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आर्थिक दिक़्क़तों और मोदी की लोकप्रियता में क्यों है विरोधाभास?

साफ़ तौर पर अर्थव्यवस्था की हालत ख़राब है लेकिन लोग सरकार के किरदार के बजाए, अपनी दिक़्क़तों के लिए अन्य वजहों को खोजने की कोशिश कर रहे हैं।
आर्थिक दिक़्क़त
फाइल फोटो

भारत में इस वक़्त अभूतपूर्व आर्थिक मंदी छाई है, जिसे कुछ लोग आर्थिक आपात भी क़रार दे रहे हैं। मुख्य आर्थिक क्षेत्रों में विकास पूरी तरह सिकुड़ गया है, साथ में घरेलू और ग्रामीण खपत भी कम हो गई है। महंगाई और बेरोज़गारी बढ़ रही है, 'प्रत्यक्ष विदेशी निवेश-FDI' भी लगभग न के बराबर ही आ रहा है।

अगर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से तुलना करें तो आज की अर्थव्यवस्था साफ तौर पर कमजोर है, इसका ग्रामीण गरीबों, शहरी अनौपचारिक क्षेत्र और मध्यम वर्ग पर बहुत बुरा असर पड़ा है। लेकिन पिछली सरकार के उलट, इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर कोई नाराज़गी नहीं है। हालिया सर्वे के मुताबिक़ उनकी लोकप्रियता 68 फ़ीसदी के ऊंचे पैमाने पर है।

पिछली सरकार में प्याज़ के दाम बढ़ने पर कई विरोध प्रदर्शन हुए थे। महंगाई को जनता-विरोधी बताया गया था। आज बिलकुल उलटे हालात हैं। महंगाई लोकप्रिय राजनीति में कोई मुद्दा ही नहीं है। जबकि लोग लगातार परेशान हो रहे हैं। आखिर इतने कम वक़्त में ऐसा बदलाव कैसे आया? कोई भी सीधे तौर पर इसके लिए मीडिया की भूमिका और बहुसंख्यक धार्मिकता का प्रभाव समेत दूसरे कारण बता सकता है। लेकिन यह सब सतही बातें हैं। दरअसल आज जो हो रहा है, वह विमर्श की शर्तों, सामाजिक-राजनीति मुद्दों को समझने और लोगों के सोचने के ढंग में ही बदलाव कर रहा है।

धीमी होती अर्थव्यवस्था के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व की बढ़ती लोकप्रियता को बेहतर ढंग से समझने के लिए मैंने विंध्य क्षेत्र के दक्षिण में जातीय सर्वे किया। इस क्षेत्र में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पकड़ गंगा के इलाकों की तुलना में कई वजहों से कमजोर मानी जाती है। मुझे लगा कि ऐसा करने से आज की वास्तिविक स्थितियों का ज़्यादा बेहतर भान हो पाएगा। इसके लिए मैंने तेलंगाना में हैदराबाद से 50 किलोमीटर दूर स्थित एक कस्बे और एक गांव की यात्रा की। मैंने ''सजग'' नागरिकों के साथ ज़्यादा वक़्त बिताने का फ़ैसला किया, यह लोग आज बन रहे हालातों और उनके प्रभावों की ज़्यादा बेहतर समझ रखते हैं।

इस दौरान मैंने सरकारी स्कूल के शिक्षकों और स्थानीय व्यापारियों से बात की। यह चाय के दौरान अनियमित किस्म की चर्चाएं थीं। आश्चर्यजनक तौर पर मुझे उन तरीकों की समझ बनी, जिनसे किसी मुद्दों को खास ढांचे में बदला जाता है, तब मुझे समझ में आया कि क्यों आर्थिक दिक्कतों के बावजूद शिक्षक और व्यापारी वर्ग मोदी का समर्थन ही नहीं, उनकी प्रशंसा भी कर रहा है।

जिन शिक्षकों से मैंने बात की, उन्होंने मोदी द्वारा हाल में लिए गए सभी फ़ैसलों का समर्थन किया। इसमें नोटबंदी, जीएसटी, अनुच्छेद 370 को हटाया जाना, अयोध्या में मंदिर विवाद का निपटारा और बालाकोट एयरस्ट्राइक शामिल थे। यहां एक शिक्षक की टिप्पणी बहुत ग़ौर करने वाली थी, उन्होंने कहा था, ''शब्द, काम से ज़्यादा अहमियत रखते हैं।'' मतलब अच्छा संचार समावेशी होता है, इससे संबंधित व्यक्ति की मंशा के बारे में झलक मिलती है, यह किसी फ़ैसले से मिलने वाले नतीजों के आधार पर बनने वाली समझ से बेहतर होती है।”

शिक्षक की यह टिप्पणी, बीजेपी के हालिया नारे- ''साफ नीयत, सही विकास'' से बहुत कुछ मिलती है। लेकिन अब भी एक शक बना हुआ है। क्या मौजूदा सत्ता अपने पक्ष में सहमति ''बनाती'' है या इसका पूर्ण ''निर्माण'' करती है। या फिर यह एक जनता की 'स्वाभाविक नैतिकता' का ''प्रतिनिधित्व'' करती है।

सच्चाई हमेशा प्रतीकों से भ्रमित की जाती रही है। लेकिन किसी बिंदु पर इसके बनने का आधार कई कारकों पर निर्भर करता है, यह कारक भौतिक/स्पृश्य या सांस्कृतिक/अप्रांसगिक/अस्पृश्य हो सकते हैं।

