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सर्वे : 89% प्रवासी श्रमिकों को नहीं मिला वेतन, 96% तक नहीं पहुंचा सरकारी राशन

एनजीओ स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) ने लॉकडाउन के कारण फंसे प्रवासी मजदूरों पर एक सर्वे किया है। यह सर्वे लॉकडाउन-1 की अवधि यानी 25 मार्च से 14 अप्रैल के मध्य 11,159 प्रवासी मज़दूरों पर किया गया है।
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लॉकडाउन के बाद अपने घरों के लिए निकल पड़े मजदूरों और कर्मचारियों की पीड़ा तो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई ही पड़ी थी। हालांकि इस दौरान मीडिया के एक वर्ग ने उन्हें विलेन के रूप में दिखाया। ऐसा बताया गया कि वे कोरोना वायरस के वाहक हैं। इसे लेकर ऐसा प्रचार किया गया कि जिन गांवों के लिए वो मजदूर लौट रहे थे। वहां भी उनके आने को लेकर तमाम तरह की रोक लगा दी गईं।

इससे इतर जो लोग सरकार के आदेश का पालन करते हुए और आश्वासन पर भरोसा करते हुए दिल्ली, सूरत और मुंबई जैसे शहरों में रुक गए थे उनकी स्थिति भी बहुत बुरी है। उन्हें पेट भर भोजन नहीं मिल रहा है और मांगने पर धमकाने और मारपीट की हरकतें हो रही हैं।

दिल्ली के शेल्टर होम में खाने को लेकर मारपीट हुई और एक व्यक्ति यमुना में कूद पड़ा। बाद में फिर मारपीट हुई और शेल्टर होम को आग लगा दी गई। इस सबको लेकर कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। यही स्थिति सूरत में भी हुई जहां खाना न मिलने पर लोगों ने प्रदर्शन किया और उन पर लाठीचार्ज हुआ। मुंबई में बांद्रा स्टेशन पर हजारों लोग इस उम्मीद से आ गए कि उन्हें घर जाने के लिए ट्रेन मिल जाएगी। ट्रेन तो नहीं मिली लेकिन जब वे लौटने को तैयार नहीं हुए तो लाठियां बरसने लगीं।

कैसी है मजदूरों की हालत?

लॉकडाउन के इस वक्त में प्रवासी श्रमिक भारी कठिनाई के दौर से गुजर रहे हैं। स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) नाम के एक गैर लाभकारी संगठन (एनजीओ) ने लॉकडाउन के कारण फंसे प्रवासी मजदूरों पर एक सर्वे किया है। यह सर्वे लॉकडाउन-1 की अवधि यानी 25 मार्च से 14 अप्रैल के मध्य 11,159 प्रवासी मजदूरों पर किया गया है। 15 अप्रैल को जारी की गई इस सर्वे की रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन-1 की अवधि में 89 फीसदी प्रवासी मजदूरों को उनके एंप्लॉयर ने वेतन का भुगतान नहीं किया है।

इनमें से ज्यादातर श्रमिक वे थे जो या तो अपने अपने गृह-राज्य लौट नहीं पाए या उन्होंने जाने की कोशिश भी नहीं की। नेटवर्क ने पाया कि ये लोग जितने संकट में हैं उससे उन्हें निकालने के लिए पर्याप्त राहत नहीं मिल पा रही है। समूह ने पाया कि इनमें से 96 प्रतिशत लोगों को सरकार से राशन नहीं मिला है। सबसे बुरी स्थिति उत्तर प्रदेश में थी जहां से कम से कम 1,611 श्रमिकों ने बताया कि उन्हें जरा भी सरकारी राशन नहीं मिला है।

सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, 11 हजार प्रवासी मजदूरों में से केवल 51 फीसदी के पास 1 दिन से कम का राशन बचा है जबकि 72 फीसदी का कहना है कि उनका राशन दो दिन में खत्म हो जाएगा। सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि रुपये और खाने के अभाव में कुछ कामगार कम खाना खा रहे हैं जबकि कुछ कामगार भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं।

पका हुआ खाना कई जगह जरूर मिल रहा लेकिन उसमें भी हर राज्य में स्थिति अलग है। कर्नाटक में 80 प्रतिशत लोगों को खाना नहीं मिला, तो पंजाब में 32 प्रतिशत लोगों को। दिल्ली और हरियाणा में स्थिति अलग है। इन राज्यों में रहने वाले श्रमिकों में से लगभग 60 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें खाना मिला लेकिन खाने की कतारें लंबी हैं और कई बार सबको खाना मिलने से पहले ही खत्म हो जाता है।

सर्वे की अगर प्रमुख बातों की चर्चा करें तो पहले दो सप्ताह के लॉकडाउन में केवल एक फीसदी प्रवासी मजदूरों को सरकारी राशन मिला तो वहीं 3 सप्ताह के लॉकडाउन में केवल 4 फीसदी को सरकारी राशन मिल पाया। बाकी बचे 96 फीसदी को इस दौरान सरकार की ओर से राशन नहीं मिला। 70 फीसदी को किसी भी प्रकार का पका हुआ भोजन नहीं मिला तो 78 फीसदी के पास 300 से कम रुपये बचे हैं।

यानी केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारों के तमाम दावों और वादों के बावजूद प्रवासी श्रमिकों की हालत खराब ही रही। विपक्षी दल और जानकार इस स्थिति के लिए बिना प्लानिंग के लॉकडाउन को जिम्मेदार बताते हैं लेकिन क्या प्लानिंग के साथ किए गए लॉकडाउन से मजदूरों की हालत बदल जाती, इसका जवाब मिलना अभी बाकी है।

क्या हो उपाय?

फिलहाल स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) ने इस संकट में बेहतर प्रबंधन के लिए कुछ उपाय सुझाए हैं। इनके अनुसार सबसे पहले तो पीडीएस के तहत मिलने वाले राशन को तीन महीनों के लिए दोगुना कर देना चाहिए और दालें, तेल, नमक, मसाले, साबुन और सेनेटरी पैड के साथ लोगों के घर तक पहुंचाना चाहिए।

यह सभी गरीबों को मिलना चाहिए यानी उन्हें भी जिनके पास राशन कार्ड नहीं है। इसके अलावा हर एक लाख की आबादी के लिए कम से कम 70 भोजन के केंद्र होने चाहिए जहां 12 घंटों तक खाना बंटता रहे।

इसके अलावा हर गरीब को दो महीनों के लिए हर महीने 7,000 रुपये नकद दिए जाने का सुझाव भी दिया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि सभी जन धन खातों में तालाबंदी के दौरान और उसके उठने के दो महीने बाद तक हर महीने 25 दिनों का न्यूनतम वेतन दिया जाए। सभी राज्य सरकारें सुनिश्चित करें कि नियोक्ता ठेकेदार और श्रमिकों को पूरा वेतन दें।

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