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भारत को आने वाली दुनिया के अनुकूल होना होगा

अगर मोदी सरकार का मक़सद उन लोगों के हितों को बढ़ावा देना है, जिनकी सामाजिक स्थिति बिगड़ चुकी है, तो उसे उस चीन के साथ सहयोग करने के तरीक़ों को ढूंढना होगा, जो अब इस महामारी से उबर चुका है।
भारत को आने वाली दुनिया के अनुकूल होना होगा
पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग त्सो झील: 1962 के भारत-चीन युद्ध से स्नैपशॉट

15 अगस्त, 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने भारत की आज़ादी का ऐलान करते हुए "आधी रात को जिस समय दुनिया सो रही है, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जाग रहा है” की एक यादगार पंक्ति के साथ अपना ऐतिहासिक "ट्राइस्ट विद डेस्टिनी" भाषण दिया था, जिसे 20वीं सदी के सबसे महान भाषणों में से एक माना जाता है।

पिछले शनिवार (5 सितंबर) की आधी रात के उस समय, जब देशवासी सो रहे थे, भारत ने चुपके से "कोरोनोवायरस के संक्रमण के मामलों में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी संख्या वाला देश बनते हुए ब्राजील को पीछे छोड़ दिया, जैसा कि गार्जियन ने बताया कि 1.3 बिलियन वाले इस देश में दुनिया के किसी भी देश से कहीं ज़्यादा रफ़्तार से वायरस फैल रहा है।”

यह नियति के साथ मिलने का एक संदिग्ध प्रयास है। ऐसा सही मायने में है भी, भले ही मोदी सरकार ने इसे मनाने से इनकार कर दिया हो। इसके बजाय, भारतीय सैनिकों द्वारा पूर्वी लद्दाख के पैंगॉन्ग त्सो झील के दक्षिणी तट के पास शेन्पाओ पर्वतीय क्षेत्र में एक और पहाड़ी क्षेत्र पर कब्जा करने में कामयाब होने को लेकर यह सरकार एक और घटना को मानने इन्कार कर गयी। एड्रेनालाईन (चिंता और तनाव के समय स्रावित होने वाला हार्मोन) स्रावित हो रहा है। भारत ने सोमवार रात एक महाशक्ति को चतुराई के साथ मात दे दी है।

लेकिन,वायरस ने हार नहीं मानी है। यह बहुत बड़ी अहम कामयाबियों की तलाश में है। संभवत: आने वाले एक और दो-तीन सप्ताह में यह महामारी कोविड-19 ट्रॉफ़ी के लीग चैंपियन में संयुक्त राज्य से आगे निकलते हुए भारत को जीत के रथ पर बैठा देगी!

हैरानी इस बात की है कि अगर मार्च में ही प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने पूरे भारत में इस वायरस को मात देने के लिए भारत की भावी कामयाबी का जश्न मनाने को लेकर थाली बजवाते हुए राष्ट्र को प्रेरित न किया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती। कोई गलतफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि भारत मोदी के नेतृत्व में इस सबसे अहम युद्ध को हार रहा है। फिर भी,वायरस इस उपमहाद्वीप में भयानक रूप से आगे बढ़ रहा है और अंदरूनी शहरों और क़स्बों में प्रवेश कर रहा है। कोई शक नहीं कि भारत के फैले विशाल भीतरी क्षेत्र में विस्तृत असुरक्षित ग्रामीण क्षेत्र हैं, जो बिना किसी दोष के तबाही तले होने के लिए अभिशप्त है।

भारत के उथल-पुथल भरे इतिहास में कभी भी ऐसा कोई ऐसा साम्राज्य नहीं रहा, जैसा कि इस वायरस से स्थापित होने की उम्मीद है, यह मौर्यों, गुप्तों, मराठों, सातवाहनों, मुगलों और यहां तक कि साम्राज्यवादी शासन ब्रिटेन को भी मात दे रहा है।

