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एनआरसी-सीएए: पुलिस बर्बरता ने पिछली अपमानजनक घटनाओं की यादें ताजा करा दी हैं

जिस पैमाने पर शहरों में पुलिसिया बर्बरता देखने को मिली है, उससे ऐसा लगता है कि छोटे शहरों और गाँवों में तो कहर बरपा होगा।
police brutality

समाचारों की रिपोर्टों से इस बात की जानकारी मिल रही है कि सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा ले रहे लोगों के साथ पुलिस ने ज्यादती की हदें पार कर दीं हैं। पुलिसकर्मियों ने महिलाओं को पेट पर लात और घूंसे बरसाए, उनके कपड़ों को खींचा गया, बुर्के और हिजाब उतरवाये गए, गलत तरीके से उन्हें छुआ और उनके शरीर को लेकर भद्दी टिप्पणियां कीं गईं। 0 जनवरी को द टाइम्स, यूके में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में ह्यूग टॉमलिंसन और सौरभ शर्मा लिखते हैं: एक अधिकारी ने चिल्लाते हुए 29 वर्षीया सलमा हुसैन की ओर इशारा करते हुए कहा "उसका पर्दा निकालो और पता करो कि कहीं यह पुरुष तो नहीं है", इस अपमान को याद करते हुए वे रो पड़ती हैं।

महिलाओं को मसला गया और जब वे उन्हें पीट रहे थे तो उनके स्तनों को लेकर टिप्पणियाँ की गईं। 26 साल की तबस्सुम रज़ा ने बताया "एक आदमी ने मेरे सिर पर बंदूक रख दी," और उसने कहा: “बता आदमी कहाँ छिपे हैं, नहीं तो मैं तुझे गोली मार दूंगा।"

यहां तक कि राजधानी में भी जो महिलाएं बुर्का और हिजाब में थीं और उन्होंने विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था, ऐसी खबरें हैं कि उन्हें भी पुलिस ने निशाने पर लिया था। लखनऊ में रहने वाली एक्टिविस्ट सदफ जफ़र ने बताया कि कैसे एक खास पुरुष पुलिस अधिकारी ने उन्हें बालों से खींचा, और उनके पेट पर मुक्कों और लातों की बरसात तब तक करता रहा, जब तक कि खून बहना नहीं शुरू हो गया। जनता के इन ‘रखवालों’ से उन्हें बार-बार ‘पाकिस्तान चले जाओ’ जैसी सांप्रदायिक घृणास्पद भाषा से दो-चार होना पड़ा।

जिस पैमाने पर बड़े शहरों में बर्बरता देखने को मिली हैं, उससे तो यही लगता है कि छोटे शहरों और गांवों में कहर बरपा होगा। जेलें चाहे खुली हों या बंद, गिरफ्तार किये गए लोग पुलिस की दया के मोहताज हैं। कौन सा ऐसा कैदी होगा, जो इन बर्बरतापूर्ण कारगुजारियों को जो उनके साथ बीती हैं, की कानाफूसी तक करने की भी हिम्मत करेगा!

आज के दिन दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक हुक्मरानों और बाबुओं से भी कहीं अधिक क्रूर लोगों को आधिकारिक पदों पर चुन-चुन कर उनकी भर्ती की जा रही है, जहाँ से वे सत्ताधारी दल के एजेंडा को और आगे बढ़ाने का काम करते हैं। जबकि राष्ट्रीय टेलीविज़न पर विशेषज्ञों की टीम पुलिस बल में और अधिक पुरुष और महिला कर्मियों की भर्ती किये जाने के मंत्रोच्चार में लीन हैं।

मैं तो सुझाव देना चाहूंगी कि भारत में मौजूदा शक्तियों को तो सबसे पहले संवेदनशील और मानवीय बनाये जाने पर जोर देना चाहिए। इसके साथ ही भर्ती की प्रकिया को भी पूरी तरह से पारदर्शी बनाए जाने की आवश्यकता है, इस पृष्ठभूमि में तो और भी अधिक है, जो दक्षिणपंथी पुरुषों में देखने को मिल रही हैं:

महिलाओं को पुलिस बल द्वारा धक्का देने, खींचने और थप्पड़ मारने की हालिया तस्वीरें सुन्न कर देने वाली हैं। वे याद दिलाती हैं कि किस प्रकार से अक्सर कश्मीर घाटी में पुलिस और सुरक्षा बल हिंसा में लिप्त रहते हैं। मैं खुद कश्मीरी पुरुषों, महिलाओं और यहां तक कि बच्चों को घाटी की सड़कों, गलियों और संकरी-गलियों में पुलिस बर्बरता की गवाह रही हूं।

मुझे भी पुलिस के हिंसक तौर-तरीकों की भुक्तभोगी होने का मौका मिला है, उनकी भद्दी और अपमानजनक सुरक्षा तलाशियां बीमार मानसिकता से ग्रस्त हैं। इस प्रकार के सिर्फ एक अनुभव को मैं यहाँ पर साझा करना चाहती हूँ। श्रीनगर हवाई अड्डे पर चेक-पोस्ट पर तैनात एक अति उत्साही महिला पुलिसकर्मी ने मेरे शरीर का निरीक्षण अपने हाथों से, जितना वह कर सकती थी उसने किया, और जैसे ही मैं चलने को हुई, वह मेरी ओर झुकी और पास आकर बोली, “यह क्या है... ये लंबी सी चीज यहाँ... कुछ बाहर निकलता हुआ.... जैसा कि पिछले अपहरण में...”

