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ग्राउंड रिपोर्ट: किसानों के सामने ही ख़ाक हो गई उनकी मेहनत, उनकी फसलें, प्रशासन से नहीं मिल पाई पर्याप्त मदद

"हमारी ज़िंदगी ही खेती है। जब खेती बर्बाद होती है तो हमारी समूची ज़िंदगी तबाह हो जाती है। सिर्फ़ एक ज़िंदगी नहीं, समूचा परिवार तबाह हो जाता है। पक चुकी गेहूं की फसल की मडाई की तैयारी चल रही थी। आग लगी तो हमारी समूची फसल जलकर ख़ाक हो गई।"
up fire

49 वर्षीय मुन्ना की सूनी आंखों के आंसू सूख गए हैं। बची है तो सिर्फ आंसुओं की धुंध। वह धुंध जो किसानों की गेहूं की फसल में आग लगने से निकली थी। यह वाकया इसी पहली अप्रैल का है। दहकती गर्मी और हरहराती लू के बीच बरौझी के किसान प्रभात पटेल के गेहूं के खाली खेतों में कहीं से आग धधकी। पलक झपकते ही आग दावानल की तरह फैलती चली गई। 21 किसानों की करीब 50 बीघे में खड़ी गहूं की फसल खाक हो गई। इसी आग की भेंट चढ़ गया दलित मुन्ना के खेतों का पुआल भी।

आग से बचे भूसे की ढुलाई करते मुन्ना और उनके साथी

मुन्ना ने अपने पशुओं को खिलाने के लिए खलिहान में पुआल और भूंसे का ढेर लगा रखा था। उनके साथ दिनेश पटेल की पुरवट भी जल गई और करीब ढाई बीघा गेहूं भी। इनकी पुरवट से अभी तक धुआं निकल रहा है। आग से बचे हुए भूसे की ढुलाई कर रहे मुन्ना कहते हैं, "हमारी ज़िंदगी ही खेती है। जब खेती बर्बाद होती है तो हमारी समूची ज़िंदगी तबाह हो जाती है। सिर्फ एक जिंदगी नहीं, समूचा परिवार तबाह हो जाता है। पक चुकी गेहूं की फसल की मडाई की तैयारी चल रही थी। आग लगी तो हमारी समूची फसल जलकर खाक हो गई।" इतना कहते ही किसान मुन्ना का गला भारी हो जाता है और वो शांत हो जाते हैं।

उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के चकिया तहसील का गांव हैं बरौझी। इस गांव में अधिसंख्य आबादी पिछड़ों की है। यहां मुख्य रूप से धान, गेहूं और चने की खेती होती है। बरौझी से सटा कस्बा है सिकंदरपुर। दुनिया के क्रूर, निर्दयी और अहंकारी शासक सिकंदर की सेना जब मगध पर आक्रमण करने निकली थी, तब सिकंदरपुर में चंद्रप्रभा नदी के पास डेरा डाला था। सेना मगध पहुंची, लेकिन सिकंदर के हौसले पस्त हो गए और उसे लौटने पर मजबूर होना पड़ा था। पुराने इतिहास को समेटे सिकंदरपुर इलाके में दोपहरिया में आग बरस रही है। किसान अपनी फसलें काट लेना चाहते हैं, लेकिन श्रमिकों की किल्लत ने उनकी मुश्किलों को बढ़ा दिया है। 

सिकंदरपुर से सटा है बरौझी, भीषमपुर और बीकापुर का सीवान। इन गांवों के मध्यम और सीमांत किसान खेती से ही अपनी आजीविका चलाते हैं। 01 अप्रैल 2022 को प्रगतिशील किसान प्रभात सिंह पटेल के खेत से फैली आग पन्ना पाल, दिनेश पटेल, देशराज सिंह, नरेंद्र सिंह, भोला मौर्य, रामवृक्ष सिंह, लक्ष्मण यादव, संजय सिंह, बिरजू कन्नौजिया, अवनीश सिंह, शारदा श्रीवास्तव, ओमप्रकाश सिंह और घनश्याम आदि के खेतों में खड़ी गेहूं की फसल को खाक करती चली गई। बरौझी से करीब सात किमी दूर चकिया में दमकल की गाड़ियां मौजूद थीं, लेकिन मौके पर पहुंचने में उन्हें करीब दो घंटे लग गए। किसानों के मुताबिक, फायर ब्रिगेड की गाड़ियों में न तेल था और न ही आग बुझाने के लिए इस्तेमाल होने वाली कायदे की पाइप। जो पाइप थी वो टूटी हुई थी। दमकल गाड़ियां जब मौके पर पहुंची, उससे पहले ही आसपास के गांवों के सैकड़ों किसानों ने मिलकर आग बुझा दी। इससे पहले करीब 50 बीघे गेहूं की जल चुकी थी। 

