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पिछड़ों के सांप्रदायीकरण की योजना और दुविधा के प्रतीक थे कल्याण सिंह

वास्तव में कल्याण सिंह पिछड़ा वर्ग की उस दुविधा के प्रतीक थे जिसके तहत कभी वह जाति के अपमान से छूटने और सत्ता पाने के लिए सांप्रदायिक होने को तैयार हो जाता है तो कभी हिंदुत्व की ब्राह्मणवादी योजना से विचलित होकर उससे दूर भागता है।
Kalyan Singh

कल्याण सिंह को बढ़-चढ़ कर श्रद्धांजलि देने और राम मंदिर आंदोलन में उनके योगदान को सराहने की सुनामी आई हुई है। एक कारण तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को देखते हुए और पिछड़े वोटों को साधना है तो दूसरा कारण अपने उस अपराधबोध को भी दूर करना है जो संघ परिवार ने आडवाणी, कल्याण सिंह और उमा भारती को पीछे धकेल कर किया। साथ ही यह भी दिखाना है कि किस तरह संघ परिवार संविधान, सुप्रीम कोर्ट और लोकतांत्रिक नैतिकता को धता बताकर अपने शौर्य का नया आख्यान रचने में सक्षम है और उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

संघ प्रमुख मोहन भागवत और सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा है कि वे हिंदुत्व और भारतीय मूल्यों के प्रति समर्पित थे। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वे लोगों के विश्वास के प्रतीक बन गए थे। 

वास्तव में कल्याण सिंह पिछड़ा वर्ग की उस दुविधा के प्रतीक थे जिसके तहत कभी वह जाति के अपमान से छूटने और सत्ता पाने के लिए सांप्रदायिक होने को तैयार हो जाता है तो कभी हिंदुत्व की ब्राह्मणवादी योजना से विचलित होकर उससे दूर भागता है। यही वजह है कि जब उन्हें अंधेरे में रखकर बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया गया तो उन्हें मजबूरन अपनी सरकार कुर्बान करनी पड़ी। लेकिन जब बड़ी जातियों के नेतृत्व में चल रही सोशल इंजीनियरिंग योजना के कारण दरकिनार कर दिया गया तो उन्होंने दो बार भाजपा छोड़ी और अलग पार्टी बना डाली।

कल्याण सिंह संघ की उस राजनीतिक योजना के प्रतीक हैं जिसके तहत पिछडों और दलितों को ज्यादा कट्टर सांप्रदायिक बनाया जाना है। वे एक कुशल प्रशासक बताए जाते हैं लेकिन उनकी सारी कुशलता 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ ध्वस्त हो गई। एक कुशल प्रशासन संविधान से बंधा होता है। क्योंकि वह उसकी शपथ लेता है। अब कहा जा रहा है कि उन्होंने संविधान से ऊपर राम को महत्व दिया। यानी उनके लिए संविधान दोयम दर्जे की चीज थी और राम के नाम पर हिंसा पहले दर्जे की प्रतिबद्धता।

रोचक बात यह है कि एक ओर वे बाबरी मस्जिद विध्वंस की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देते हैं हालांकि यह जानते थे कि शाम तक उनकी सरकार बर्खास्त की जानी है अन्य भाजपा शासित राज्यों की सरकारों के साथ। एक ओर वे अदालत में साजिश के सबूत के अभाव में 2020 में बरी हो जाते हैं तो दूसरी ओर पोस्टर लगाए जाते हैं कि ‘जो कहा सो किया’।

भले ही उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना के आरोप में एक दिन की सजा काट ली लेकिन मस्जिद विध्वंस के बारे में उनका दोचित्तापन तब जाहिर हो जाता है जब वे सीबीआई अदालत से छूट जाते हैं। क्योंकि अगर जो कहा सो किया था तो उसे कुबूल भी करना था। यह भारतीय राजनीति की सावरकर वाली नैतिकता थी कि अपने अपराध को कभी स्वीकार न करो। दूसरे से करवाओ और खामोश हो जाओ। इसके ठीक उलट गांधी और भगत सिंह की नैतिकता थी जो कहते थे उसे स्वीकार करते थे और सजा भुगतते थे।