इससे निजात पाने की जद्दोजहद की बची-खुदी उम्मीद भी अब धुंधली पड़ती जा रही है, क्योंकि इस महामारी को लेकर ऐसा कोई वैक्सीन नहीं है,जो रामबाण साबित हो। पुणे में "ऑक्सफ़ोर्ड वैक्सीन" के निर्माता ने इस सप्ताह के आख़िर में बीबीसी के सामने साफ़ तौर पर स्वीकार किया कि जिस वैक्सीन का वह इस समय कारोबार के मक़सद से निर्माण कर रहे हैं, उस वैक्सीन की प्रभावशीलता को लेकर कहीं भी भरोसेमंद होने में पांच साल तक का समय लगेगा। इसका मतलब है कि हज़ारों भारतीयों की ज़िंदगी ख़तरे में हैं। अगर सीधे सादे शब्दों में कहा जाय, तो यह महामारी हमारी रोज़-ब-रोज़ की ज़िंदगी, समाज और देश में "सामान्य" रहने वाली है, न कि लद्दाख के किसी दूर-दराज़ पहाड़ी पर होने वाली किसी तरह की घटना की तरह ढके-छुपे रहने वाली है। जितनी जल्दी हम इसे महसूस कर लेंगे, उतना ही बेहतर होगा।

सत्तारूढ़ ख़ास वर्गों की तरफ़ से फ़ैलाये जा रहे भ्रम से हमें बचना चाहिए। यह वायरस मजबूर कर देने वाली हक़ीक़त है। प्रधानमंत्री ने हमें भविष्य की बहुत ही मोहक तस्वीर दिखा दी है। हो सकता है कि उन्हें खुद ही नहीं पता हो कि आख़िर भविष्य के कोख में क्या है। अगले कुछ महीनों में किसी भी क़ीमत पर एक प्रभावी टीके को पाने की उम्मीद एक ख़तरनाक व्याकुलता की तरफ़ मुड़ चुकी है।

हमें यह विश्वास करने के लिए प्रेरित किया गया था कि यदि हम किसी तरह होली या बैसाखी तक अगले कुछ महीनों में सफल हो जाते हैं, तो एक ऐसा वैक्सीन हमारे हाथ आ जायेगा, जिससे हमें समाधान तो मिल ही जायेगा, और ज़िंदगी भी पटरी पर आयेगी और फिर तो हमें महज़ कम ज़रूरी चीजों को लेकर ही चिंता करने की ज़रूरत होगी। जबकि, एक उपयुक्त योजना वाला विचार तो यही होता कि एक वैक्सीन को महज़ वैक्सीन नहीं समझा जाये, बल्कि वह एक गेम-चेंजिंग वैक्सीन होगा औऱ इसे आने में एक लंबा समय लगेगा (वैज्ञानिक इस "गेम-चेंजिंग वैक्सीन" को कुछ इस तरह परिभाषित करते हैं कि यह 70% प्रभावी होगा और सात वर्षों के लिए ही प्रतिरक्षा प्रदान कर पायेगा)। इस तरह, आज हम एक ऐसी स्थिति में हैं,जो सैमुअल बेकेट के नाटक, ‘वेटिंग फ़ॉर गोडोट’ से निकलकर सामने आ गयी है। इस फ़ालतू के इंतज़ार ने सड़क किनारे पर भटक रहे किसी आवारा की तरह उन सभी दूसरी चीज़ों को फिर से अहमियत दे दी है, जिनकी हमें जीवन में बेतरह ज़रूरत रही है।

राजनेताओं की तरफ़ से छूमंतर जैसी दिखायी जा रही झूठी उम्मीद का इंतजार करने के बजाय रचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए था। मार्च में चंद घंटों की मोहलत के साथ प्रधानमंत्री द्वारा लगाया गया सख़्त लॉकडाउन एक ग़ैरमामूली भोथरा हथियार साबित हो चुका है। यह हथियार न सिर्फ़ सार्वजनिक नीति के इतिहास,बल्कि मानव जाति के इतिहास में इस्तेमाल किया जाने वाला संभवत: अबतक का सबसे कुंद उपाय है। जैसा कि हम सभी को पता है कि इससे जो नुकसान हुआ है, वह हम सभी के हितों और अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से बहुत बड़ा नुकसान है।