अखिलेश के ट्वीट से मिला मुआवजा 

बरौझी गांव अचानक सुर्खियों में तब आया जब सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आग से धूं-धूकर जलते खेतों के पास खड़े होकर विलखते एक किसान और उसकी पत्नी का दर्दनाक वीडियो ट्वीट किया। इसके बाद योगी सरकार की नींद टूटी और नौकरशाही की भी। चकिया के विधायक कैलाश खरवार का गांव साड़ाडीह की सीमाएं भी बरौझी से जुड़ती हैं। प्रगतिशील किसान प्रभात पटेल कहते हैं, "पता नहीं कैसे पहुंची खेतों में चिनगारी। किस्मत अच्छी थी कि हमारी फसल कट चुकी थी। खेतों में सिर्फ गेहूं के ठूंठ बचे थे और वो जल गए। सागौन के कई पेड़ों को नुकसान पहुंचा है। हवा तेज थी, जिसके चलते आग तेजी से फैली। पास में नलकूप था, जो आग बुझाने के काम आया। खेतों के पास ही हमारे पुआल का ढेर था। आग पुआल तक पहुंची होती तो शायद बरौझी गांव का नामो-निशान मिट गया होता।" किसान दिनेश पटेल कहते हैं, "गेहूं की फसल पककर तैयार थी। प्रभात के बाद हमारी फसल काटी जानी थी, लेकिन वो जल गई। जिस फसल से हम गेहूं की उम्मीद कर रहे थे आज वो जलकर राख़ हो चुकी है। हम कैसे सब्र कर रहे हैं, हमीं जानते हैं।" 

अगलगी के बाद मौका मुआयना करते विधायक कैलाश खरवार के साथ डीएम संजीव सिंह

मुन्ना के साथ ट्राली से धान के भूसे की ढुलाई कर रहे लल्ला कहते हैं, "हमारे यहां एक बीघे में करीब 12 कुंतल गेहूं पैदा होता है। मड़ाई के बाद हम अनाज बेच देते हैं। उसी पैसे से गृहस्थी का सामान खरीदते हैं। खेती से हम केवल पेट पालते हैं। कोई नफ़ा (फायदा) तो होता नहीं है। सिर्फ एक बार की खेती में आधे से ज्यादा पूंजी लगी होती है। जो घर में था वो भी चला गया। इस बार गेहूं का रेट अच्छा है। उम्मीद बंधी कि खत्म हो जाएगा, लेकिन वो आस भी मिट गई।"

बरौझी के अश्वनी पटेल बताते हैं कि उनकी तीन बीघा फसल आग की भेंट चढ़ गई है। जिस समय खेतों में आग पहुंची, उस समय हम घर पर थे। खेत पर पहुंचते-पहुंचते हमारे गेहूं की समूची फसल जल गई। अच्छी किस्मत वाले थे कि हमारा गांव बच गया। अब खेतों में सिर्फ राख बची है और जले हुए गेहूं की राख हो चुकी बालियां, जिसे इन दिनों सुअर अपना निवाला बना रहे हैं। फिलहाल जो हो गया सो हो गया। अच्छी बात यह है कि सीएम योगी के निर्देश पर कलेक्टर संजीव सिंह बरौझी गांव में खुद आए और मुआवजा बांटा, लेकिन जितना नुकसान हुआ, मिला उससे बहुत कम।" दरअसल मुआवजा बांटने के लिए चंदौली के कलेक्टर संजीव सिंह दो अप्रैल 2022 को खुद बरौझी गांव में पहुंचे। साथ में इलाकाई विधायक कैलाश खरवार भी। किसानों ने एतराज जताया कि मुआवजा कम है। भविष्य में और मुआवजा देने की बात कहते हुए डीएम ने किसानों को शांत कराया। 

