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दिल्ली हिंसा का एक साल: आज भी दंगों के ज़ख़्म के साथ जी रहे हैं पीड़ित, इंसाफ़ का इंतज़ार

दंगा पीड़ितों के ज़ख़्म आज भी हरे हैं। वे न पुलिस प्रशासन की कार्रवाई से संतुष्ट हैं न दिल्ली सरकार की कार्रवाई से। हर कोई यही कहता है- "हमें बस न्याय मिले और गुनहगारों को सज़ा मिलनी चाहिए।"
दिल्ली हिंसा का एक साल

दिल्ली हमले/दंगे को एक साल हो गया है। बाहर से शहर की सड़कें पहले की तरह शोरोगुल और भीड़ से भरी दिखती हैं लेकिन आज भी जब उत्तर पूर्व दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाको में जाते हैं तो वहां हिंसा के निशान दिख जाते हैं। जब दंगा पीड़ितों से मिलते हैं तब इस हक़ीक़त का पता चलता है कि जो ज़ख़्म इस दंगे ने दिए वो आज भी हरे हैं। सरकारों ने भी उनपर मरहम लगाने के लाख दावे किए लेकिन वो घावों को सुखा तक ना सकी है।

ऐसे ही एक दंगा पीड़ित मो. मुमताज़ शेरपुर चौक में चिकन कॉर्नर चलाते थे और उनका पूरा संयुक्त परिवार खजुरी एक्सटेंशन में रहता था। वो आज भी दंगे के निशानों को मिटाने की कोशिश ही कर रहे हैं। जब न्यूज़क्लिक की टीम उनके घर पहुंची तो वो अपने घर में पेंट और बाकी फर्नीचर का काम करा रहे थे।

आपको बता दें कि मुमताज़ का घर और दुकान दोनों को ही दिल्ली दंगे में हिंसक भीड़ ने पूरी तरह जला दिया था। मुमताज़ ने बताया कि चूंकि 23 फरवरी को रविवार था, लिहाज़ा उस दिन दुकान पर ग्राहकों की बड़ी भीड़ थी। “मैंने देखा कि शेरपुर चौक जो कि मेरी दुकान से डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर है, वहाँ पर 300 से 400 लोगों की भीड़ है।” मुमताज़ ने सुना भीड़ “जय श्री राम”, “मोहन सिंह बिष्ट जिंदाबाद” और “कपिल मिश्रा जिंदाबाद” के नारे लगा रही थी।

“रात के लगभग 8 बजे एक भीड़ वहाँ से आई और मेरी दुकान पर पत्थरबाजी करने लगी।” मुमताज ने आगे कहा, “इससे बचने के लिए मैं और मेरा स्टाफ टेबल के नीचे छिप गए। हम अपनी जान बचाते हुए दुकान के पिछले दरवाजे से भाग गए।”

मुमताज़ का आरोप है कि रविवार 23 फरवरी 2020 को स्थानीय विधायक मोहन सिंह बिष्ट के नेतृत्व में एक भीड़ ने उनकी दुकान पर हमला किया और उनके गल्ले में रखे 70-80 हज़ार रुपये भी लूट लिए। उन्होंने बताया कि बड़ी मुश्किल से वो खुद की और बाकी सहयोगियों की जान बचाकर वहाँ से भागे थे। इसके अगले दिन ही एकबार फिर उसी भीड़ ने उनके घर को पूरी तरह से जला दिया और सिर्फ उनके ही घर को नहीं बल्कि उनकी और बगल की गली जिसमें लगभग पूरी आबादी मुस्लिमों की थी उसे फूँक दिया गया था।

वे बार-बार बातचीत में इस हिंसा के लिए बीजेपी के स्थानीय नेता और विधायक पर आरोप लगा रहे थे। लेकिन साथ ही वो इस बात से ज़्यादा आहत थे कि उन्हें उनके साथियों ने धोखा दिया। "मैंने भी चुनाव में बीजेपी को वोट दिया था और विधायक मोहन सिंह बिष्ट को जिताने के लिए पूरी मेहनत की थी। यही नहीं मैंने अपने घर में भी बीजेपी का चुनाव कार्यालय बनाया था। लेकिन उन्होंने ही मुझे गाली दी और मेरे घर को जला दिया।"