"मैं अपने मासिक धर्म के दौर से गुजर रही हूँ” मैंने फुसफुसाते हुए स्वर में जवाब दिया।

"मैडम, छोटावाला..."।

"काफी ज्यादा स्राव हो रहा है..." मैंने बताने की जैसे ही कोशिश की थी कि वह एकाएक पीछे हट गई और "अय्यो!" चिल्लाते हुए मुझे जल्दी से आगे बढ़ने के लिए कहा, जैसे कि मैं उसकी खाकी वर्दी को ही कहीं खून से सान देने वाली थी!

लेकिन मेरी दुर्दशा की कहानी उस बुजुर्ग कश्मीरी महिला यात्री की तुलना में कुछ भी नहीं थी, जो मेरे पास ही खड़ी थीं। उन्हें तो अपना चश्मा, चप्पलें, मोज़े, अपनी पतली भूरी चोटी को खोलने, कुर्ते को उठाने और अपने दुपट्टे को हटाने तक के लिए कहा गया था। और इस सब के अंत में, वह इतनी घबराई हड़बड़ाई हुई थीं कि उन्होंने अपने शलवार के नाड़े तक को खोल दिया और उसे नीचे सरका दिया। काँपते हुई बाहों के साथ वह बुदबुदाई, “यही एक जगह बच गई है, जिसकी तलाशी बाकी रह गई थी!"

यह खास घटना 2002 के आसपास श्रीनगर हवाई अड्डे पर घटी थी। वर्षों बीत चुके हैं, लेकिन उन अपमानजनक और भयावह आशंकाओं के दौर की यादों को मिटा पाना संभव नहीं हो पा रहा है। जबकि कश्मीरियों को इस प्रकार के सदमों से हर रोज दो-चार होते रहना पड़ता है। अगर उनके साथ छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार या यहाँ तक कि बलात्कार की घटना भी हो जाये तो वे खुलकर रो भी नहीं सकते।

आपको इस पर विचार करने के लिए छोड़े जा रही हूँ: जल्द ही निर्भया मामले में बलात्कार के चारों दोषियों को फांसी होने वाली है - हालांकि, निश्चित तौर पर इससे पहले सुनवाई के लिए दया याचिका की अर्जी पेश की जाये – मेरे मन ही मन में सोच रही थी कि, हम आखिर इन चारों को फाँसी पर लटका ही क्यों रहे हैं? हमारे चारों तरफ बलात्कारी मंत्री, संतरी, स्वामियों और बाबाओं की भीड़ जमा है, लेकिन इन सबके बावजूद वे छुट्टे सांड की तरह घूम रहे हैं, इतने ताकतवर और जोड़-तोड़ में माहिर हैं ये लोग, और इनके तार उच्च पदों पर आसीन लोगों से इतने गहरे तक जुड़े हैं कि इन्हें फाँसी पर लटकाने की बात तो भूल ही जाइए, इन्हें कानून हाथ तक नहीं लगा सकता है।

ऐसे में सोचिये उन छेड़-छाड़ करने वालों और बलात्कारियों के साथ क्या होता होगा, जो इन तथाकथित युद्ध क्षेत्रों या "अशांत क्षेत्रों" में तैनात सुरक्षा बंदोबस्त में लगे हुए हैं? वे तो उन "विशेष" कानूनों के तहत पहले से ही संरक्षित हैं। इसके साथ ही यह भी जोड़ना चाहूंगी कि यदि राज्य किसी को पैदा नहीं कर सकता, तो उसे किसी को मार डालने का भी हक नहीं है, और तब तो कहीं ज्यादा यदि वह इंसान बेहद पछतावे से भरा हो और जिन्दा रखे जाने की भीख माँग रहा हो।

क्या बलात्कारियों से निपटने के लिए इससे बेहतर उपाय भी निकाले जा सकते हैं? क्या इन चारों दोषियों को फांसी पर लटकाने के बजाय, बाकी की बची जिन्दगी जेलों में ही रखकर काम पर खटाने में नहीं लगाया जाना चाहिए? वे कहते हैं न कि पश्चाताप की भावना के साथ पूरी जिन्दगी काट देना और सारी जिन्दगी माफ़ी की भीख माँगते रहना कहीं अधिक कठिन है, बनिस्बत कि एक ही झटके में मौत की नींद सुलाकर उसे हमेशा के लिए मुक्ति दे देना ... एक बार इसके बारे में भी सोचकर देखें!

(लेखिका स्वतंत्र स्तंभकार और टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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