इसी के साथ कल्याण सिंह सेक्युलर राजनीति की उस विफलता के भी प्रतीक हैं जो पिछड़ों को समय रहते धर्मनिरपेक्ष राजनीति में दीक्षित नहीं कर सकी। सेक्युलर राजनीति का वह हिस्सा जो पिछड़ों के बूते पर खड़ा हुआ है और अपने को मंडल और समाजवादी राजनीति से जोड़ता है उसकी विफलता की एक प्रणाली कल्याण सिंह में दिखती है। अगर भाजपा और संघ परिवार बार बार अलग होने वाले कल्याण सिंह को अपनी ओर खींच सकती है तो जो सवर्ण भाजपा और संघ में चले गए हैं उन्हें क्यों नहीं धर्मनिरपेक्षता की ओर लाया जा सकता। यह सवाल कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्टों सभी से पूछा जाना चाहिए। जाहिर सी बात है कि उसके लिए जमीनी स्तर पर जिस तरह के काम की जरूरत है वह काम सेक्युलर राजनीति करने को तैयार नहीं है। जबकि संघ परिवार वैसा काम लंबे समय से कर रहा है।

संयोग से कल्याण सिंह पर पहली पुस्तक (मोनोग्राफ) मैंने ही लिखी थी। 1996 में वह पुस्तक राजकमल प्रकाशन के पचास साल होने पर यानी उनकी स्वर्ण जयंती के मौके पर प्रकाशित हुई थी। `आज के नेता राजनीति के नए उद्यमी’ शीर्षक से वह श्रृंखला चर्चित हुई थी और उसके संपादक थे आज के प्रसिद्ध समाजशास्त्री अभय कुमार दुबे। हालांकि पुस्तक लिखने के दौरान काफी कोशिश के बावजूद कल्याण सिंह से मुलाकात नहीं हो सकी। मुलाकातें उसके बाद हुईं। एक बार जब वे मुख्यमंत्री के रूप में पत्रकारों की सोसायटी जनसत्ता के भूमि पूजन के सिलसिले में गाजियाबाद आए और दूसरी बार तब जब वे जनक्रांति पार्टी बनाकर और अपनी मित्र कुसुम राय के साथ नोएडा में प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। उन पर दूसरी किताब उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी बालेश्वर त्यागी ने लिखी थी।

लेकिन उससे भी रोचक बात यह है कि जब हम लोग पुस्तक के विमोचन के लिए पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के आवास पर गए तो उन्होंने कल्याण सिंह की पुस्तक हाथ में लेते हुए उसके विमोचन पर कोई आपत्ति नहीं जताई। उनका कहना था कि वे हमारी मंडल राजनीति के ही एक किरदार हैं। उस पुस्तक के लिखते समय यह दिखाई पड़ रहा था कि एक दिन कल्याण सिंह भाजपा की सीढ़ी चढ़ते हुए प्रधानमंत्री तक बन सकते हैं। क्योंकि अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के साथ ही वे हिंदुत्व के नायक बन चुके थे। उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का उपाध्यक्ष भी बनाया गया था। लेकिन पार्टी का ब्राह्मणवाद पिछड़ी जाति के एक नेता को इतने ऊपर उठाने को तैयार नहीं था। पुस्तक इन तमाम सवालों पर विश्लेषण प्रस्तुत करती है। उसे कल्याण सिंह ने बालेश्वर त्यागी के माध्यम से मंगा कर पढ़ा और भाजपाई पत्रकारों ने भी देखा और चर्चा की। लेकिन भाजपाई पत्रकारों ने उस पर लिखने की जहमत नहीं की। हां सुधा पई और दूसरे कई राजनीतिशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने उत्तर प्रदेश पर अध्ययन के दौरान उसके विश्लेषण का इस्तेमाल किया। उसका संदर्भ उनके ग्रंथों में उपलब्ध है।

आज भले उत्तर प्रदेश के तमाम बड़े भाजपाई नेता कल्याण सिंह पर प्रशंसापूर्ण श्रद्धांजलि की वर्षा कर रहे हों लेकिन प्रदेश के उसी सवर्ण राजनीति के कारण कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद एक बार 1999 में पार्टी छोड़ी और दूसरी बार 2009 में। उन्होंने जन क्रांति पार्टी बनाई और अयोध्या आंदोलन के धुर विरोधी और संघ परिवार में पहले मौलाना मुलायम और आजकल अब्बाजान के नाम से चर्चित मुलायम सिंह यादव के साथ गठबंधन किया। हालांकि वे 2004 और फिर 2014 में भाजपा में लौटे। लेकिन उत्तर प्रदेश की कम आबादी वाली पिछड़ी जाति लोध से संबंधित होने के कारण वे अपनी जाति के आधार पर बड़ी राजनीति नहीं कर सकते थे। उनकी राजनीति को या तो मंडल से बल मिल सकता था या हिंदुत्व से।

