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‘जनता का आदमी’ के नाम ‘जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान’: नए तेवर के कवि आलोक धन्वा हुए सम्मानित

यह सम्मान 2020 में ही दिल्ली में नागार्जुन जी के स्मृति दिवस पर दिया जाना था। लेकिन कोरोना महामारी के कारण यह संभव नहीं हो सका। इसलिए महामारी प्रकोप के कम होते ही यह सम्मान आलोक धन्वा के प्रिय शहर पटना में दिया गया।
alok dhanwa

“सत्तर के दशक में हिंदी कविता की दुनिया में आलोक धन्वा नये तेवर, नई भाषा और अपने अनूठी के साथ आये और स्थापित हो गए। वे नागार्जुन की तरह आन्दोलन से निकले हुए कवि हैं। साथ ही वे जनांदोलन के प्रवक्ता भी हैं। संख्या के बदले उन्होंने सदैव कविता की गुणवत्ता को स्थापित करने की कोशिश की, इसीलिए उनकी कविता में तराश है और कविताएँ भीड़ में भी अलग से मुट्ठी ताने खड़ी दीखती है।”

ये बातें ‘जनकवि नागार्जुन स्मृति निधि’, नयी दिल्ली के निर्णायक मंडल के वरिष्ठ साहित्यकारों ने कवि आलोक धन्वा को ‘जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान’ से नवाज़ते हुए उनके लिए प्रेषित वक्तव्य में कहीं। जिसे सम्मान समिति के प्रतिनिधि पीयूष राज ने कार्यक्रम के आरंभ में ही पढ़कर सुनाया तो सभागार में उपस्थित लोगों ने करतल ध्वनि से सराहा।

सम्मान निर्णायक मंडल के सदस्यों ने आलोक धन्वा के रचनात्मक अवदान को रेखांकित किया कि- जनता के कवि अलोक धन्वा की कविताएँ उत्कृष्ट व उद्बोधन परक होने के साथ साथ जन संघर्ष को ताक़त देती हैं। जिसकी धमक 1972 में प्रकाशित कविता ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ में सुनाई पड़ती हैं।  उनकी कविता जनता से सीधा संवाद करती हैं। शोषकों और तानाशाहों के खिलाफ एक चुनौती बनकर खड़ी होती है। सन् 1998 में प्रकशित उनका काव्य संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय बना हुआ है। आलोक धन्वा की कविताएँ मुख्यतः राजनीतिक हैं, जिनमें असीमित अत्याचार और अन्याय का जुझारू प्रतिरोध है। भारतीय स्त्री की पराधीनता का यथार्थ, स्वाधीनता की आकांक्षा और संघर्ष की अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से उनकी ‘भागी हुई लडकियां’ और ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ जैसी कविताएँ मील के पत्थर की तरह हैं। अछूते और नए बिम्बों के बावजूद उनकी कविताएँ सहज और प्रभावशील हैं। प्रकृति और संस्कृति की बर्बादी पर गंभीर चिंता है।  

26 नवम्बर को बिहार विधानपरिषद सभागार में आयोजित ‘जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान’ समारोह में दिया गया यह सम्मान 2020 में ही दिल्ली में नागार्जुन जी के स्मृति दिवस पर दिया जाना था। लेकिन कोरोना महामारी के कारण यह संभव नहीं हो सका। इसलिए महामारी प्रकोप के कम होते ही यह सम्मान इन्हीं के प्रिय शहर पटना में दिया गया। 

संयोगवश देश के संविधान दिवस और किसान आन्दोलन के एक वर्ष पूरे होने के दिन आयोजित हुए इस कार्यक्रम में हिंदी साहित्य जगत के ख्यात साहित्यकार, युवा रचनाकार और साहित्य प्रेमियों के अलावे छात्र युवा संगठनों के एक्टिविस्ट भी इसके सहभागी बने।

बिना किसी अतिरिक्त तामझाम और रस्म अदायगी भरे उपक्रमों से परे आयोजित यह कार्यक्रम पिछले दो वर्षों से कोरोना माहामारी की आपदा झेल रहे पटना में लॉकडाउन बंदी के बाद संभवतः पहला ‘ऑफ़ लाइन’ साहित्यिक आयोजन रहा। जो अपने स्वरूप में बेहद अनौपचारिक बना रहा तो इसके भी केंद्र खुद आलोक धन्वा ही रहे।

जिन्होंने सम्मानित होने के उपरांत अपने आत्मीय और अनौपचारिक अंदाज़ में ही अपना कवि वक्तव्य भी दिया। देश विदेश के अनेक नामचीन और लब्ध प्रतिष्ठित लेखक कवि कलाकारों से जुड़े संस्मरणों को साझा करते हुए कई अहम् और समकालीन चुनौतीपूर्ण सवालों पर भी अपनी बातें रखीं। उन्होंने कहा कि– इस पटना में हम सबों ने ज़िन्दगी के 60 साल गुजार दिए। ये जो दुनिया बनी है, इसमें मैं नहीं समझता की हम सिर्फ भारतवासी हैं। क्योंकि इस भारत के बनने में भी जो लड़ाई रही है उसमें आइन्स्टीन जैसे वैज्ञानिकों के सिद्धांत शामिल हैं। जिसने हमें करोड़ों वर्ष पीछे जाने से रोक दिया। आज जो ये कहा जा रहा है कि ‘सिर्फ भारत का कौन है?’ तो आज जो भी कनाडा में हैं, क्या वे मूलतः वहीं के हैं अथवा आज जो लोग भी अमेरिका में हैं क्या वे वहां के रेड इंडियन की भांति मूल निवासी रहें हैं? पूरी अटूट रही है ये पृथ्वी। गुजरात में निर्मित सरदार पटेल की भव्य और विशाल मूर्ति निर्माण के सारे सामान चीन से मंगाए गए। भले ही तुम चीन की मूर्तियाँ ना खरीदो लेकिन तुम्हारे जो नेता हैं वो बाज़ार नहीं बंद कर रहें हैं। आज हम इमरान खान (पकिस्तान के प्रधानमंत्री) के पास जाएँ या ना जाएँ वहां जन्मे गुरुनानक और संत तुकाराम को कैसे छोड़ सकते हैं।

