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ग्राउंड रिपोर्ट : पूर्वांचल में बारिश के इंतज़ार में पथराई किसानों की आंखें, यूपी के 31 ज़िलों में सूखे के आसार

"पूर्वांचल अपने इतिहास के सबसे भीषण सूखे की चपेट में है। भले ही बहुतों को इस बात का अंदाज़ा न हो, लेकिन हमें है। साल 1901 में देश ने इस तरह का अकाल झेला था। उन दिनों बहुत ज़्यादा मौतें हुई थीं। हम उसी तरफ़ बढ़ रहे हैं।"
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धान के खेतों में पड़ी दरारें

उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके में बारिश के दिनों में आमतौर पर सभी नदियां पानी से लबालब रहती रहा करती थीं, लेकिन इस बार हालात बिल्कुल अलग हैं। बरसाती नदियों के भरोसे खेती-किसानी करने वाले लोग मुश्किल में हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में बादलों ने धरती के साथ जो बेरुखी बरती है उसकी छाया सूखे और अकाल की शक्ल में उभरी है। स्थितियां ऐसी हो गई हैं जैसे यह इलाका भारी सूखे की जद में आ गया है। सबसे चिंताजनक स्थिति चंदौली की है जहां यूपी में अब तक सबसे कम बारिश हुई है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज्यादतर इलाकों में मानक के मुकाबले एक तिहाई बारिश भी नहीं हो सकी है।  नतीजतन सूखे से दरकी हुई धरती और झुलसे हुए सपनों ने सालों से खेती कर रहे किसानों को उजाड़ सा दिया है। खेती से जीवनयापन करने वाली औरतें अपना घर चलाने के लिए जद्दोजहद कर रही हैं तो उनके पति काम की तलाश में शहरों में खो गए हैं। सन्नाटे में डूबे उनके पुश्तैनी मकान और भूख से बेहाल उनके मवेशी सवालिया निशान बनते जा रहे हैं। मानसून की बेरुखी से हाहाकार मचा हुआ है और किसानों के हालात बेहद नाजुक हैं। सर्वघाती सूखे को अपनी नियति मानकर चुप बैठे किसानों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि उनकी जिंदगी की नाव कैसे पार लगेगी?

चंदौली ज़िले के नौगढ़ ब्लॉक मुख्यालय से क़रीब 21 किमी दूर घनघोर जंगलों के बीच बसा है एक छोटा सा गांव पंडी। चौतरफा पहाड़ियों से घिरे इस गांव में खरवार आदिवासियों के डेरे हैं। बारिश नहीं होने की वजह से यहां रहने वाले लोगों की जिंदगी पहाड़ बन गई है। तपती दोपहरी और अकाल जैसी स्थिति के चलते पंडी गांव के लोग एक पेड़ के नीचे बैठकर मौजूदा हालात से उबरने पर मंत्रणा कर रहे थे। मझोले किसान महेंद्र, जितेंद्र, छोटेलाल, अमेरिका, रामसेवक, अमित और रिकेश ने कहा, "हुजूर, दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाना मुश्किल हो गया है। हम कैसे जिंदा हैं, हमारे दुखों का राग सुनने कोई नहीं आ रहा है। हमारी चिंता न सरकार को है, न अफसरों को। सारे खेत सूखे पड़े हैं। अब धान की रोपाई और खरीफ की फसलों की बुआई की कोई उम्मीद नहीं बची है।"

पंडी गांव में एक घर के पिछवाड़े अपने खेत में घास-फूस निकाल रहीं 60 वर्षीया श्यामदेयी से मुलाकात हुई तो वह अपना दुखड़ा सुनाने लगीं। सूखे खेत और पानी ढोती औरतों को दिखाते हुए श्यामदेयी ने कहा, "हमने अपनी जिंदगी में ऐसे हालात कभी नहीं देखे थे। पहले बारिश कम जरूर होती थी, लेकिन इस बार हालात बहुत ज्यादा खराब है। पिछले एक पखवाड़े से आसमान से एक बूंद पानी नहीं टपका है। फसल बोने की नौबत ही नहीं आई। किसान कैसे जिंदा बचेंगे? सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए।"