जीडीपी या विकास दर को लेकर जो सर्द कर देने वाले आंकड़े आ रहे हैं, उससे कभी भी असली कहानी का पता नहीं चल सकता है। मशहूर आर्थिक टीकाकार,एम.के. वेणु ने हाल ही में लिखा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र को तबाह कर दिया गया है। परेशान कर देने वाली अपनी उस समीक्षा में वेणु ने पिछले हफ़्ते लिखा था कि शहरी और अर्ध-शहरी खपत में हुई भारी कमी के चलते लंबे समय तक यह मंदी जारी रहेगी।

वेणु की टिप्पणी में कहा गया है, “मोदी को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उन्होंने पिछले पांच सालों में कई गंभीर ग़लतियां की हैं। मोदी उन ग़लतियों के दुष्प्रभाव पर क़ाबू पाने के अतिरिक्त बोझ तले हैं, जिन्होंने भारत की छोटी और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है…

अगर मोदी अपने पिछली भूलों को लेकर आंख मूंदे रहना चाहते हैं, तो वे एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में याद किये जायेंगे, जिसने भारत की छोटी अर्थव्यवस्था की धमनियों को ही तबाह कर दिया। जीडीपी बढ़ोत्तरी, रोज़गार, बचत/निवेश या किसी अन्य प्रमुख बड़े-बड़े सूचकों को ही ले लें, तो भारत में मोदी के शासनकाल के  दौरान एक अभूतपूर्व और तेज़ गिरावट देखी जा रही है। यही उनकी स्थायी विरासत भी हो सकती है। सच्चाई तो यही है कि प्रधानमंत्री इसे सामान्य दृष्टिकोण के साथ नहीं बनाये रख सकते।”

मैंने बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि 1917 में अक्टूबर क्रांति के बाद, व्लादिमीर लेनिन ने बर्लिन में बोल्शेविक क्रांतिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल को लियोन ट्रोट्स्की के नेतृत्व में इम्पीरियल जर्मनी के साथ शांति की याचना के लिए भेजा था ताकि रूस को पहले विश्व युद्ध से बाहर निकाला जा सके। दो महीने चली बातचीत के बाद, ब्रस्ट-लिटोव्स्क की विवादास्पद संधि पर मार्च 1918 में रूसियों द्वारा आगे जर्मन आक्रमण को रोकने को लेकर सहमति व्यक्त कर दी गयी थी।

जर्मनों ने उस संधि को ग़ैरमामूली तरीक़े से उन कठोर शर्तों के साथ रंग-रूप दिया, जिससे पूरी पश्चिमी दुनिया हैरान रह गयी। रूस को बाल्टिक राज्यों पर जर्मनी को आधिपत्य देना पड़ा था; दक्षिण काकेशस का हिस्सा ओटोमन (जो जर्मनी का सहयोगी था) को देना पड़ा था; और यूक्रेन की स्वतंत्रता को मान्यता देने के लिए मजबूर किया गया था।

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जर्मन जनरल स्टाफ (एल) और रूस से बोल्शेविक प्रतिनिधिमंडल द्वारा 3 मार्च, 1918 को ब्रेस्ट-लिटोव्स्क की संधि पर हस्ताक्षर।

जब हस्ताक्षर समारोह के लिए ट्रॉट्स्की ने लेनिन से बुर्जुआ पोशाक पहनने की अनुमति देने के लिए कहा, जो कि उनके जैसे किसी उग्र क्रांतिकारी के लिहाज से बिल्कुल उचित नहीं था, लेनिन ने उस संधि पर हस्ताक्षर करने को लेकर ज़बरदस्त प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि इसके लिए यदि जर्मन बोल्शेविक प्रतिनिधिमंडल को पेटीकोट पहनने के लिए कहते हैं, तो भी ऐसा करना चाहिए। संयोग से यह अबतक की पहली ऐसी कूटनीतिक संधि थी,जिसे फिल्माया गया था

