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अर्थव्यवस्था और विकास के सरकारी दावे बेबुनियाद व अविश्वसनीय

आर्थिक वृद्धि सरकारी दावों के मुताबिक़ होती तो पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण के बावजूद भी मेहनतकश जनता के जीवन में कुछ हद तक तो ज़रूर सुधार दिखाई पड़ता। 
Economy

नरेंद्र मोदी सरकार के 9 साल पूरे होने के बाद से आर्थिक वृद्धि के बड़े-बड़े दावों की फिर से एक बाढ़ जैसी आ गई है। जैसे-जैसे 2024 का आम चुनाव नजदीक आ रहा है यह दावे लगातार पहले से भी बड़े और ऊंचे होते जा रहे हैं। 5 ट्रिलियन से 25 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था की बातें उछाली जा रही हैं। बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हुई विश्व की सबसे तीव्र आर्थिक वृद्धि से भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और कुछ समय में यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। मौजूदा भारतीय मीडिया जगत का अधिकांश हिस्सा इन दावों को बिना किसी प्रश्न या जांच पड़ताल के स्वयंसिद्ध सत्य की तरह परोस रहा है। 

किंतु अगर कोई गंभीर आर्थिक विशेषज्ञ इन दावों को प्रमाणित करने को कहे तो सरकार और उसके आर्थिक व सांख्यिकीय विशेषज्ञों द्वारा ऐसा नहीं किया जा सकेगा। सरकारी सांख्यिकी संस्थानों के आंकड़ों का अध्ययन बताता है कि इनमें से अधिकांश दावे बेबुनियाद हैं अर्थात सरकारी विभागों व संस्थानों के आंकड़े ही इनकी पुष्टि नहीं करते या जिन तथ्यों को आधार बनाकर ये ऊंचे दावे किए जा रहे हैं वे दशकों पुराने तथ्य हैं। तब से भारतीय अर्थव्यवस्था के चरित्र और संघटन में भारी अंतर आ चुका है। अतः इनके आधार पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और उसमें होने वाली आर्थिक वृद्धि दर की गणना पर कोई गंभीर आर्थिक विशेषज्ञ भरोसा नहीं कर सकता। जीडीपी ही नहीं, रोजगार, महंगाई, प्रति व्यक्ति आय, आदि सभी आंकड़ों की स्थिति ऐसी ही अविश्वसनीय व निराधार है। 

अन्य विवरण के पहले हम जीडीपी आंकड़ों की गणना पद्धति व पुराने तथ्यों की वजह से उसमें पड़ने वाले बेहद भारी अंतर को एक उदाहरण से समझ लेते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था का आधे से अधिक हिस्सा अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र में रहा है। इसमें कृषि ही नहीं, विनिर्माण व सेवा क्षेत्र के बडे भाग भी शामिल है। इसे अनौपचारिक कहते ही इस नाते हैं क्योंकि इसके कोई खाते व आंकड़े उपलब्ध ही नहीं होते। अतः जीडीपी की गणना करते समय इस हिस्से को अनुमान के आधार पर ही जोड़ना होता है। यह अनुमान लगाने की पद्धति में गलती से इनमें भारी अंतर संभव है। अतः इस पद्धति का तार्किक व पारदर्शी होना आवश्यक है जिसे स्वतंत्र अध्येताओं द्वारा भी परखा व प्रमाणित किया जा सके।

जहां तक औपचारिक क्षेत्र का सवाल है उसके उत्पादन के आंकड़े पहले उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण से प्राप्त होते थे। आजकल ये कंपनियों द्वारा की गई ऑनलाइन रिपोर्ट के लिए बनाए गए एमसीए21 डाटाबेस से प्राप्त होते हैं। इससे औपचारिक क्षेत्र के आंकड़े मिलने की गति तो तीव्र हुई है, पर इसमें निष्क्रिय कंपनियों की भरमार की समस्या भी है जिनके कुछ साल पहले दी गई जानकारी के आधार पर ही उनके वर्तमान प्रदर्शन का अनुमान लगाया जा रहा है। पर यहां हम उससे भी अधिक महत्वपूर्ण औपचारिक अनौपचारिक क्षेत्रों के आंकड़ों को मिलाकर की जाने वाली जीडीपी गणना की समस्या पर ही चर्चा तक सीमित रहेंगे। अतः सकल जीडीपी डाटा पर पहुंचने में औपचारिक व अनौपचारिक क्षेत्रों का योग कैसे किया जाता है इसको एक उदाहरण से समझना जरूरी है। 