अपने खपरैल के मकान के बाहर सिर पर हाथ रखे उदास बैठीं रजवंती (45) आसमान निहारते हुए कहती हैं, "जब से होश संभाला है तब से आज तक मानसून की ऐसी बेरुखी कभी नहीं देखी थी। औरतों और बच्चों का आधा दिन पीने के पानी का इंतजाम करने में ही गुजर रहा है। सरकार ने अकाल घोषित नहीं किया तो हम क्या करेंगे?  किसान कैसे जिंदा रहेंगे? पीने के पानी का इंतजाम करें या अपना पेट पालें?"

बंजर पड़ी है हजारों बीघा ज़मीन 

यूपी में धान का कटोरा कहे जाने वाले चकिया (चंदौली) इलाके के मशहूर भभौरा गांव में सैकड़ों बीघा जमीन परती पड़ी हुई है। यह गांव देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का है। सिंचाई का इंतजाम न होने के कारण भभौरा में खरीफ की फसलें नहीं बोई जा सकी हैं। कुशही, करवंदिया, बलिया कला, बलिया खुर्द, शिकारगंज, बोदलपुर, मुड़हुआ, पण्डी, जोगिया कला, दायुदपुर, गायघाट, बोदलपुर, अलिपुर भंगड़ा,  गणेशपुर, पिपडखडिया, रामपुर सहित दर्जनों गांव सूखे के चपेट में हैं। बलिया खुर्द के किसान विमलेश मौर्य और संतोष कहते हैं, "मानसून के न होने से किसान मुश्किल में हैं। हम बहुत परेशान हैं। बिचड़ा (नर्सरी) पड़ने के दो महीने बाद बाद रोपनी हुई, लेकिन खेत सूखते जा रहे हैं। पता नहीं कब बारिश होगी। फसल बच पाएगी या नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता है। बिजली मिल रही है, ट्यूबवेल नहीं चल पा रहे हैं क्योंकि पानी पाताल में चला गया है। नदी में पानी नहीं है तो नहर भी नहीं चल पा रही है। जहां जमीन थोड़ा नीचे है वहां पानी है, लेकिन बाकी जगहों पर भारी दिक्कत है। पिछले कुछ सालों के मुकाबले अबकी किसानों की मुश्किलें बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं।"

विमलेश मौर्य 

बलिया कला के किसान अमर बहादुर चौहान अपने सूखते खेतों को निहार रहे थे। सूखे के चलते इनकी धान की फसल पीली पड़ गई थी और ग्रोथ रुक गया था। संतोष को यह समझ में नहीं आ रहा था कि धान की फसल को कैसे जिंदा बचाएं।

बहादुर चौहान

‘न्यूजक्लिक’ से बातचीत में संतोष ने कुछ इस तरह से अपना दर्द बयां किया, "सूखे की वजह से धान की लंबाई बढ़ ही नहीं रही है। फसल की ग्रोथ 20 फीसदी है। जैसे बिचड़ा (धान की नर्सरी) यदि 21 दिन के भीतर खेत छोड़ देता है तो उसमें अधिक ग्रोथ होता है और उपज भी बढ़ती है। बहुत से खेतों में अभी धान रोपने की नौबत ही नहीं आर्ई है। धान की नर्सरियां तक सूख रही हैं।"

चंदौली जिले के शिकारगंज इलाके में 54 गांव ऐसे हैं जिनके हिस्से में सिर्फ सूखा है, बेकारी है, पलायन है और दो वक्त की रोटियों के लिए जद्दोजहद है। नहरों का जाल है, लेकिन पानी नहीं है। आजाद भारत में यह इलाका दशकों से सूखे के संकट के जूझता रहा है। भोका बांधी से निकलने वाली नहरों और उससे जुड़ी माइनरों में धूल उड़ रही है। अकाल जैसी स्थिति पैदा होने की वजह से खेत ही नहीं, नहरों में भी धूल उड़ रही है। इस इलाके में बांध-बंधियों कम नहीं है, लेकिन वो फिलहाल किसी काम के नहीं हैं। मछली मारने वाले माफिया और ठेकेदार ने अपनी मछलियों को बचाने के लिए भोका बंधी का पानी रोक दिया है। किसान आसमान निहार रहे हैं और जबर्दस्त सूखे की चपेट में हैं।