बरौझी गांव में अगलगी की घटना पर अखिलेश यादव के ट्वीट ने असर दिखाया और मुख्यमंत्री खेत खलिहान दुर्घटना लाभ योजना के तहत 21 किसानों को मुआवजा मिल गया। पूर्वांचल में तमाम गांव ऐसे हैं जहां के किसान मुआवजे के लिए सरकारी फरमान के इंतजार में बैठे हैं। बरौझी में अगलगी की घटना को लेकर सियासत भी गरमाने लगी है। इस गांव में अब नेताओं का जमघट लगना शुरू हो गया है। अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी का एक प्रतिनिधिमंडल बरौझी भेजने का ऐलान किया है। 

चंदौली के बरौली गांव में आग लगी के बाद किसानों को बांटे गए मुआवजे की सीट ऊंट के मुंह में जीरा की तरह

टूट रहे किसानों के सपने

पूर्वांचल में पहले मई महीने में अगलगी की घटनाएं होती थीं और इस बार अप्रैल महीना शुरू होते ही फसलें खाक होने लगी हैं। नंगी झुलसी चमड़ी पर सूरज का तापमान माप रहे किसानों के सपने टूट रहे हैं। पहली अप्रैल को पूर्वांचल में अगलगी की दो और बड़ी वारदातें हुईं। सिधार्थनगर के सिंहोरवा तिवारी और भदोखर गांव में करीब दो सौ बीघे में गेहूं की फ़सल जलकर ख़ाक हो गई। इसी दिन तीसरी घटना मिर्जापुर के मड़िहान इलाके में सिरसी बांध के डूब क्षेत्र में हुई। यहां करीब सौ बीघे गेहूं की फसल जल गई। आग की लपटें देख किसान सीना पीटने लग गए। दमकल गाड़ियों के पहुंचने से पहले खेतों में तैयार खड़ी गेंहू, चना, सरसो, जौ, अरहर आदि फसलें स्वाहा हो गईं। 

उत्तर प्रदेश में गर्मी की तपिश बढ़ने के साथ ही आग किसानों पर कहर बनकर टूटने लगी है। कहीं बिजली के तारों, ट्रांसफॉर्मर से निकली चिंगारी तो कहीं अज्ञात कारणों से गेहूं की फसल जलकर खाक होती जा रही है। एक हफ्ते के अंदर पूर्वांचल में अगलगी की कई और बड़ी वारदातें हुई हैं। संत कबीर नगर के धनघटा क्षेत्र के मड़पैना और मनझरी में करीब पांच सौ बीघा फसल जल गई। यहां भी फायर ब्रिगेड की गाड़ियां देर से पहुंचीं तो गुस्साए किसानों ने दमकल वालों को दौड़ा लिया। किसानों ने दमकल की गाड़ी को पूरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया। आजमगढ़ और अंबेडकर नगर की सीमा पर स्थित कादीपुर गांव में गरीब मजदूरों की आधा दर्जन मड़इयां जल गईं। सिद्धार्थनगर जिले के बांसी कोतवाली के बभनी और सूपा बक्शी के सीवान में गेहूं के खेतों में भीषण आग लग गई। जौनपुर में खुटहन थाना के शाहपुर शानी गांव में आग ने 20 छप्पर सहित गृहस्थी का सारा सामान जलाकर राख कर दिया। गांव वालों ने दमकल की मदद से दो घंटे तक कड़ी मशक्कत के बाद आग पर काबू पाया। प्रतापगढ़ में हथिगवा थाना क्षेत्र के खिदिरपुर गांव में गेहू के खेत में आग लग गई, जिसमें 10 बीघा में फसल जलकर राख हो गई। घंटों बीतने के बाद भी यहां फायर ब्रिगेड की गाड़ियां नहीं पहुंचीं। 

चंदौली जिले के नौगढ़ के जयमोहनी रेंज के भुर्तिया गांव में आग लगने से रामचंद्र और सीताराम की गृहस्थी जलकर खाक हो गई। इनके घर के पास श्रीनाथ गोविंद और रामचंद्र के खलिहान में दस बीघे की पुरवट भी जल गई। दूसरी ओर, बाराबंकी के करुवा गांव में खेत में आग लगने से कई किसानों का करीब तीस बीघे में खड़ी गेहूं की फसल जल गई। दोनों घटनाएं तीन अप्रैल 2022 को हुईं। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ रही है तो अगलगी की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। 