हमनें उनसे जब पुलिस कार्यवाही के बारे में पूछा तो उन्होंने साफ कहा कि पुलिस भी तो उनके ही साथ है। हमने पूछा जब आप अधिकतर आरोपियों को पहचानते हैं तो फिर उनके नाम से प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं कराई? इस पर उन्होंने बताया, "हम सभी के नाम सहित पूरी शिकायत थाने में लेकर गए लेकिन पुलिस ने कहा कि ये मत लिखो जो हम कह रहे हैं वो लिखो। उसके बाद जब हमने नए पत्र में ये लिखा कि हिंसक भीड़ बार-बार जय श्री राम के नारे लगा रही थी तो पुलिस ने उसे भी कटवाकर दंगाई लिखवा दिया था।

इन आरोपों पर कारवां पत्रिका से बात करते हुए मोहन सिंह बिष्ट ने जवाब दिया था, “लोग किसी का भी नाम ले सकते हैं। हिंसा में मेरा कोई हाथ नहीं था।”

मुमताज़ के पिता ज़हीर जो 1977 में बिहार के खगड़िया से दिल्ली आए और फूड कॉरपोरेशन ऑफ़ इण्डिया में नौकरी करते थे, वो 2018 में ही वहां से रिटायर हुए थे। उन्होंने कहा, "जब मैं रिटायर हुआ तो मुझे लगा कि अब मैं सुकून से ज़िंदगी बिताऊंगा क्योंकि मेरे सभी बच्चे अपना कारोबार कर रहे थे और घर-मकान भी बन गया था लेकिन इस दंगे ने पूरी जिंदगी बदल कर रख दी। इस दंगे के बाद हमारे सभी बच्चों का कारोबार बंद हो गया और घर पूरी तरह जल गया। सरकार ने हमारे घर का मुआवज़ा तो दे दिया लेकिन उतने में आधा भी घर रहने लायक नहीं बन सका जबकि कारोबारों के नुकसान का हर्ज़ाना सरकार ने आजतक नहीं दिया है। पिछले एक साल से हम किराये पर रहने को मजबूर हैं। उन्होंने कहा ऐसा मंज़र उन्होंने कभी नहीं देखा था।

इसी तरह बिहार के बेगूसराय से आए प्रवासी मज़दूर रामसुगारत पासवान जो दिल्ली में कई दशकों से रिक्शा चलाते हैं। वो गोकलपुरी के बी-ब्लॉक में एक छोटे से मकान में किराये पर रहते हैं। उन्होंने इस दंगे के दौरान अपने 15 वर्षीय किशोर बच्चे नितिन जो नौवीं कक्षा में पढ़ता था उसको खो दिया। परिवार का कहना है कि उसकी मौत सर पर पुलिस के आंसू गैस के गोले लगने से हुई जबकि पुलिस ने कहा कि वो भीड़ को तितर-बितर करने के दौरान गिर गया जिस वजह से उसके सर में चोट आई। और इसके बाद इलाज के दौरान उसने अपना दम तोड़ दिया था।

हालाँकि न्यूज़क्लिक से बातचीत के दौरान नितिन के पिता रामसुगारत पासवान और माँ जिनका रो-रो कर बुरा हाल था, उन्होंने पुलिस के इस पूरे दावे को सिरे से खारिज़ किया और कहा हमारा बेटा चाऊमीन लेने के लिए 26 फरवरी 2020 को गया था जब इलाके में सब कुछ ठीक हो गया था। पुलिस ने उसे मार दिया।

रामसुगारत ने कहा, "हमारे इलाके में कुछ लोगों ने एक मीट की दुकान पर हमला किया और एक मस्ज़िद पर भी हमला किया था लेकिन ये सब 24-25 फरवरी को हुआ था। 26 को सब शांत था तभी हम भी कुछ देर के लिए बाहर निकले थे। और उसके कुछ देर बाद ही मेरा छोटा बेटा नितिन भी गया था।

नितिन की माँ कहती हैं, "पुलिस ने ही मेरे बेटे को मारा है और अब झूठी कहानी बना रहे है।" उन्होंने रूंधती आवाज़ में कहा, "वो शरीर से भी काफी लंबा था और वो पढ़ने में भी बहुत होशियार था। लेकिन पुलिसवालों ने मेरे बेटे को मार दिया।”