शिकारगंज इलाके में खेतों की सिंचाई करने वाली करीब 15 किमी लंबी भोकाकट नहर परियोजना विंध्य की पहाड़ियों से निकलकर बलिहारी होते हुए धुसरियाडीह तक जाती है। यहीं से यह नहर सीधे भोका बांध न जाकर मुड़ जाती है। तत्कालीन हुक्मरानों ने इस नहर में कई स्थानों पर छलका बनाकर "उल्टी गंगा" बहाने की कोशिश की, जो नाकाम साबित हो गई। नतीजा, धुसरियाडीह से भोका बांध जाने वाली करीब सात किमी लंबी नहर का कोई मतलब नहीं रह गया है। शिकारगंज इलाके के 54 गांवों के किसान चाहते हैं कि भोकाकट नहर परियोजना की मरम्मत कराई जाए, ताकि मिर्जापुर के शेरवा, सहजनी, चौकिया, मनउर समेत दर्जनों गांवों में किसानों की मुश्किलें हमेशा के लिए दूर हो सके।

पंडी बोदलपुर के पशुपालक शामू जंगल में अपने मवेशियों को चराते हुए मिले। वह कहते हैं, " बारिश के इंतजार में हमारी आंखें पथरा गई हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि बारिश होगी अथवा नहीं। नेवाजगंज, मुड़हुआ, बिसौरा, बलिया, लठिया, उचहरा, भंगड़ा, मजगांवा, गायघाट, बुढ़ैना, आगर, लठिया, कुशही, करौदिया, छुछहाड़, मादापुर, अदारपुर, जोगिया ताजपुर, गनेशपुर, सीतापुर आदि गांवों के पशुपालकों की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि अपने मवेशियों को कैसे जिंदा रखें?  पिछले साल भी कम बारिश हुई थी और इस बार अकाल जैसी स्थिति है। इस बार हमारे कई पालतू जानवर मर गए हैं। हम छोटे किसान हैं और सूखे की स्थिति में बेहद तनाव में जी रहे हैं। किसानों का क़र्ज़ बढ़ता जा रहा है और खेती की लागत भी। हमारी तबाही की बहुत सारी वजहें हैं। इस साल तो पूरी तरह धरती सूखी पड़ी है। पहले मानसूनी बारिश होने पर धान, बाजरा, मक्का की फसलें लगा दिया करते थे, लेकिन बढ़ती क़ीमतें, खेती की लागत, बीज की क़ीमत, ये सब चीजें प्रभावित हुई हैं। हमारी बर्बादी सरकार भी नहीं समझ पा रही है। चौतरफा दबाव में घिरे किसान अपनी गृहस्थी को आखिर कैसे सभाल पाएंगे। दो-चार दिनों में मानसून मेहरबान नहीं हुआ तो हमारे जैसे लोगों की समूची गृहस्थी बिखर जाएगी।"

मछली माफिया ने रोक रखा है चकिया इलाके के भोका बंधी का पानी

तबाही के लिए मछली माफिया दोषी 

मजदूर किसान मंच के राज्य कार्य समिति के सदस्य अजय राय "न्यूजक्लिक" से कहते हैं, "भाजपा सरकार की नाकामी के चलते शिकारगंज इलाके के हजारों किसान मर रहे हैं और सरकार सो रही है। नौजवानों के सामने रोजी-रोटी का गंभीर संकट पैदा हो गया है। सिंचाई महकमे के अफसर और सत्तारूढ़ दल के नेता दशकों से किसानों के साथ छलावा कर रहे हैं। दो साल पहले मछली माफियाओं ने नौगढ़ और चकिया इलाके के औरवाटांड, चंद्रप्रभा और मूसाखांड बांधों का पानी बहा दिया था। तब से आज तक ये बांध पूरी तरह नहीं भर पाए। बारिश के मौसम में इन बांधों में नहीं के बराबर पानी है। भोकाकट परियोजना नगर को भोका बांध से जोड़ने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने कई बार आंदोलन किया। इलाकाई विधायक कैलाश खरवार ने हामी भी भरी, लेकिन वो उनका वादा भी कोरा साबित हुआ। "

"पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बिहार में सूखे के चलते हाहाकार मचा है। पिछले दो-तीन दिनों से बादल आसमान में बादल अठखेलियां तो कर रहे हैं, लेकिन  बारिश नहीं हो रही हैं। माड़-भात पर भी संकट मंडरा रहा है। पहले बांध के पानी से धान की रोपाई हो जाया करती थी और अबकी बंधों का पानी सिंचाई विभाग के अफसरों और मछली के ठेकेदारों ने बेवजह बहा दिया। पिछले एक पखवाड़े से चंदौली जिले में एक बूंद बारिश नहीं हुई है। सावन में खेतों में धूल उड़ रही है। पंपसेट के पानी से जिन किसानों ने धान की नर्सरी लगाई थी वो पीली पड़कर सूख रही है। जनकपुर माइनर से जुड़े 27 गांवों के किसानों ने अफसरों के यहां मरम्मत कराने के लिए दुहाई दी, अपनी व्यथा सुनाई, लेकिन सब बेअसर रहा। हर खेत तक पानी पहुंचाने का डबल इंजन की सरकार का दावा झूठा है।"

जनवादी नेता अजय राय यह भी कहते हैं, "बांध और नहरों की मरम्मत कमीशनखोरी की भेंट चढ़ गई है। इलाकाई जनप्रतिनिधियों की चुप्पी किसानों को साल रही है। सरकारी धन अन्न उपजाने पर खर्च किया जाना चाहिए, लेकिन बीजेपी सरकार अपना वोटबैंक मजबूत करने के लिए धार्मिक स्थलों पर पैसा लुटा रही है। खेती-किसानी भी वोटबैंक के हिसाब से तय की जा रही है। किसानों से राजस्व वसूली रोकर उनकी सूखी फसलों का मुआवजा और मनरेगा का काम नहीं दिया गया तो चकिया इलाके में जबर्दस्त आंदोलन होगा।

चंदौली में सबसे कम बारिश

उत्तर प्रदेश के चंदौली में बारिश की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। पूर्वांचल में धान की रोपनी भी सामान्य से कम हुई है। यूपी के आंचलिक मौसम विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक अतुल कुमार सिंह कहते हैं, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छी बारिश हुई है, लेकिन पूर्वांचल और बुंदेलखंड में कम बारिश दर्ज की गई है। जुलाई महीने  में सबसे कम बारिश चंदौली में हुई है जहां 305.7 मिली मीटर के सापेक्ष सबसे कम 82.2 मिली मीटर बारिश हुई है। इस जिले में अप्रैल महीने में 6.67 मिली मीटर, मई में 8.33 मिली मीटर, जून में 29.33 मिली मीटर बारिश हुई थी। इस जिले में अब तक कुल 128.33 मिली मीटर बारिश हो सकी है। इस वक्त तक सामान्य बारिश 768.8 मिलीमीटर होनी थी। इस साल मॉनसून काफी कम आया। आगे भी ऐसी संभावना नहीं दिखती कि रेन डेफिसिट कम होगा। भले ही सितंबर माह में सामान्य बारिश हो जाए।"

चंदौली के अलावा मिर्जापुर, देवरिया, मऊ, कुशीनगर और बस्ती ऐसे जिले हैं जहां 35 से 40 फीसदी बारिश रिकार्ड की गई है। सुल्तानपुर, श्रावस्ती, प्रयागराज, सीतापुर, महाराजगंज, गाजियाबाद, संत कवीरनगर, रायबरेली, गौतमबुद्धनगर और कौशांबी में 40 से 60 फीसदी बारिश हुई है। बारिश का यह आंकड़ा जून 2023 से अब तक का है। उत्तर प्रदेश के 31 जनपद बारिश के तरस रहे हैं, इनमें 13 जिले ऐसे हैं जहां जून से अब तक सिर्फ 40 से 60 फीसदी बारिश हुई है, जबकि सात जिलों में 40 फीसदी से कम बारिश दर्ज की गई है। उत्तर प्रदेश के 75 में से 31 जिले कम बारिश का खामियाजा भुगत रहे हैं। इस साल बारिश में 46 फीसदी की कमी आई है, क्य़ोंकि राज्य के सभी चार हिस्से-पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य यूपी और बुंदेलखंड में सूखे की स्थितियां बनी हुई हैं।