लाचार हैं लपटों के लड़ाके

चंदौली के वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "यूपी में अग्नि एक्ट पूरी तरह अधिनियमित नहीं है। इस राज्य में प्रशिक्षित अग्नि-शमन कर्मचारी 46 फीसदी से भी कम है। समस्या की जड़ें गांवों के विकास से जुड़े बेतरतीब ढांचे में निहित हैं। पहला तो यह कि जितनी भी सरकारी योजनाएँ हैं वो गांव का विकास शहरों की तर्ज़ पर किए जाने की वकालत करती हैं। हमारा फायर ब्रिगेड सिस्टम आगजनी की दशा में घटनास्थल तक तभी पहुंचता है जब सब कुछ ख़ाक हो चुका होता है। आग के नाम पर बुझाने को बचती है तो सिर्फ गर्म राख। पानी और आग हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में हमेशा परेशानी का सबब रहे हैं। राज्य सरकार बाढ़ और सूखे पर ज्यादा ध्यान देती है, लेकिन आग से होने वाले नुकसान पर उतना धयान नहीं देती। हर साल हजारों किसान आगजनी की चपेट में अपना सब कुछ खो देते हैं।"

"अगलगी का प्रकोप मार्च से लेकर जून तक कुछ अधिक ही होता है और सबसे ज्यादा प्रभावित होती है गेहूं की फसल। हर साल हजारों एकड़ गेहूं की फसल खेत में ही आग में ख़ाक हो जाती है। संसाधनों की बुरी हालत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यूपी के कई जिलों में सिर्फ मुख्यालयों पर ही अग्निशमन केंद्र हैं। जहां हैं भी वहां भी सिर्फ एक या दो अग्निशमन दल और दमकल की गाड़ियां हैं। चंदौली के चकिया इलाके का हाल अजीब है। जंगली इलाका होने के बावजूद यहां दमकल महकमे के पास खटारा गड़िया हैं। यह स्थिति तब है जब समीपवर्ती चकिया और नौगढ़ के जंगलों में हर साल आग लगती है और करोड़ों के कीमती पेड़ राख में तब्दील हो जाते हैं। दमकल गाड़ियों के हालात का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लपटों के लड़ाकों को मौके पर पहुंचने में घंटों लग जाते हैं। इतनी देर में आग अपना काम कर चुकी होती है। तमाम गांवों में सड़कों की स्थिति भी अच्छी नहीं है, जिससे मदद जल्दी पहुंचाई जा सके।" 

राजीव कहते हैं, "आग से निपटने के लिए विभागों के पास जो उपकरण हैं वो खासे पुराने हैं। गाड़ियां तो ऐसी हैं कि अब उन्हें विंटेज रैलियों में शामिल किया जाने लगा है। कर्मचारियों में आपदा प्रबंधन की दक्षता का अभाव साफ़-साफ झलकता है। ऐसे तमाम कारण हैं जो आग से होने वाले नुकसान को कई गुना तक बढ़ा देते हैं। अगलगी की मार खासतौर उन गरीब किसानों को ज्यादा झेलनी पड़ती है जिनके पास कुछ भी नहीं बचता। उसकी जमा पूंजी और निवेश सब स्वाहा हो जाता है।किसी तरह से कोई जनहानि न भी हुई तो भी किसान की कमर टूट जाती है। ऐसा देखने में आया है अगलगी का घटनाओं में सबसे अधिक शिकार मवेशी होते हैं। ये मवेशी किसानों के लिए एक निवेश की तरह होते हैं। जो उन्हें कुछ आय भी देते हैं और बेचने पर जमा पूंजी भी निकलती हैं। फसल और मवेशियों का बीमा कराने की जागरूकता  पूर्वांचल के किसानों में अभी तक नहीं आई है। इसलिए आग लगने पर इसकी भरपाई नहीं हो पाती है। सरकार भी तभी चिंतित होती है जब आग लगने की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बनती हैं।" 

शहर बने 'हीट आइलैंड'