लेनिन के लिए ज़रूरी प्राथमिकता तो यही थी कि इस संधि से उन बोल्शेविकों को बहुत ज़रूरी राहत मुहैया करायी जाय, जो पहले से अपनी ही ज़मीन,रूस में चल रहे गृहयुद्ध (1917-1922) को लड़ रहे थे, जबकि लाल सेना कहीं और भी 13 देशों की विदेशी हस्तक्षेपकारी ताक़तों (अमेरिकियों सहित) को पीछे धकेल रही थी, जिन्होंने रूस में नये इतिहास के ज्वार को मोड़ने का प्रयास किया था।

मोदी को उस ब्रेस्ट-लिटोव्स्क की संधि से सबक लेना चाहिए। वह राजनेता, जो किसी भी समय अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राथमिकता को निर्धारित करने में नाकाम रहता है, वह अपने देश को उसकी क़यामत तक ले जाता है और इस प्रक्रिया में अंततः वही उसकी विरासत बन जाती है। रणनीति के साथ भ्रमित करने वाली युक्ति हमेशा बेवकूफ़ी भरी होती है। लेकिन, किसी दूर-दराज़ के पहाड़ की चोटी पर जैसे-तैसे मिली किसी कामयाबी का जश्न उस दौरान मनाना किसी अयोग्य शासक के लिए भी अक्षम्य होता है, जिस दरम्यान किसी सूक्ष्म वायरस से देश तबाह हो रहा हो।

इससे भी बुरी बात यह है कि सरकार इस बात से सुखद तौर पर अनजान है कि इस महामारी से जो दुनिया उभरेगी, वह पूरी तरह से बदली हुई होगी। दुनिया के सामने एक तरफ़ रेंगते हुए पश्चिम देश होंगे और दूसरी तरफ़ आत्मविश्वास से भरा हुआ चीन होगा। बदली हुई दुनिया वैश्विक अर्थव्यवस्था की संपूर्ण प्रकृति में आये एक मौलिक बदलाव का गवाह बन सकती है।

हम उम्मीद कर सकते हैं कि महामारी से जो चीन उभरा है, वह अपनी ताक़त का इस्तेमाल ज़रूर करेगा। बीजिंग अपनी कामयाबी के इन शुरुआती चिह्नों को एक ऐसी बड़ी कहानी में बदल देने की दिशा में काम कर रहा है, जो इसे आने वाली दुनिया का ज़रूरी खिलाड़ी बना देती है। चीन के पास अब कई मोर्चों पर संयुक्त राज्य अमेरिका को चुनौती देने की शक्ति और आत्मविश्वास, दोनों है। अमेरिका और चीन,दोनों ही देशों के बीच की ताक़त का फ़र्क लगातार कम होता दिख रहा है और लम्बे समय में इसके निहितार्थ बहुत हद तक अहम होने जा रहे हैं, ख़ासकर जहां तक अमेरिका की वैश्विक हैसियत की बात है, तो वैश्विक राजनीति में अमेरिका की हैसियत बुनियादी तौर पर बदलने जा रही है और 21 वीं सदी में नेतृत्व में भी बदलाव आने जा रहा है।

COVID-19 भारत जैसे उन देशों के लिए नींद से जगाने की किसी घंटी की तरह कार्य कर रहा है, जो चीन के साथ राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक कुछ भी हासिल नहीं होने वाले भू-राजनीतिक मुक़ाबले में लगे हुए हैं। अगर मोदी सरकार का लक्ष्य उन लोगों के हितों को बढ़ावा देना है, जिनकी सामाजिक स्थिति बिगड़ चुकी है, तो उसे उस चीन के साथ सहयोग करने के तरीक़ों को ढूंढना होगा, जो अब इस महामारी से उबर चुका है।

इसका मतलब यह नहीं है और इसका मतलब यह होगा भी नहीं कि हमें चीन के नेतृत्व वाली व्यवस्था के अनुकूल होना होगा। एक सहयोगी सभ्यता के रूप में चीन जानता है कि भारत कभी भी एक ताबेदार देश नहीं हो सकता है। इस मामले का केन्द्रीय बिन्दु यही है कि चीन भी अपने मॉडल का निर्यात नहीं करना चाहता है। यह एक विविधता से भरी हुई बहुध्रुवीय दुनिया के साथ रह सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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