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झारखंड चुनाव: उत्पीड़न के डर से गांव छोड़ कर चले गए नियमगिरी के लोग

क्षेत्र में अधिकतर कमज़ोर आदिवासी समूह डोंगरिया कोंध के आबादी वाले गांव के घर पूरी तरह से बंद हैं। इस इलाक़े का बाज़ार भी बंद है।
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Image source: Save Niyamgiri

झारखंड के नियमगिरी क्षेत्र में विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूह (पीवीटीजी) डोंगरिया कोंध अपने ज़मीन के दावों को लेकर और अपने सबसे पूजनीय पर्वतीय देवता नियमराजा की रक्षा के लिए कई वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। इन विरोधों के साथ ये आदिवासी कॉर्पोरेट दिग्गज वेदांता द्वारा इस क्षेत्र में खनन परियोजनाओं के विरोध में भी संघर्ष कर रहे हैं। इस इलाके के लोगों और ग्रामीणों की सहमति के बिना इस कंपनी ने वर्ष 2006 में लांजीगढ़ में एक एल्यूमीनियम रिफाइनरी की स्थापना की।

इन ग्रामीणों ने कहा है कि इस कॉर्पोरेट परियोजना के लिए उन्हें अपने ही घरों से जबरन बाहर निकलने को मजबूर किया जा रहा है। इस परियोजना के लिए सड़क निर्माण का काम जारी है।

नियमगिरी बचाओ आंदोलन के एक कार्यकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर न्यूज़़क्लिक से बात करते हुए कहा, “उत्पीड़न अब बढ़ रहा है। इससे पहले, इस रिफाइनरी परियोजना के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के दौरान 300 अज्ञात लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए थे। धमकियों और उत्पीड़न सहित जारी कार्रवाई ने लोगों को अपने ही घर लांजीगढ़ और नियमगिरि के डोंगरिया कोंध गांवों को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है।” उन्होंने कहा, उन्हें धमकी दी जा रही है कि ग्रामीण अगर सड़क निर्माण का विरोध करते हैं तो उन्हें जेल में डाल दिया जाएगा।

उन्होंने आगे कहा, "केवल इतना ही नहीं बल्कि सड़क निर्माण के विरोध को माओवादी कृत्य माना जा रहा है और राज्य में विकास को बाधित करने का कदम बताया जा रहा है। यहां मुख्य बात यह है कि लोग निरंतर भय में रहने को मजबूर हैं।”

ख़बरों के अनुसार इस कार्रवाई के चलते ग्रामीण बुनियादी ज़रुरतों के सामान या अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए अब साप्ताहिक बाज़ारों तक पहुंचने में सक्षम नहीं हैं। पिछले कुछ महीनों में लगभग 300 लोगों को घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया है। इससे पहले, ग्रामीणों को प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ उठाने के लिए समतल क्षेत्र में जाने के लिए मजबूर करने के मामले में न्यूज़क्लिक ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। लगभग 10 गांवों के स्थानीय लोगों ने ज़िला प्रशासन द्वारा इस घोषणा की पुष्टि की है और नियमगिरि ज़िले में लगभग 100 गांव हैं। इन गांवों में धामनपंगा, डेंगुनी, गोराता, मोंडा, त्राहिली शामिल हैं।

राज्य में एक्टिविस्ट और नागरिक समाज के सदस्यों के संगठन नियमगिरी सुरक्षा समिति (एनएसएस) ने ज़ोर देकर कहा था कि, "प्रशासन के पास इस तरह की शर्तों को लागू करने का कोई कानूनी आधार नहीं है" और इसलिए इसे एक दबाव के तरीक़ों के तौर पर देखा जा रहा है। इसके अलावा, सड़क निर्माण का विरोध करने वाले एनएसएस एक्टिविस्ट को पुलिस द्वारा धमकी दी जा रही है कि उन्हें "माओवादी" के रूप में फंसाया जाएगा और फिर जेल में डाल दिया जाएगा।

नियमगिरि सुरक्षा समिति के एक्टिविस्ट को नज़रअंदाज़ करके और पलायन करने के लिए मजबूर करके अब सड़क निर्माण कार्य तेज़ी से किया जा रहा है। इसी तरह का उत्पीड़न लांजीगढ़ में देखा गया था जब पुलिस ने रिफाइनरी में हिंसा के बाद लोगों को गिरफ्तार करना और हिरासत में लेना शुरू कर दिया था जहां एक दलित एक्टिविस्ट और एक सुरक्षाकर्मी मारे गए थे।

इस साल मार्च महीने में वेदांता की एल्यूमीनियम रिफाइनरी में दो लोग मारे गए और 50 लोग घायल हो गए। ओडिशा औद्योगिक सुरक्षा बल (ओआईएसएफ) के कर्मियों की क्रूर कार्रवाई के बाद लोगों की मौत हुईं। विरोध कर रहे थे और नौकरी की मांग कर रहे इन विस्थापित आदिवासियों पर इन बलों ने निर्दयतापूर्वक लाठी बरसाई थी। विरोध प्रदर्शनों के बाद मारे गए लोगों में से एक अम्बेडकरवादी एक्टिविस्ट दानी बत्रा थे जिन्हें कथित तौर पर सुरक्षा बलों ने पीट-पीटकर मार डाला था।

एक अन्य कार्यकर्ता कडार्का का परिवार भी उनको लेकर डर रहा है क्योंकि यह पहली बार नहीं है जब उन्हें राज्य पुलिस द्वारा निशाना बनाया गया हो। साल 2018 में भी उन्हें चार दिनों के लिए जेल में यातना दी गई थी जिससे उनके शरीर पर गंभीर चोटें आई थी। लांजीगढ़ रिफाइनरी में हिंसा के एक हफ्ते पहले नियामगिरी सुरक्षा समिति (एनएसएस) के संस्थापक सदस्यों में से एक लिंगराज आज़ाद को गिरफ्तार किया गया था और बाद में ज़मानत पर रिहा कर दिया गया था। उन्हें नियामगिरि पहाड़ियों के विभिन्न हिस्सों में सीआरपीएफ शिविरों के बलपूर्वक निर्माण के विरोध में गिरफ्तार किया गया था।

नियामगिरि के लोग भी आवश्यक मंज़ूरी के बिना दस एकड़ गांव की आम ज़मीन जबरन हासिल करने का आरोप लगाते हैं। उनके दावों के अनुसार, कंपनियों ने न केवल समाज की चिंताओं को नज़रअंदाज़ किया बल्कि राज्य और केंद्र सरकार के साथ मिलकर राज्य और राष्ट्रीय नियामक ढांचे को तार तार कर दिया और सौ से अधिक परिवारों को विस्थापित कर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के पालन की अनदेखी की है। ग्रामीणों को कंपनी में नौकरी देने और उनके बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का भी वादा किया गया था। हालांकि, परियोजना अब आदिवासियों के प्रतिरोध और राज्य की क्रूर कार्रवाई का प्रतीक बन गई है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Niyamgiri Residents Flee from Villages Due to Fear of Harassment

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