गर्मी के साथ अगलगी की बढ़ती घटनाओं से चिंतित पूर्वांचल के जाने-माने किसान नेता चौधरी राजेंद्र सिंह कहते हैं, "गांव के ज्यादातर युवा काम की तलाश में बड़े शहरों अथवा दूसरे राज्यों में चले गए हैं। अब मैंने अपने भाई, प्यार दोस्तों और भरोसेमंद पड़ोसियों को गंवा दिया। खासतौर पर वो दोस्त जो मेरे साथ सब कुछ साझा करते थे। मेरी हंसी भी और ठिठोली भी। दुख भी और सुख भी। मगर अब मेरे साथ कोई कुछ नहीं बांटता। अब मैं हूं, मेरा मोबाइल फोन और कुछ खाली ज़मीन है। बनारस शहर में भी लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि पहले ऐसी गर्मी नहीं होती थी। अप्रैल के पहले पखवारे में तापमान 42 डिग्री के करीब पहुंच गया है। साल 1901 के बाद 2018 में सबसे ज़्यादा गर्मी पड़ी थी, लेकिन पारा मई-जून में बढ़ा था। इस बार मार्च के दूसरे पखवारे में ही तपन की तल्खी अपना तेवर दिखा रही है। लगता है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते गरमी की भयावहता बढ़ती जा रही है। सिमटती हरियाली, जंगलों के चीरहरण के साथ बढ़ती इमारतों की तादाद और पक्की सड़कों के विस्तार ने बढ़ते तापमान को रफ्तार दिया है। बनारस की जो गलियां गर्मी के दिनों में शिमले का मजा देती थीं, वहां भी हरहराजी लू के थपेड़े चलने लगे हैं। पूर्वांचल के शहरों को अब 'हीट आइलैंड' कहा जाने लगा है।"

वाराणसी के प्रगतिशील किसान पद्मश्री चंद्रशेखर सिंह कहते हैं, "ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी–छोटी लापरवाही जान-माल पर भारी पड़ जाती है। लोग हुक्का, चिलम या बीड़ी पीकर बिना बुझे ही छोड़ देते हैं। फिर वही चिंगारी भयंकर आग का रूप धारण कर लेती है। ध्यान देने की बात यह है कि आग लगने पर आपातकाल स्थिति में पैनिक होने की कतई जरूरत नहीं है। खेत अथवा मकान में आग लगने पर तुरंत फायर ब्रिगेड की सेवा के लिए 101 नंबर पर संपर्क करें। साथ ही खुद भी आग पर काबू पाने का प्रयास करें। रेत, मिट्टी या बाल्टी से पानी ऊपर डालकर आग को फैलने से रोका जा सकता है। ख्याल रखें कि शरीर के जले हिस्से पर चिपकी हुई किसी चीज को हाथ से न हटाएं। रोगी को कंबल में लपेट कर एंबुलेंस की मदद से अस्पताल पहुंचाने की कोशिश करें।" 

बरौझी गांव में यूं फैली आग

कम आ रहे पश्चिमी विच्छोभ

बनारस काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भू-भौतिकी विभाग के पूर्व प्रोफेसर सुरेंद्र नाथ पांडेय कहते हैं, "गरमी अचानक नहीं, धीरे-धीरे बढ़ रही है। बनारस में 27 मार्च 2010 को 42.4 डिग्री और 30 मार्च 2021 को 41.4 थी। इस बार गरमी का बढ़ना कोई अस्वाभिक बात नहीं है। ऐसी गरमी हमेशा से रही है। अभी ट्रेंड देखिए तो तापमान गिरा हुआ है। पहली अप्रैल को 41.4 डिग्री टेंपरेचर था, जो तीन अप्रैल को गिर गया। किसानों को इस बात की चिंता ज्यादा है कि ऐसा ही टेंपरेचर बरकरार रह गया तब क्या होगा? गरमी बढ़ने का बड़ा कारण है कि पश्चिमी विच्छोभ की संख्या कम होना। हाल के सालों में आसपास के जंगलों का दायरा सिकुड़ा है। पेड़ों का अवैध पातन बढ़ गया है। शहरों में बढ़ते निर्माण कार्यों और उसके बदलते स्वरूप के चलते हवा की गति में कमी आई है। हरियाली वाले क्षेत्र कम हो रहे हैं। टार की सड़कों का विस्तार हो रहा है। यही वजह है कि तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है।" 