कल्याण सिंह के राष्ट्रीय स्तर पर उठने में अटल बिहारी वाजपेयी से उनके बिगड़े संबंध भी आड़े आए और आड़े आय़ा आडवाणी और गोविंदाचार्य के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले का एक उपकरण होना। वे इस बात के प्रतीक हैं कि हिंदुत्व के मंडल के सिद्धांत और उससे जुड़ी जातियों की स्वायत्तता को अपने भीतर समाहित करने में कितनी दिक्कत हुई। आरंभ में तो मंडल आयोग के विरुद्ध संघ परिवार भड़क ही उठा था और उसी के लागू होते ही आडवाणी रथयात्रा लेकर निकल पड़े। लेकिन सेक्युलर विचार और राजनीति की दिक्कत यह थी कि उसने मंडल पर भरोसा करके यह मान लिया कि अन्य पिछड़ी जातियां हिंदुत्व के विरुद्ध गोलबंद हो जाएंगी और हिंदू समाज के सांप्रदायीकरण को रोका जा सकेगा। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, शरद यादव और रामविलास पासवान उसी राजनीति के प्रतीक थे। दक्षिण में द्रमुक पार्टी का नेतृत्व भी उसी उम्मीद को जगाता था।

लेकिन हिंदुत्व की योजना ज्यादा चालाक निकली और उसने मंडल आयोग की रपट और उससे निकले उस आरक्षण का परोक्ष विरोध तो किया और यदा कदा संघ परिवार के नेताओं से आरक्षण के विरोध में बयान भी दिलाए। लेकिन आडवाणी और वाजपेयी समेत भाजपा के किसी बड़े नेता ने मंडल आयोग की रपट का न तो औपचारिक विरोध किया और न ही उसके विरोध में संसद के पटल पर कोई प्रस्ताव रखा।

कल्याण सिंह और उनके राजनीतिक आका लालकृष्ण आडवाणी को डगमगाते देख संघ परिवार ने नरेंद्र मोदी के रूप में एक पिछड़े नेता पर दांव लगाना शुरू कर दिया था। एक ओर कल्याण सिंह यह कह रहे थे कि बाबरी मस्जिद गिराए जाते समय उन्हें अंधेरे में रखा गया तो दूसरी ओर लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान दौरे के समय कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाकर उन्हें सेक्युलर बताने का अपराध कर दिया। आडवाणी की चर्चा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई लेकिन कल्याण सिंह से पार्टी और संघ परिवार दुखी था। कल्याण सिंह ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने पर अंधेरे में रखे जाने वाली बात जनसत्ता अखबार से जुड़े दो पत्रकारों से हुई बातचीत में कही थी। एक सज्जन ने तो लिखा कि कल्याण सिंह कुछ कहना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पा रहे हैं। तो दूसरे ने साफ लिखा कि वे मान रहे हैं कि पिछड़ा होने के नाते उनकी सरकार को कुर्बान कर दिया गया।

आज जहां नरेंद्र मोदी हैं वहां कल्याण सिंह को होना चाहिए था। कल्याण सिंह तो हिंदुत्व की राजनीति में अपने योगदान के लिए 1992 से ही राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गए थे। वे 1967 से लगातार विधानसभा के लिए चुने गए। वे नौ बार विधायक बने। एक बार हारे। एक बार सांसद भी हुए। उनका राजनीतिक रिकार्ड और बायोडाटा हिंदुत्व की राजनीति में नरेंद्र मोदी से ज्यादा भारी था। नरेंद्र मोदी को 2002 से पहले तो कोई जानता भी नहीं था। आडवाणी के करीबी एक पत्रकार बताते हैं कि वे गृहमंत्री आडवाणी के बीएसएफ वाले विमान के अगले हिस्से में आलू के बोरों पर बैठे रहते थे। पत्रकार उन्हें जानते तक नहीं थे।

लेकिन गुजरात की सफल सांप्रदायिक प्रयोगशाला और वहां से जुड़े पूंजीपतियों और एनआरआई की मदद के कारण मोदी इतने शक्तिशाली हो गए कि उन्होंने भाजपा के अन्य दावेदारों को पछाड़ दिया। मोदी ने न सिर्फ भाजपा के राजनाथ सिंह, गडकरी और कल्याण सिंह जैसे नेताओं को पछाड़ा बल्कि अपने गुरु आडवाणी को भी किनारे कर दिया। वजह साफ थी कि पार्टी के चंदे का बड़ा हिस्सा गुजरात से आता था और 2009 में नरेंद्र मोदी ने आडवाणी को प्रचार के लिए पर्याप्त धन ही नहीं दिया। यानी कल्याण सिंह के मुकाबले हिंदुत्व के छोटे खिलाड़ी होने के बावजूद नरेंद्र मोदी ने कारपोरेट को साध कर अपना कद बड़ा कर लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदुत्व का पूरा आख्यान महज संघ कार्यकर्ताओं के प्रचार और मेहनत पर ही नहीं खड़ा हुआ है उसके पीछे कारपोरेट की लूट की योजना भी है। यानी दुष्प्रचार और लूट की योजना का जो समन्वय मोदी के साथ बन गया उसे कल्याण सिंह नहीं बना पाए और कुंठित होकर राज्यपाल के पद पर ही लटक गए।

