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उत्तराखंड बजट से उम्मीदें : समझिए कि लोग खेती क्यों छोड़ रहे हैं ?

उत्तराखंड की जमीनी स्थिति खेती के लिए बहुत उपयुक्त है।  लेकिन मौसम की मार और कृषि का संकट उत्तराखंड की जमीन से खेती का सही मात्रा में दोहन नहीं करवा पाता है। बहुत सारे लोगों ने खेती से मुँह मोड़ लिया है। इसलिए इस बार के बजट में भी उम्मीद यही है कि क्या ऐसा बजट प्रस्तुत होगा कि लोग खेती -किसानी की तरफ लौटेंगे।  
uttrakhand farmer

किसान परिवार में जन्मे विनोद जुगलान के दो भाई नौकरीपेशा हैं। नौकरीपेशा भाइयों के बच्चे भी नौकरियों में चले गए हैं। खुद विनोद अपने खेत को बटाई पर देते हैं लेकिन इस बार फरवरी के तीसरे हफ्ते में जिस रफ्तार से ओले गिरे और नुकसान हुआ, अनिश्चितता से भरी खेती को नई पीढ़ी के हाथ में सौंपने की सोच पस्त होने लगी है। विनोद के खेत में काम करने वाले बंदे ने हाथ खड़े कर दिए हैं। खेत के मालिक को जितना नुकसान हुआ, खेत में पसीना बहाकर अन्न उगाने वाले किसान की उससे भी बुरी हालत हुई। मालिक-मज़दूर दोनों निराश हैं।

मौसम बिगड़ा तो खेती बिगड़ी

ऋषिकेश के खादर में करीब 2 एकड़ क्षेत्र में खेती कर रहे विनोद कहते हैं कि ओले गिरने की वजह से उनके खेत में लगी गेहूं की फसल को 40-50 प्रतिशत नुकसान हुआ है। गंगा के पहाड़ों से निकलने के बाद खादर पहला मैदानी उपजाऊ भूभाग है। अत्यधिक ओले पड़ने से खादर क्षेत्र में गेहूं  की बालियां अधिकतर या तो फट गई हैं या  मुड़ गयी हैं, जिससे किसानों की उपज पर अनुमानित 40 से 50 प्रतिशत नुकसान हुआ है। आम-लीची की बौर झड़ गई। आड़ू के फूल गिर गए। गेहूं की उपज में किसान की पांच महीनों की मेहनत जुड़ी होती है।

करीब 35 क्विंटल गेहूं उत्पादन का अनुमान था। अब वो आधी रह जाएगी। विनोद कहते हैं कि खेत में काम करने वाला लड़के को गेहूं का आधा हिस्सा मिलता है। उसकी कमाई भी आधी हो गई, तो वो कहता है कि अब अगली बार से मैं खेती नहीं करुंगा। खेती की यही अनिश्चितता लोगों को हर महीने तय समय पर मिलने वाले वेतन के लिए शहरों की ओर धकेल रही है।

ऋषिकेश के यह किसान कहते हैं कि मुआवज़ा मिलना तो दूर की बात लगती है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना भी है। लेकिन किसान बहुत जागरुक नहीं हैं। फिर बीमा कंपनियां किसी एक किसान या खेत का बीमा नहीं करतीं बल्कि ग्रुप इन्श्योरेंस करती हैं। वह बताते हैं कि उनके क्षेत्र के किसी भी किसान का फसल बीमा नहीं है। जबकि सड़कों पर दौड़ती हर गाड़ी का बीमा होता ही है, क्योंकि यहां कड़े कानून हैं।

फसल बीमा की किस्त भरना मौजूदा आर्थिक स्थिति में किसानों को शायद खटकता होगा। विनोद उम्मीद करते हैं कि आने वाले बजट में राज्य सरकार ही कुछ ऐसा प्रावधान करे, जिससे किसानों की फसल का बीमा सुनिश्चित हो सके। सस्ते ऋण की जगह राज्य सरकार यदि किसानों के हिस्से की किस्त की कुछ राशि वहन करे तो शायद किसानों को बड़ी राहत मिलेगी।        
हर्षिल के सेब.jpeg