मौजूदा सत्ता के दौरान अस्थायी और हवा-हवाई कल्पनाओं का खूब राजनीतिकरण किया गया। मोदी ने लोगों को अपने शासन की तुलना कांग्रेस के 70 सालों से करने का आमंत्रण दिया। किसी को भी विश्लेषण करते वक़्त यह ध्यान रखना चाहिए कि मोदी की सफलता बहुत छोटे वक़्त का हासिल है, जबकि उनकी असफलताओं को ज़मीनी सच्चाईयों में पकने के लिए लंबे वक़्त की जरूरत है। 

सर्वे के दौरान कई शिक्षकों ने कहा कि मोदी ने ''कश्मीर और अयोध्या जैसे लंबे वक़्त से लंबित पड़े मामलों पर कार्रवाई की।'' जबकि कांग्रेस टालमटोल का रवैया अपना रही थी। ठीक इसी वक़्त शिक्षकों ने यह भी माना कि नोटबंदी से भ्रष्टाचार दूर नहीं हुआ और जीएसटी ने अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान पहुंचाया है, लेकिन ''किसी को भी अच्छे नतीज़ों के लिए इंतज़ार करना चाहिए।'' वह यह सोचकर शांति पा लेते हैं कि ''दुनिया में भारत को पहचान मिल रही है।'' मोदी हिंदी में भाषण देकर, हाथ मिलाने के बजाए ''नमस्ते'' कहकर भारत को अच्छी तरह से पेश कर रहे हैं।

ऐसे विचारों से हमें अंदाजा होता है कि लोग सच्चाई को उस व्यवहार से महसूस करते हैं, जिन्हें वो खुद ठीक ढंग से समझते हैं।

स्थानीय व्यापारी समुदाय से बातचीत में भी बहुत कुछ नया जानने वाला मिला। स्थानीय व्यापारियों को आर्थिक मंदी का ठीक-ठाक नुकसान हुआ है। बल्कि स्थानीय लोगों से संपर्क करवाने और मेरे साथ रहकर उन्होंने मेरी मदद की, ताकि मुझमें इस नुकसान की बेहतर समझ बन सके। लेकिन मुझे उस वक़्त अंचभा हुआ, जब इन व्यापारियों ने मोदी के नेतृत्व को पूरा समर्थन दिया, इस दौरान इन्होंने बिना किसी अपवाद के हालिया महीनों में खुद के नुकसान की बात भी मानी।

मैंने जब उनसे पूछा कि क्या जीएसटी और नोटबंदी से यह नुकसान हुआ है, तो उन्होंने कहा, ''जो गलत हैं, केवल वही शिकायत कर रहे हैं।'' कई तरीकों से नोटबंदी ने खुद के भीतर देखने वाली लोगों की नज़र को बदला है। मूल्यांकन के लिए एक दूसरी नैतिक नज़र पैदा की है। इस हिसाब से देखा जाए तो यह महज़ आर्थिक कदम नहीं है। 

जीएसटी के मुद्दे पर एक स्थानीय मेडिकल स्टोर के मालिक ने कहा, ''मैं ईमानदार हूं, इसलिए मुझे इससे फर्क़ नहीं पड़ा।'' कर का नया ढांचा सभी के भले के लिए ही लाया गया है।

अपराध बोध और सामूहिक भाईचारा, आत्म-अनुशासन और विरोध ने अपनी स्थितियां बदल चुके हैं। जब मैंने उनसे जोर देकर पूछा कि सामूहिक भाईचारे की भावना से नुकसान को सही कैसे ठहराया जा सकता है, तो उसने कहा ''नुकसान के लिए कुछ दूसरी वजह भी थीं। इसमें मेरी 'तकनीकी बदलावों के हिसाब से ढलने की अक्षमता' भी शामिल है। जिन लोगों ने ऑनलाइन कंप्यूटर उपयोग करना सीख लिया, वो बेहतर कर रहे हैं।''

नई असलियत से तालमेल बिठाने के लिए ऐसी चीजों को मानना जरूरी है, जिन्हें संबंधित व्यक्ति नहीं समझ सकता। यह तकनीकी बदलाव हो सकते हैं या मोदी द्वारा वैश्विक पैमाने पर की जा रही नई भूराजनीति। कोई इन बदलावों का संबंध दैनिक जीवन में पड़ने वाले असर से ही बता सकता है। अगर किसी स्थिति में ऐसा भी संभव नहीं हो पाएगा, तो व्यक्ति बदलावों के पीछे चल पड़ेगा या मान लेगा कि उसमें इन्हें समझने की क्षमता नहीं है। 

एक और छोटे व्यापारी का जिक्र यहां जरूरी है। उसने मुझसे फरवरी, 2019 में हुई एयरस्ट्राइक के बारे में बात की। व्यापारी ने कहा,''चलो मान भी लिया जाए कि स्ट्राइक की बात झूठ है और ऐसी कोई स्ट्राइक ही नहीं हुई, तो भी इनसे भारत की क्षमता के बारे में तो पता चल ही जाता है।''

इसलिए आज जो हो रहा है, वह महज़ ''पारंपरिकता की खोज'' से ज़्यादा है। यह पागलपन से थोड़ा ही कम है। इससे समझ आता है कि लोग ''अधिकारवादी या तानाशाही'’ का अंतर ''अधिकारपूर्ण'' होने से कर रहे हैं, इसी अंतर से लोग खुद को ज़्यादा प्रामाणिक पाते हैं। 

इस सर्वे को DSA, CPS, JNU ने प्रायोजित किया था।

लेखक सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। उन्होंने हाल में प्रकाशित हुई Secular Sectarianism: Limits of Subaltern Politics को संपादित किया है। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Modi’s Popularity Graph and Economic Hardships Don’t Match

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