हिंदुत्व की पिछड़ा वर्ग के सांप्रदायीकरण की योजना लंबे समय से चल रही थी लेकिन उत्तर भारत में उभरे दलित आंदोलन ने उसे झटका दिया (ज्यादा कांग्रेस को) और फिर वीपी सिंह ने मंडल आय़ोग के माध्यम से संघ की पिछड़ा राजनीति को भी चकित किया। भाजपा किस तरह से पिछड़ा वर्ग के नेतृत्व को तैयार कर रही थी और नरेंद्र मोदी ने उस योजना के शीर्ष पर अपनी जगह बना ली इसका वर्णन प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री कांचा इलैया अपनी चर्चित पुस्तक वफैलो नेशनलिज्म में किया है। उन्होंने नरेंद्र मोदी के उभार पर एक अध्याय ही लिखा है। कल्याण सिंह की दिक्कत यह रही कि वे उत्तर प्रदेश से आते थे जहां पर सवर्ण राजनीति भाजपा के केंद्र में है। वे उत्तर प्रदेश में अपना मजबूत खंभा गाड़ना चाहते थे लेकिन उनके सवर्ण प्रतिद्वंद्वियों ने कभी वैसा होने नहीं दिया। इसीलिए जो लोग उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग के स्थायी उभार की भविष्यवाणी कर रहे थे और कह रहे थे कि अब वहां कभी सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन पाएगा वे 2017 में ठगे से रह गए। भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्या को आगे करके दावा किया था कि वे ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन बना दिया योगी आदित्यनाथ को।

कल्याण सिंह का राजनीतिक मूल्यांकन हिंदुत्व की राजनीति के अंतर्विरोध के रूप में तो किया ही जाना चाहिए लेकिन उनका मूल्यांकन सेक्युलर राजनीति के मंडल आयोग की रपट पर किए गए अतिरिक्त विश्वास के रूप में भी किया जाना चाहिए। वीपी सिंह भले कल्याण सिंह के सबलीकरण को अपनी राजनीति के योगदान के रूप में देखते हों लेकिन सेक्युलर राजनीति कल्याण सिंह को अपने दायरे में नहीं रोक पाई। उल्टे उसने नीतीश कुमार जैसे लोगों को गंवा दिया और हुकुम देव नारायण यादव और सतपाल मलिक जैसे समाजवादियों को भी खो दिया। शरद यादव और रामविलास पासवान की गति भी वही हुई।

इसकी वजह साफ है कि संघ परिवार हिंदू समाज की विभिन्न जातियों के भीतर लंबी योजना के तहत काम करता है। वह न सिर्फ उनके वोट जुटाता है बल्कि उन्हें हिंदुत्व के विचारों में दीक्षित भी करता है। जबकि कम्युनिस्ट, सोसलिस्ट राजनीति सिर्फ राजनीतिक अभियान और वर्ग संघर्ष तक अपने को सीमित रखती है। मार्क्सवादी लोग जातियों में जाति के आधार पर काम नहीं करते और समाजवादी काम करते हुए कब जातिवादी हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। ऐसे में वे सिद्धांतकार धोखा खा जाते हैं जो भारतीय समाज के सेक्युलर बने रहने का सारा दारोमदार इसकी जातीय संरचना पर रखकर चलते हैं।

यह सही है कि कल्याण सिंह ने भारतीय संविधान के साथ छल किया और उसकी शपथ लेकर अपने दायित्वों का पालन नहीं किया और मुलायम सिंह ने उन्हीं दायित्वों का पालन करते हुए गोली चलवाई जिसकी आलोचना आज तक होती है। विडंबना है कि आज कल्याण सिंह की जय जयकार हो रही है और मुलायम सिंह को कोसने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता और आडवाणी को गिरफ्तार करने वाले लालू को तो खत्म ही कर दिया गया। इसलिए आज जरूरत संवैधानिक मूल्यों को समाज के विभिन्न तबकों में ले जाने की है। न कि यह यकीन करके बैठने में कि कोई जाति स्वाभाविक तौर पर सेक्युलर होती है और कोई जाति स्वाभाविक तौर पर सांप्रदायिक। आज सेक्युलर राजनीति की चुनौती यही है कि वह उन सवर्ण जातियों को अपने दायरे में लाए जो हिंदुत्व के खेमे में चले गए और साथ ही उन पिछड़ी और दलित जातियों को जाने से रोके जो तेजी से फिसल रही हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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