हैं।

हालाँकि कुलोठ में लॉकडाउन के चलते खेती-बाड़ी का काम बंद नहीं हुआ है, लेकिन आमतौर पर जो काम प्रवासी मज़दूर करते थे उसे अब स्थानीय मज़दूरों द्वारा संपन्न कराया जा रहा है। कुम्हार जाति से आने वाले एक अस्थाई मज़दूर से बात करने पर उसने बताया कि इस सीजन में गाँव के कई भूमिहीन मज़दूर हरियाणा जा चुके हैं, क्योंकि वहाँ पर निर्माण कार्य में जो मज़दूरी मिलती है वह गाँव में खेत मजूरी के रूप में मिलने वाले पारिश्रमिक से कहीं अधिक बैठती है।

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हालांकि आवाजाही पर लगी रोक के कारण स्थानीय मज़दूरों को जीवन निर्वाह के लिए गाँव के भीतर ही खेतिहर मज़दूर के तौर पर काम करना पड़ रहा है। जहाँ पूर्व में ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, मनरेगा के माध्यम से मिट्टी खोदने जैसे कुछ रोज़गार के अवसर उपलब्ध हो जाया करते थे, ऐसी तमाम योजनायें भी लॉकडाउन के बाद से ठप पड़ी हैं।

कुलोठ के दुग्ध उत्पादक घरों को भी लॉकडाउन के कारण दूध की मांग में गिरावट की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। लॉकडाउन से पहले गाँव में गाय का दूध 40-50 रुपये/ लीटर और भैंस का दूध 60-70 रुपये/ लीटर बिकता था। गाँव और आस-पास के इलाकों में जहाँ दूध की फुटकर बिक्री हो जाया करती थी, वहीँ बाकी का दूध अमूल और सरस जैसी सहकारी समितियों को बेच दिया जाता था, जिनके प्रतिनिधि दिन में दो बार दूध लेने आते थे। चूंकि लॉकडाउन के बाद से ही इनके प्रतिनिधि अब गाँव नहीं आते,  इसलिए दुग्ध उत्पादन से प्राप्त होने वाली साप्ताहिक नकदी भी रुक गई है, जिसमें मुख्य भागीदारी महिलाओं की थी। दूध की मांग में गिरावट की वजह से इन परिवारों की कमाई भी काफी कम रह गई है। हाल फिलहाल डेयरी से जुड़े ये किसान बचे हुए दूध का इस्तेमाल घी बनाने में कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि लॉकडाउन खत्म होने पर वे इसे बेचकर नुकसान की भरपाई कर पाने में सक्षम होंगे।

राज्य प्रशासन की ओर से (तहसीलदार, एसडीएम, पंचायत) प्रतिबंधों को लागू कराने के लिए गाँव की नियमित रूप से जाँच के लिए दौरा होता है, विशेष रूप से यह देखने के लिए कि कितनी दुकानें खोली जा रही हैं। प्याज जैसी आवश्यक खाद्य सामग्री की कीमतें कई गुना बढ़ चुकी हैं: लॉकडाउन से पहले एक किलो प्याज जहाँ 10-12 रुपये में उपलब्ध था, लॉकडाउन के बाद से इसकी कीमत बढ़कर 30-40 / किलोग्राम हो चुकी है। इसी तरह आलू की कीमत भी 15 रुपये किलो से बढ़कर 25 रुपये किलो हो चुकी है। बाकी की सब्जियां सीकर से माल की आपूर्ति बाधित होने के चलते बाजार से गायब हैं।

कुलोठ में कुछ मझौले और बड़े किसान अपने परिवार के खाने भर के लिए पालक, बैंगन, भिंडी, धनिया, मेथी, और प्याज जैसी सब्जियों की खेती करते हैं। लॉकडाउन के इस दौर में सिर्फ ये लोग ही अपने घरों में विभिन्न प्रकार की सब्जियों का उपभोग कर रहे हैं। बाकी परिवारों को सूखे पत्तों, स्थानीय झाड़ियों और पेड़ों (जैसे टीट और सांगरी) से फल और फलियों से गुजारा चलाना पड़ रहा है, या वे सिर्फ नमक और लाल मिर्च में रोटी खा रहे हैं।