शाबान जिनकी मौत गोली लगने से हुई थी वो एक वैल्डिंग-मिस्त्री थे और उनकी अपनी दुकान थी। वो दंगे के दौरान ही कहीं से काम करके लौट रहे थे और बीच रास्ते में ही वो हिंसक भीड़ की गोली का शिकार हो गए थे। वो अपने घर के प्रमुख सहारा थे। पूरे परिवार का गुज़ारा उनकी ही कमाई से हो रहा था लेकिन हिंसा में उनकी मौत के बाद से परिवार को आज अपना जीवन निर्वाह करने में कई तरह की समस्याएं हो रही हैं।

उनके छोटे भाई फ़ैज़ान और उनकी माँ ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए पुलिस की जाँच को लेकर भी संदेह जताया और उनकी मौत के कारण पर भी उन्हें शक है। फ़ैज़ान ने बातचीत के दौरान जोर देकर कहाँ, "मेरे भाई की जांघ में गोली लगी थी और उसकी मौत हो गई। लेकिन जांघ में एक गोली लगने से कोई मर सकता है? मेरा भाई शरीर से भी काफी मजबूत था। उन्हें समय रहते ठीक इलाज नहीं मिला इसलिए उनकी मौत हुई है।"

उन्होंने पुलिस की अभी तक की जाँच पर भी सवाल उठाए और कहा, "जाँच के नाम पर हमें ही थाने कई बार बुलाया है लेकिन आज एक साल हो गए और अभी तक इस मामले में चार्जशीट तक दायर नहीं हुई है और न ही किसी की गिरफ़्तारी हुई।" उन्होंने यह भी बताया जब वो इन बातों को लेकर पुलिस से सवाल करते हैं तो उनका जबाब होता है जाँच अपने तरीके से होगी न की तुम्हारे कहने से।

वे कहते हैं, "भाई जबतक थे हमें किसी भी तरह की समस्या नहीं होने दी और उन्होंने मुझे बाईक भी दिलाई थी जो आज भी हमने उनकी याद में रखा हुआ है। घर और दुकान का किराया भी वही चुकाते थे लेकिन उनकी मौत के बाद अब बुज़ुर्ग और बीमार पिता जी को भी मज़दूरी करनी पड़ती है और मुझे भी जो काम मिलता है वो करता हूँ।"

उनकी माँ ने कहा की उसके जाने के बाद से परेशानी ही परेशानी हुई है।

अशफ़ाक़ जिनकी उम्र 22 वर्ष थी और वो एक बिजली के कारीगर थे। उनकी मौत से 5-7 दिन पहले ही उनका निकाह हुआ था और 25 फरवरी को ही वो दिल्ली आए थे जहाँ वो लंबे समय से परिवार के साथ रहते थे। उनके पिता आगाज़ ख़ान जिनकी उम्र लगभग 55 वर्ष थी उन्होंने कहा, "हमारे परिवार में बच्चे की शादी के बाद ख़ुशी का माहौल था लेकिन उस घटना के बाद हमारे परिवार में केवल ग़म ही ग़म है। उसके बाद से हमने कोई भी ख़ुशी नहीं मनाई है। आज भी हमारे घर में उसके शादी के कपड़े रखे हुए हैं।”

कई स्थानीय लोगों ने अशफ़ाक़ को याद करते हुए कहा कि वो बहुत ही अच्छा लड़का था उसने कभी हिन्दू-मुसलमान नहीं किया। वो मंदिर,मस्जिद या कसी भी धर्म के पूजा स्थल पर काम करने के बदले में पैसा नहीं लेता था।

अशफ़ाक़ के पिता रोते हुए केवल एक ही बात कहते हैं, "मेरे बच्चे को इंसाफ़ मिलना चाहिए और इस पूरे दंगे के ज़िम्मेदार लोगों को कानून सजा दे चाहे वो किसी भी धर्म के हों। लेकिन वे भी पुलिस की जाँच से खुश नहीं थे। वे भी कहते हैं कि एक साल हो गया अभी तक इस मामले में कुछ नहीं हुआ है।