हम मोदी सरकार द्वारा जीडीपी गणना हेतु 2015 में शुरू नई नेशनल अकाउंट्स स्टेटिस्टिक्स सीरीज को लेते हैं जिसका आधार वर्ष 2011-12 है। इसके अनुसार 2011-12 में कुल सालाना मूल्य वर्द्धन (ग्रोस वैल्यू एडेड) का औपचारिक-अनौपचारिक हिस्सा क्रमशः 46.1 व 53.9% था। 2016-17 में यह क्रमशः 47.3 व 52.7% तथा 2017-18 में क्रमशः 47.6 व 52.4% हो गया। इसका अर्थ हुआ कि अगर वर्ष 2011-12 में औपचारिक क्षेत्र में कुल उत्पादन 100 रुपया हुआ तो इसमें अनौपचारिक क्षेत्र का योगदान 116.92 रुपया जोड़कर कुल जीडीपी 216.92 रुपया बनी। इसी तरह 100 रुपया औपचारिक उत्पादन में अनौपचारिक क्षेत्र का योगदान 2016-17 में 111.42 रुपया और 2017-18 में मात्र 110.08 रुपया जोड़ा गया अर्थात अर्थव्यवस्था में औपचारिक क्षेत्र का भाग जितना बढ़ता जाता है, उसमें जुडने वाला अनौपचारिक क्षेत्र का योगदान घटता जाता है। 

निश्चय ही अनुमान होने के कारण इसमें गलतियां पहले भी होती थीं। लेकिन समय-समय पर अनौपचारिक क्षेत्र अर्थात गैर कंपनी व्यवसायों का राष्ट्रीय सर्वेक्षण कराकर इन अनुमानों/आंकड़ों को जांच व सही कर लिया जाता था। साथ ही नियमित आर्थिक जनगणना, उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण व रोजगार सर्वेक्षण आदि भी सांख्यिकीय गणनाओं को प्रमाणित करने में काफी हद तक मदद करते थे। किंतु मोदी सरकार ने इन सब सर्वेक्षणों की प्रक्रिया को ठप कर दिया है। गैर कंपनी व्यवसाय सर्वेक्षण 13 साल से नहीं हुआ है। आर्थिक जनगणना 9 साल से नहीं हुई है। उपभोक्ता व्यय व रोजगार सर्वेक्षण 12 साल पहले हुए थे। उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण इसके 5 साल बाद 2015-16 में भी हुआ था। मगर उसके परिणामों ने सरकारी दावों के विपरीत आय व गरीबी की ऐसी खराब तस्वीर पेश की कि सरकार ने अपने ही सर्वेक्षण को रद्द कर इसके आंकड़े जारी करने से इंकार कर दिया। 

यहां ऊपर दिए गए 2011-12 से 2017-18 के आंकड़ों के आधार पर कोई कह सकता है कि औपचारिक-अनौपचारिक क्षेत्र के आंकड़ों में परिवर्तन बहुत धीमा होता है, अतः इस कारण जीडीपी के आंकड़ों में बड़ी गलती नहीं हो सकती। परंतु यहीं हमें पिछले 7 साल के आर्थिक घटनाक्रम और तत्संबंधी सरकारी दावों पर गौर करना चाहिए। इस दौरान नोटबंदी, जीएसटी, डिजिटल-कैशलेस, कोविड लॉकडाऊन, आदि व्यापक आर्थिक महत्व की घटनाएं हुईं हैं। सरकारी दावा है कि यह सब उसने अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने के लिए किया है। इसमें बड़ी सफलता का दावा करते हुए सरकार प्रमाण बतौर जीएसटी वसूली की रकम में तेज वृद्धि के आंकड़े पेश करती है। 

अतः अर्थव्यवस्था में औपचारिक-अनौपचारिक क्षेत्र के अनुपात के अनुमान में गलती जीडीपी के आंकड़ों में भारी फेर बदल करने में सक्षम है। यह फेर बदल कितना हो सकता है इसके लिए हम एक ओर तो मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के बड़े प्रशंसक एसबीआई के प्रधान अर्थशास्त्री सौम्यकांति घोष (खुद नरेंद्र मोदी उनके निष्कर्षों को उद्धृत कर चुके हैं) द्वारा प्रस्तुत अनुमान को लेते हैं। घोष के मुताबिक 2017-18 के पश्चात 3 सालों में औपचारिकीकरण की प्रक्रिया बेहद तीव्र हुई है जिससे 2020-21 में अनौपचारिक क्षेत्र अत्यंत तेजी से घटकर अर्थव्यवस्था का मात्र 15-20% ही रह गया है। इसके विपरीत लंदन स्थित वैश्विक अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले वर्ल्ड इकॉनेमिक्स संस्थान के अनुमानानुसार यह 2023 में भी 43.1% के स्तर पर है। 

इन दो विपरीत अनुमानों के आधार पर जीडीपी गणना में बहुत बड़ा फर्क पड़ जाता है। वर्ल्ड इकॉनेमिक्स के अनुमान को लें तो औपचारिक क्षेत्र की 100 रुपया जीडीपी में अनौपचारिक क्षेत्र का योगदान (73.17 रुपया) जोड़ने पर कुल जीडीपी 173.14 रुपया बनता है। वहीं, घोष के अनुमान के निचले सिरे 15% को लें तो यह 117.65 रुपया बनेगा एवं ऊपरी स्तर 20% को सही मानें तो कुल जीडीपी 125 रुपया होगा। अर्थात अनौपचारिक क्षेत्र के दोनों विपरीत अनुमानों पर गणित जीडीपी में कुल 47% का अंतर पड़ जाएगा। घोष के अनुमान के आधार पर जीडीपी गणना की जाए तो कुल जीडीपी आधिकारिक आंकड़ों से बहुत कम निकलेगी अर्थात नकारात्मक वृद्धि सिर्फ लॉकडाउन के समय ही नहीं हुई, उसके बाद भी हुई है। 