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कोविड-19 की बीमारी से रोकथाम के लिए तहसीलदार के साथ एक नर्स और एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता टीम बनाकर दौरा कर रहे हैं और लोगों में इसके लक्षणों की पहचान करने में जुटे हैं। वे गाँव के लोगों के यात्रा इतिहास को भी दर्ज कर रहे हैं। जिन लोगों ने हाल ही में यात्रा की है उन्हें हिदायत दी गई है कि यदि उनमें कोविड-19 के कोई भी लक्षण नजर आते हैं तो इस बारे में अधिकारियों को तत्काल सूचित करें। उन्हें सख्त हिदायत दी गई है कि अगले 14-15 दिनों तक कहीं भी न आयें-जाएँ।

जो कोई भी दूसरे राज्यों से यात्रा कर गाँव में पहुँचे थे, उन्हें खुद को एकांतवास में रहने के लिए कहा गया है और इस बाबत  सूचनार्थ एक पोस्टर उनके घर के बाहर चस्पा कर दिया गया है। फिलवक्त क़रीब 25 परिवार ऐसे हैं जिन्होंने खुद को एकांतवास डाल रखा है। इस रिपोर्ट की प्रश्नावलियों के उत्तरदाताओं में से एक सज्जन ऐसे थे जिन्होंने खुद को एकांतवास में डाल रखा था,  क्योंकि वे असम से होकर आये थे। इनके परिवार वालों ने खाद्यान्न और अन्य जरूरत की चीजों का स्टॉक रख दिया था। घर के अंदर ही एक अलग कमरे में इन्हें बने रहने के लिए कह दिया गया था और एकांतवास को एहतियाती कदम मान लिया गया था।

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लॉकडाउन की वजह से गाँव में कई मूलभूत सुविधाएं हासिल कर पाना कठिन होती जा रही हैं। गांव में कोई बैंक भी नहीं है और ग्रामीणों को यदि नकदी की जरूरत पड़ती है तो इसके लिए उन्हें सूरजगढ़ तक की 15 किमी की यात्रा तय करनी होगी, जो सम्भव नहीं। नकदी के संकट के चलते अब लेन-देन के लिए नकद पैसे चुकाने की जगह चीजें या तो उधार में हासिल की जा रही हैं या आपस में वस्तु-विनिमय का सहारा लिया जा रहा है।

चिकित्सा सुविधाओं तक पहुँच का न बन पाना भी लोगों के लिए मुख्य चिंता बनी हुई है। गाँव में न तो कोई डॉक्टर ही मौजूद है और ना ही कोई चिकित्सा सुविधा ही उपलब्ध है। चिकित्सा सुविधाओं को यदि हासिल करना है तो आम तौर पर यहाँ के निवासी चिरावा, सूरजगढ़ या लोहारू का रुख करते हैं। हालांकि इस दौरान गाँव में स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई इमरजेंसी देखने को नहीं मिली है, लेकिन अगर इसकी जरूरत पड़ी भी तो लॉकडाउन की वजह से कोई परिवहन उपलब्ध नहीं होगा। जबसे लॉकडाउन लगाया गया है तभी से आंगनबाड़ियों को भी बंद कर दिया गया है और मध्यान्य भोजन भी नहीं दिया जा रहा है।

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संक्षेप में कहें तो कुलोठ में लॉकडाउन के कारण यदि कोई तबका सबसे अधिक प्रभावित हुआ है तो वे ग़रीब और भूमिहीन परिवार हैं। रोज़गार की तलाश में बाहर नहीं जा सकने की वजह से उनके पास खेतिहर मज़दूरी के रूप में काम करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा है। पशु पालन (विशेष रूप से दुधारू पशुओं के सन्दर्भ में) कुलोठ में महिलाओं की आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, लेकिन सहकारी डेरियों की ओर से दूध की खरीद में रुकावट की वजह से उनकी इस आय में नुकसान पहुँचा है। स्वास्थ्य सेवाएं, आंगनवाड़ी, मध्यान्य भोजन, परिवहन और बाजार जैसी बुनियादी सेवाओं तक पहुँच बना पाना पूरी तरह से बाधित हो रखा हैं। यदि लॉकडाउन आगे भी जारी रहता है तो इन व्यवधानों से होने वाले दुष्परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

लेखिका सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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