कवि आलोक धन्वा

एक कवि  के तौर पर मैं किसी भी तरह के छुआछूत और दुहरापन भरा जीवन कभी नहीं जिया। हिन्दू मुसलमान इत्यादि सब हमने ही बनाये हैं। मेरे हिसाब से अगर आप एक कवि हैं तो कितना सारा लिखते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि आप कितना ग्रहण करते हैं। किसी भी क्षेत्र या समुदायके बीच आपकी कितनी आवाजाही और अंतरसंवाद है। मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर – “जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा/ कुरेदते हो जो राख़, जुस्तजू क्या है/ हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है/तुम्ही कहो कि ये अंदाज़े गुफ्तगू क्या है...” से उन्होंने अपनी बात ख़त्म की।

सभागार में उपस्थित लोगों के पुरजोर आग्रह पर अपनी कविता ‘बकरियां व नदियाँ’ का भावपूर्ण पाठ भी किया।

इस अवसर पर आलोक धन्वा जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर बोलते हुए साहित्यकार प्रेमकुमार मणि ने आलोक धन्वा को रेणु और नागार्जुन की परम्परा का रचनाकार बताते हुए कहा कि इनकी कविताएँ सिर्फ राजनीतिक नहीं बल्कि ये राजनीति में संवेदनशील तत्व भरकर उसे संवारती हैं।

सम्मान समारोह कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार यादवेन्द्र जी ने आलोक धन्वा को उम्मीद का कवि बताते हुए कहा कि इनकी ‘गोली दागो’ और ‘जनता का आदमी’ रचनाओं ने बतलाया कि ऐसे भी कविताएँ लिखी जाती हैं। 

चर्चित मनोविज्ञानी और कवि डा. विनय कुमार ने अलोक धन्वा से जुड़े अपने संस्मरण साझा करते हुए कहा कि मैं जब भी कहीं बाहर जाता हूँ तो अक्सर लोग आलोक धन्वा जी के बारे में पूछते हैं। अभी इनके जैसा हिंदी में शायद ही कोई ऐसा कोई कवि होगा जिनके बारे में लोग इतना पूछते हैं। बाद में आलोक धन्वा पर लिखी हुई अपनी कविता का पाठ भी किया।

साहित्यकार आनंद बिहारी ने कहा कि वे सिर्फ विचार के नहीं बल्कि गहरी मानवीय संवेदना के विस्तार के कवि है। युवा साहित्यकार कुमार वरुण ने कहा कि वे कविता गढ़ते नहीं बल्कि जीवन से कविताओं को चुनते हैं।

‘जनकवि नागार्जुन स्मारक निधि’, नयी दिल्ली की ओर से भेजा गया प्रशस्ति-पत्र, शॉल, बाब नागार्जुन का स्मृति चिह्न और 15 हज़ार रुपये का चेक साहित्यकार प्रेम कुमार मणि, यादवेन्द्र और डॉ. विनय कुमार ने सभागार में उपस्थित लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच आलोक धन्वा जी को सम्मानपूर्वक प्रदान किया।

‘जनकवि नागार्जुन स्मृति सम्मान’ की शुरुआत 2017 में जनकवि नगार्जुन स्मारक निधि, नयी दिल्ली द्वारा की गयी है। जो हिंदी साहित्य की प्रगतिशील धारा की रचनात्मकता को आगे बढ़ाने के लिए अपने समय के विशिष्ट रचनाकरों को दिया जाता है। ख्यात वामपंथी हिंदी साहित्यकार और वरिष्ठ आलोचक डॉ. मैनेजर पाण्डेय, कवि मंगलेश डबराल (दिवंगत) व मदन कश्यप समेत कई अन्य महत्वपूर्ण रचनाकार इसके निर्णायक मंडल में शामिल रहे हैं। अभी तक यह सम्मान 2017 में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना, 2018 में राजेश जोशी, 2019 आलोक धन्वा, 2020 में विनोद कुमार शुक्ल तथा 2021 में ज्ञानेंद्र पति को दिया गया है। 

आलोक धन्वा की कुछ कविताओं के अंश :

‘गोली दागो पोस्टर’ – यह कविता नहीं है/ यह गोली दागने की समझ है/ जो तमाम क़लम चलानेवालों को/ तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है... 

‘जनता का आदमी’  – हर बार कविता लिखते लिखते/ मैं एक विस्फोटक शोक के सामने खड़ा हो जाता हूँ/  कि आखिर दुनिया के इस बेहूदे नक़्शे को/ मुझे कब तक ढोना चाहिए...

‘भागी हुई लड़कियां’- अगर एक लड़की भागती है/ तो यह हमेशा ज़रूरी नहीं है/ कि कोई लड़का भी भागा होगा...

‘ब्रूनो की बेटियाँ’- वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं/ उनकी माताएं थीं/ और वे खुद माताएं थीं... क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है/ जीवित आदमियों की दुनिया...? 

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