इससे हम समझ सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक-औपचारिक क्षेत्र के तथ्यात्मक आंकड़ों के अभाव में दुनिया भर के अर्थ विशेषज्ञों व सांख्यिकीविदों की नजर में जीडीपी के वर्तमान दौर में जारी किए जा रहे आंकड़ों की विश्वसनीयता अत्यंत संदिग्ध है। यह संदेह तब तक दूर नहीं होगा जब तक सरकार पारदर्शी पद्धति से सर्वेक्षणों द्वारा आर्थिक गतिविधि के तथ्यों को प्रस्तुत नहीं करती।           

ऊपर हमने कुछ सर्वेक्षणों के पुराने होने के उदाहरण दिए। इसी तरह आर्थिक गणनाओं में प्रयोग होने वाले कुछ और आंकड़ों पर नजर डालें तो जनसंख्या की गणना 2011 में हुई थी। राष्ट्रीय औद्योगिक वर्गीकरण जिनके आधार पर बहुत से आंकड़े गणित किए जाते हैं वे एनआईसी कोड्स 2008 के हैं। किस माल के उत्पादन में क्या अव्यव कितनी मात्रा में प्रयोग होते हैं इसकी इनपुट-आउट्पुट सारणियां 15 साल पुरानी हैं जबकि इस बीच औद्योगिक उत्पादन तकनीक में काफी अंतर आए हैं। थोक व खुदरा महंगाई सूचकांक गणना के लिये प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं की सूचियां 12 साल पुरानी हैं जबकि हम जानते हैं कि इस बीच उपभोग्य वस्तुओं में काफी अंतर आया है। उदाहरण के तौर पर निजी स्कूल, ट्यूशन-कोचिंग, निजी अस्पतालों के प्रयोग की मजबूरी ही नहीं बढ़ी है, ये सब बहुत तेजी से महंगे भी हुए हैं। परंतु इन व अन्य ऐसी बढते उपभोग वाली वस्तुओं (जैसे पेट्रोल, डीजल, गैस) की महंगाई को सूचकांक की गणना में समुचित वजन नहीं दिया गया है। किंतु उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण ही 12 साल पुराना है तो मूल्यवृद्धि सूचकांक का आधार भी पुराना ही रहने वाला है।   

एक और महत्वपूर्ण उदाहरण 12 साल पुराने आधार वाला औद्योगिक उत्पादन सूचकांक है जबकि इस दौर में अहम औद्योगिक परिवर्तन हुए हैं। किंतु यह सूचकांक जीडीपी वृद्धि के आंकड़ों से कोई मेल ही नहीं दिखा रहा है। अगर 2016 से 2023 के 7 सालों के आंकड़े देखें तो इसके वर्गीकरण के अनुसार 23 औद्योगिक क्षेत्रों में से 12 में उत्पादन गिरा है। ये क्षेत्र कोई पुराने औद्योगिक क्षेत्र ही नहीं हैं जिन्हें माना जा सके कि ये अब उतार की ओर हैं। इनमें इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिकल्स, धातु, पूंजीगत वस्तुओं जैसे अहम औद्योगिक क्षेत्र शामिल हैं। अगर इन 12 क्षेत्रों में उत्पादन गिरा है तो आर्थिक वृद्धि तीव्र होने के दावे कितने विश्वसनीय माने जा सकते हैं?

स्पष्ट है कि मोदी सरकार तीव्र आर्थिक वृद्धि के जो दावे कर रही है उन्हें पारदर्शी आंकड़ों के साथ प्रमाणित करने का कोई आधार ही मौजूद नहीं है। अतः आर्थिक वृद्धि दर की विश्वसनीयता पर कोई गंभीर टिप्पणी ही नहीं की जा सकती है। यही वजह है कि एक और तीव्र आर्थिक वृद्धि के सरकारी दावे हैं जिनका दूसरी ओर अधिकांश जनता के जीवन में कोई सकारात्मक प्रभाव ही दिखाई नहीं पड़ रहा है। अगर आर्थिक वृद्धि सरकारी दावों के मुताबिक होती तो पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण के बावजूद भी मेहनतकश जनता के जीवन में कुछ हद तक तो जरूर सुधार दिखाई पड़ता। मगर पूरे देश में मेहनतकश जनता का कटु तजुर्बा है कि आय व रोजगार घट रहे हैं, बेरोजगारी व महंगाई बढ़ रहे हैं और जिंदगी पहले से बदतर होती जा रही है। 

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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