वाराणसी में कृषि विभाग के उप निदेशक (शोध) अशोक उपाध्याय हैं, "अगर हम पूर्वांचल की बात करें तो इस इलाके में बारिश का ट्रेंड बहुत ज्यादा बदला हुआ है। इस इलाके में पिछले तीन दशक में कम बारिश हुई है जो इस ओर इशारा कर रही हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के इलाकों में बहुत ज्यादा कमतर है। इसका असर बारिश पर निर्भर रहने वाली खेती पर स्पष्ट तौर पर दिख रहा है। ग्राउंड वॉटर रिचार्ज के मामले के भी दिक्कत पैदा हो गई है। यूं तो पूरी दुनिया में मॉनसून रेनफॉल ग्लोबल फैक्टर्स पर निर्भर करते हैं। पूर्वांचल के ऊपर होने वाली कम या अधिक बारिश के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के भीतर होने वाला ऑसिलेशन यानी दोलन या कंपन), हिंद महासागर द्विध्रुव) और समुद्र के सतही तापमान) में इजाफ़े को तमाम वजहों के तौर पर देखा जा सकता है। किसानों को चाहिए कि वो श्री अन्न का उत्पादन ज्यादा करें ताकि उन्हें घाटे का संकट न झेलना पड़े।"

सूखा कब और कैसे होता है? इस सवाल पर कृषि उप निदेशक उपाध्याय कहते हैं, "कम बारिश की स्थिति को ही सूखा अथवा सुखाड़ कहते हैं। लेकिन 11 से 25 फीसदी कम बारिश को हल्का सूखा कहेंगे। इसी तरह 26 से 50 फीसदी तक कम बारिश को मध्यम सूखा और उससे अधिक बारिश की कमी को भयंकर सूखा) कहा जाता है। सूखे को मापने के लिए क्रॉप कवरेज एरिया भी एक पैमाना है। जैसे खरीफ के मौसम में पूर्वांचल के आसपास के इलाके में धान की रोपनी होती है। सावन में धान की रोपनी शुरू हुई, लेकिन बारिश न होने से मुश्किलें बढ़ने लगीं। यदि जुलाई तक किसी जिले में पचास फीसदी से कम रोपनी हुई तो उसे सूखा घोषित किया जा सकता है।"

नदियों के सूखने से हाहाकार 

पूर्वांचल में तालाब-पोखरों के सूखने के बाद नदियों के दम तोड़ने से हाहाकार की स्थिति है। बनारस से सटे आधा दर्जन जिलों में 42 नदियां सूखने की कगार पर हैं। इनमें से 25 से अधिक नदियों की तलहटी में धूल उड़ रही है। सोनभद्र तटवर्ती इलाकों में खेती प्रभावित हो रही है, लेकिन हालात सुधारने की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। बनारस में वरुणा नदी के किनारे बसे गांवों के किसान परेशान हैं। ऐसी ही स्थिति गोमती, भद्रशिला, मोरवा और नाद नदियों के सूखने पैदा हुई है। असि नदी पहले ही नाले में तब्दील हो चुकी है। आजमगढ़ से गुजरने वाली 13 नदियों में से 12 नदियां सूखने के कगार पर हैं। सिर्फ घाघरा में पानी है। तमसा के अलावा मंगई, गांगी, सिलनी, छोटी सरयू, वेसो, कुंवर, उदंती, मझुई नदी में दरारें पड़ी हैं। जौनपुर से गुजरने वाली गोमती में जल प्रवाह बहुत कम है। सई नदी में प्रवाह स्थिर है। वरुणा, पीली तथा बसुही नदियों में पानी ही नहीं है। नहरों से पानी छोड़े जाने के कारण गड्ढों में कहीं-कहीं पानी है।

