इतवार की कविता : 'तुम अपने सरकार से ये कहना, ये लोग पागल नहीं हुए हैं!'

हिंदुस्तान के अमरोहा में जन्मे शायर जौन एलिया की 8 नवम्बर 2019 को 17वीं बरसी थी।
आज उनको ख़िराज ए अक़ीदत पेश करते हुआ, हम आपके बीच लाए हैं जौन एलिया की नज़्म 'दो आवाज़ें'
जो ज़ुल्म के शिकार मज़दूरों और ज़ालिम हाकिम ए वक़्त की मफ़ाहमत का सच बताती है।
दो आवाज़ें
पहली आवाज़
हमारे सरकार कह रहे थे ये लोग पागल नहीं तो क्या हैं
के फ़र्क़ ए अफ़लास ओ ज़र मिटा कर निज़ाम ए फ़ितरत से लड़ रहे हैं
निज़ाम ए दौलत ख़ुदा की नेमत ख़ुदा की नेमत से लड़ रहे हैं
हर इक रिवायत से लड़ रहे हैं हर इक सदाक़त से लड़ रहे हैं
मशीयत ए हक़ से हो के ग़ाफ़िल ख़ुद अपनी क़िस्मत से लड़ रहे हैं
ये लोग पागल नहीं तो क्या हैं…
हमारे सरकार कह रहे थे अगर सभी मालदार होते
तो फिर ज़लील ओ हक़ीर पेशे हर एक को नागवार होते
ना कारख़ानों में काम होता न लोग मसरूफ़ ए कार होते
इन्हीं से पूछो के फिर ज़माने में किस तरह कारोबार होते
अगर सभी मालदार होते,
तो मस्जिद ओ मंदिर ओ कलीसा में कौन सिनतगरी दिखाता
हमारे राजों की और शाहों की अज़्मतें कौन फिर जगाता
हसीन ताज और जलील अहराम ढाल कर कौन दाद पाता
हमारी तारीख़ को फ़रोग़ ए हुनर से फिर कौन जगमगाता
हमारे सरकार कह रहे थे ये लोग पागल नहीं हैं तो क्या हैं…
दूसरी आवाज़
तुम अपने सरकार से ये कहना ये लोग पागल नहीं हुए हैं
ये लोग सब कुछ समझ रहे हैं ये लोग समझ चुके हैं
ये ज़र्दरू नौजवान फ़नकार जिनकी रग रग में वलवले हैं
ये ना तवान ओ नहीफ़ ओ नाचार जिनके क़दमों पे ज़लज़ले हैं
ये जिनको तुमने कुचल दिया है ये जिनमें जीने के हौसले हैं
दिया है फ़ाक़ों ने जन्म जिनको जो भूख की गोद में पले हैं
ये लोग पागल नहीं हुए हैं…
निज़ाम ए फ़ितरत हवा ए सहन ए चमन से पूछो जो पूछना है
मशाम ए दैर ओ दयार ओ दश्त ओ दमन से पूछो जो पूछना है
निज़ाम ए फ़ितरत फ़िज़ाओं की अंजुमन से पूछो जो पूछना है
निज़ाम ए फ़ितरत को कुलज़िम ए मौजज़न से पूछो जो पूछना है
के चाँद सूरज की जगमगाहट ज़मीं ज़मीं है वतन वतन है
कली कली की कुँवारी ख़ुशबू रविश रविश है चमन चमन है
निज़ाम ए फ़ितरा का बह्र ए मव्वाज पस्त ओ बाला पे मौजज़न है
हवाएँ कब इसको देखती हैं के ये है सहरा वो अंजुमन है
वो पेशे जिनसे उरूस ए तहज़ीब को मिले हैं लिबास ओ ज़ेवर
है जिनसे दोशीज़ा ए तमद्दुन चमन ब दामन बाहर दरबर
है जिनका एहसां तुम्हारी अस्लों तुम्हारी नस्लों पे और तुम पर
उन्हीं को तुम गालियाँ भी देते हो अब ज़लील हो हक़ीर कह कर
सुनो के फ़िरदौसी ए ज़माना परख चुका ज़र्फ़ ए ग़ज़नवी को
जो फिक्र ओ फ़न को ज़लील कर के अज़ीज़ रखता है अशरफ़ी को
तकद्दूस से बुतशिकन में देखा तकल्लुफ़ ए ज़ौक़ ए बुतगरी को
अब एक हज्व ए जदीद लिखनी है अस्र ए हाज़िर की शायरी को
तुम अपने सरकार से ये पूछो के फ़िक्र ओ फ़न की सज़ा यही है
हो उनका दिल ख़ून जिनके दम से ये ताज़गी है ये दिलकशी है
वो जिनके खूँ से नुकूश ओ अश्काल को दरक़्शंदगी मिली है
वो जिनके हाथों की खुरदुराहट से किश्तितार ए हरीर उगी है
तुम अपने सरकार से ये कहना निज़ाम ए ज़र के वज़ीफ़ाख्वारों
निज़ाम ए कोहना की हड्डियों के मुजाविरों और फ़रोशकारों
तुम्हारी ख़्वाहिश के बर ख़िलाफ़ इक नया तमद्दुन तुलू होगा
नया फ़साना नया ज़माना नया तराना शुरू होगा
जमूद ओ जुंबिश की रज़्म गाहों में साअत ए जंग आ चुकी है
समाज के इस्तखांफ़रोशों से ज़िंदगी तंग आ चुकी है
तुम्हारे सरकार कह रहे थे ये लोग पागल नहीं तो क्या हैं
ये लोग जमहूर की सदा हैं ये लोग दुनिया के रहनुमा हैं
ये लोग पागल नहीं हुए हैं…
तुम अपने सरकार से ये कहना, ये लोग पागल नहीं हुए हैं
इसे भी पढ़े: इतवार की कविता : सस्ते दामों पर शुभकामनायें
इसे भी पढ़े: जौन एलिया : एक अराजक प्रगतिशील शायर!
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।