30 वर्षीय आमिर और उनका छोटा भाई हाशिम जिसकी उम्र लगभग 19 साल थी। ये दोनों भाई इस हिंसा में मारे गए। आमिर के नाना की तबीयत खराब थी और आमिर व हाशिम अपने नाना को देखने ग़ाज़ियाबाद गए थे लेकिन उस बीच जिले में हिंसा हो गई। परिजनों के कहने पर दोनों ग़ाज़ियाबाद ही रुके रहे। इस बीच 26 फरवरी की रात को दोनों अपनी बाइक से भागीरथी विहार होते हुए घर लौट रहे थे। इस बीच दंगाइयों ने भागिरथी विहार नाले की पुलिया पर उनको रोक लिया। इसके बाद दोनों की बेरहमी से हत्या कर शव को जलाकर नाले में फेंक दिया गया। हत्या से पांच मिनट पहले ही हाशिम की परिवार से बात हुई थी, उसने कहा था कि वे घर के पास ही हैं और पांच मिनट में पहुंच जाएंगे।

आमिर जिनकी शादी हो चुकी थी और उनकी तीन बेटियाँ हैं। उनकी सबसे छोटी बेटी का जन्म उनकी मौत के पांच महीने बाद जुलाई में हुआ जिसकी देखभाल आमिर की माता असगरी, पिता बाबू खान और आमिर की बीवी सबीना कर रही है जिनकी उम्र केवल 28 साल है। सबीना ने हमसे बात करते हुए कहा, "आमिर के जाने के बाद उनकी याद आती है। बच्चे भी अब्बू-अब्बू बोलते हैं और रोते हैं लेकिन अब उन्हें मैं क्या कहूं? उन्होंने आमिर को याद करते हुए कहा वो एक बात हमेशा बोलते थे की उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाना है और वो उन्हें डॉक्टर बनाएँगे मैं कुछ भी करके अपने बच्चो को ज़रूर पढ़ाऊंगी।"

उन्होंने सरकार से एक अपील की और कहा कि सरकार उन्हें कोई भी नौकरी दे दे जिससे वो अपने बच्चों का भविष्य बना सके। क्योंकि अब उनका और बच्चों का सहारा कोई नहीं है। मम्मी-पापा (सास ससुर) की भी उम्र हो गई है।

आमिर के परिवार ने भी पुलिस जाँच पर अपना असंतोष जताया और कहा, "हमें बस न्याय मिले और गुनहगारों को सज़ा मिलनी चाहिए।"

आपको बता दें कि पिछले साल फरवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए जिसमें 53 लोगों की जान गई और करोड़ों की संपत्ति जलकर ख़ाक हुई थी। इस पूरे इलाके में कई दिनों तक हिंसा का तांडव होता रहा लेकिन पुलिस प्रशासन मूक दर्शक बना रहा। इसके बाद आज एक साल हो गए लेकिन पुलिस की जाँच किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंची है। बल्कि लोग पुलिस की जाँच पर भी लगातार सवाल उठा रहे हैं।

हालाँकि दिल्ली पुलिस के अधिकारी इन आरोपों को मीडिया के माध्यम से लगातार नकारते रहे हैं। 19 फरवरी को दिल्ली पुलिस के सालाना प्रेस वार्ता में पुलिस आयुक्त एस.एन. श्रीवास्तव ने बताया दिल्ली दंगों में जाँच के लिए बड़े पैमाने पर तकनीक का सहारा लिया गया। जाँच के लिए तीन एसआईटी गठित की गईं जबकि कुल 755 एफआईआर दर्ज हुई जिनमें से लगभग 60 प्रमुख मामलों को एसआईटी को सौंपा गया था।

दिल्ली दंगों को लेकर दिल्ली सरकार पर भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं। आज दंगों के एक साल बाद भी लोग मुआवज़े का इंतज़ार कर रहे हैं और जो मुआवज़ा दिया गया है वो भी कम है क्योंकि अगर किसी परिवार का कमाने वाला ही नहीं रहा है तो उसका भविष्य कैसे चलेगा इस पर भी विचार करना चहिए था। इसलिए लोग लगातार पीड़ितों के आश्रितों में से किसी एक को नौकरी देने की मांग कर रहे हैं। आईबी ऑफिसर अंकित शर्मा के भाई ने भी कहा उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। जबकि अंकित के केस में तो खुद सरकार ने भी नौकरी का वायदा किया था।

इसके साथ ही दिल्ली सरकार द्वारा मुआवज़ा देने में भी भेदभाव का आरोप लग रहा है। सीपीएम की पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात जो इस दंगे के बाद से ही राहत और बचाव में जुटी दिखीं। उन्होंने सरकार को पत्र लिखकर वयस्क और नाबालिगों के मुआवज़े में अंतर को लेकर सवाल किया और सभी मृतकों को एकसमान मुआवज़ा देने को कहा। 

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