नक्सल प्रभावित सोनभद्र की 11 नदियों में से नौ सूख चुकी हैं। सिर्फ सोन, कर्मनाशा और घाघर नदी में पानी है। बेलन, कनहर, रेणुका, बिजुल, पांडु, ठेमा, अरंगी, सततवाहिनी, लउआ नदियां सूखी हुई हैं। घाघर के जगह-जगह सूखने से इलाके के लोग परेशान हैं। मिर्जापुर जिले की गड़ई और कलकलिया नदी से निकली नहरों की तलहटी में धूल उड़ रही है। चंदौली में कर्मनाशा, चंद्रप्रभा और गरई तीनों नदियों में पानी नहीं है। बलिया में मगई नदी बिल्कुल सूखी पड़ी है, जबकि टोंस में थोड़ा पानी है।

पूर्वांचल में भीषण सूखे की दस्तक 

पूर्वांचल में मानसून की बेरुखी से उपजे हालात की चर्चा करते हुए गांव-गिरांव के संपादक श्रीधर द्विवेदी कहते हैं, "पूर्वांचल अपने इतिहास के सबसे भीषण सूखे की चपेट में है। भले ही बहुतों को इस बात का अंदाजा न हो, लेकिन हमें है। साल 1901 में देश ने इस तरह का अकाल झेला था। उन दिनों बहुत ज्यादा मौतें हुई थीं। हम उस तरफ बढ़ रहे हैं। सामान्य से 25 फीसदी तक कम बारिश होने की स्थिति को सूखा कहा जाता है, जबकि चंदौली और आसपास के जिलों में यह आंकड़ा लगभग 35 फीसदी तक जा चुका है। ऐसे सूखे को क्लाइमैटेलॉजिकल ड्रॉट यानी जलवायु को सूखा कहते हैं। सरकार के दावे पर यकीन करें तो सूबे में धान की रोपाई 85 फीसदी हो चुकी है, रोपा गया 50 फीसदी धान बच पाएगा, इस पर हमें विश्वास नहीं है।"  

वरिष्ठ पत्रकार द्विवेदी यह भी कहते हैं, "नदियों के सूखने से सबसे ज्यादा दिक्कत पशुपालकों को है, जिन्हें अपने मवेशियों की प्यास बुझाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पानी की किल्लत से दुधारू गाय-भैंसों को तरावट नहीं मिल पा रही है, जिसका असर दुग्ध उत्पादन पर भी पड़ रहा है। बिना बारिश के पूर्वांचल में किसी भी तरह की फसल की उपज भी मुश्किल है। नुकसान को कम करने में सरकार की ओर से कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। हम जिस तरह ग्राउंड वॉटर का दोहन कर रहे हैं,  उससे आने वाले दिनों में पेयजल का गंभीर संकट पैदा हो सकता है। जानवरों के लिए चारे की कमी मुसीबत बन जाएगी। पूर्वांचल के किसानों को अभी तक अनुदानित दर पर डीज़ल नहीं मिल रहा है। आपदा कानून के तहत जहां खेती नहीं हुई है वहां सहायता अनुदान बांटने की तैयारी शुरू हो जानी चाहिए, ताकि वो सूखे गंभीर संकट से उबर सकें।"

"योगी सरकार ने किसानों को राहत पहुंचाने कि दिशा में तनिक भी प्रयास नहीं किया है। हालांकि आपदा की स्थिति में किसी भी तरह की सब्सिडी या सहायता का फायदा भी सीमांत के बजाय सामान्य किसानों को अधिक मिलता है। पूर्वांचल का कोई भी जिला ऐसा नहीं है जहां खेतों में दरार नहीं फट रही हों। जिन इलाकों में पंप कैनाल से धान की रोपाई हो रही है वहां खाद की किल्लत है। किसानों को कालाबाज़ारी से जूझना पड़ रहा है। जैसे 265 रुपये में मिलने वाली यूरिया लोग 350 से 400 रुपये तक और कई बार उससे भी अधिक पर खरीदने पर विवश हैं।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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