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, "हाल के कुछ सालों में शहरों के अधिकतम तापमान में वृद्धि हुई है। तारकोल की सड़कें और कंक्रीट की इमारतें ऊष्मा को अपने अंदर सोखती हैं और उसे दोपहर व रात में छोड़ती हैं। नए शहरों के तापमान तेजी से बढ़ रहे हैं। पहले से बसे महानगरों की तुलना में ये ज़्यादा तेज़ी से गरम हो रहे हैं। अस्सी के दशक के बाद से हर एक साल के उन बेहद गर्म दिनों की संख्या, जब तापमान 50 सेंटीग्रेड तक पहुंच जाता है, दोगुनी हो चुकी है। 

पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बड़े इलाके में तापमान इस स्तर तक पहुंचने लगा है। यह स्थिति इंसानों की सेहत और जीने के तरीके को लेकर अभूतपूर्व चुनौती पेश कर रही है। साल 1980 के बाद से हर दशक में 50 सेंटीग्रेड से ज़्यादा तापमान वाले दिनों की संख्या बढ़ी है। साल 1980 से 2009 के बीच औसतन हर साल ऐसे करीब 14 दिन रहे हैं, जब तापमान 50 के पार गया हो। साल 2010 से 2019 के बीच ऐसे दिनों की संख्या बढ़कर 26 हो गई। इसी दौरान 45 सेंटीग्रेड या उससे ज़्यादा तापमान वाले दिनों की संख्या सालान दो हफ़्ते ज़्यादा रही। 

तौर-तरीका बदले की जरूरत 

बीएचयू के जियोफिजिक्स विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा.सत्य प्रकाश मौर्य कहते हैं, "शहरों में बढ़ते तापमान को लोग ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ कर देखते हैं। लेकिन इसके लिए सिर्फ़ वह ही ज़िम्मेदार नहीं है। तापमान को देखने से पहले हमें हवा के रुख को भी देखना चाहिए। अगर हवा राजस्थान की तरफ से आ रही है तो ज़ाहिर सी बात है ये ज़्यादा गर्म होगी। अगर तूफान की दिशा बदल जाती है तो शहरों का तापमान भी बदल जाता है। जैसे की इन दिनों फणी चक्रवात की वजह से उत्तर और मध्य भारत के शहरों का तापमान बदला है। कुछ जगहों पर इसके चलते बारिश भी हुई है।" 

डॉ. सत्यप्रकाश एक उदाहरण से समझाते हैं कि मुंबई और पुणे के बीच कई शहर बस गए हैं, जहां बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी गई हैं। पहले समुद्री हवाएं बिना रोक-टोक के मुंबई से पुणे पहुंच जाती थीं, लेकिन अब उनकी दिशा बदल गई है। गर्मी के मौसम में मध्य भारत में बसे शहरों का तापमान बढ़ना आम है। गरमी आते ही लू लगने से मौत की ख़बरें आनी शुरू हो जाती हैं। इसके दोषी हम सब हैं। डॉ. सत्यप्रकाश कहते हैं, "हमें बदलते मौसम के अनुसार अपना खाना-पीना और कपड़े पहनने का तरीका बदलने की ज़रूरत है। आग लगने के हादसे इसलिए भी होते हैं, क्योंकि हम अपनी ज़िंदगी में ज़रूरी बदलाव नहीं करते। राजस्थान में अमूमन तामपान 45 डिग्री से ज्यादा होता है, लेकिन लेकिन वहां लोग ज्यादा पानी पीते हैं और सिर ढंके बिना बाहर भी नहीं निकलते। खेतों की देखरेख व्यवस्थित तरीके से करते हैं। पूर्वांचल के लोगों को उनसे सीखना चाहिए। पूरी दुनिया आगाह कर रही है कि आने वाले दिनों में अधिक तापमान वाले दिन आम हो सकते हैं। ज़्यादा गर्मी इंसानों और प्रकृति के लिए जानलेवा हो सकती है। इसकी वजह से इमारतों, सड़कों और पावर सिस्टम में भी बड़ी दिक्कतें आ सकती हैं।"

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