 हर्षिल के बागवान जंगली जानवरों से परेशान

उत्तरकाशी का हर्षिल क्षेत्र अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के साथ अपने सेबों के लिए जाना जाता है। हर्षिल के आठ गांवों के किसानों की आमदनी का बड़ा ज़रिया सेबों के बगीचे हैं। जिसकी ब्रांडिंग की कोशिश का नतीजा है कि अब यहां के सेबों की देशभर में पहचान बनने लगी है। हिमाचल-जम्मू-कश्मीर की तुलना में यहां उत्पादन अभी बहुत कम है लेकिन ये सेब इस क्षेत्र की आर्थिकी की बड़ी उम्मीद हैं। सेब के बागवान संजय पंवार कहते हैं कि हर्षिल में सेब के करीब एक लाख बीस हज़ार बॉक्स (एक बॉक्स करीब 20 किलो का होता है) बनते हैं जबकि हिमाचल में फसल अच्छी गई तो करीब चार लाख बॉक्स। एक पेड़ को फलदायी बनाने में करीब 15-20 साल का वक्त लगता है।

हिमाचल की तर्ज़ पर हर्षिल के सेब भी सोना बन सकते हैं लेकिन जंगली जानवरों के आतंक से बच सकें तो। संजय पंवार कहते हैं कि लंगूर हमारा बहुत नुकसान कर रहे हैं। हमने 10-15 साल लगाकर एक पेड़ को फल देने लायक तैयार किया और लंगूरों के झुंड कुछ ही मिनट में उसे खत्म कर देता है।

जब पेड़ों पर सेब लगे होते हैं तो भालुओं का आतंक होता है। लेकिन उन्हें आग जलाकर भगाया जा सकता है। नवंबर-दिसंबर में जब सर्दियां शुरू होती हैं और सेब के पेड़ के पत्ते झड़ जाते हैं उस समय पहाड़ों से उतरकर लंगूर नीचे को आते हैं। अप्रैल के आखिरी हफ्ते तक सेब के बगीचों के मालिक लंगूरों की दहशत में जीते हैं। वे पेड़ों की खाल को खुरच-खुरच कर खाते हैं, टहनियां तोड़ देते हैं। बागवान कहते हैं कि एक टहनी बहुत मेहनत से तैयार होती है।

हर्षिल के ही सुखी गांव के बागवान मोहन सिंह रावत कहते हैं कि वन विभाग में जंगली जानवरों की शिकायत करते हैं तो हमें जवाब मिलता है कि आप बगीचों की चौकीदारी करो। हम दिनरात बगीचों में बैठकर चौकीदारी करने की स्थिति में नहीं हैं। वह आशंकित होकर कहते हैं कि सेब हमारी आमदनी का ज़रिया हैं, इन्हें बचाने के लिए सरकार की तरफ से प्रयास नहीं किए गए तो एक तरह की युद्ध की स्थिति हो जाएगी, हर जीव अपने भोजन के लिए लड़ेगा।

वह कहते हैं कि सोलर फेन्सिंग और घेरबाड़ के ज़रिये सेब की बगीचों को जंगली जानवरों से बचाया जा सकता है। किसान की आर्थिक स्थिति नहीं है कि वो खुद सोलर फेन्सिंग करा सके तो वे चाहते हैं कि राज्य की सरकार इस काम को करे। मोहन कहते हैं कि हमारा क्षेत्र शिक्षा के मामले में बहुत पिछड़ा है। यहां के लोग सरकारी नौकरियों में नहीं हैं। ये सेब ही हमें यहां रोके हुए हैं। हमारे यहां पौड़ी की तरह पलायन इसीलिए नहीं हुआ।

आने वाले बजट में संजय और मोहन जंगली जानवरों के आतंक से निजात दिलाने की उम्मीद रखते हैं। बगीचों की सोलर फेन्सिंग की जा सके। अच्छी घेरबाड़ की जा सके। बंदरवाड़े बनाए जा सकें। साथ ही बी और सी केटेग्री के सेबों की भी खरीद हो सके, इसके लिए भी सरकार से मदद की दरकार रखते हैं।  
उत्तरकाशी के हर्षिल में सेब के बगीचे.jpeg

खेती की ज़मीन लीज पर देने वाला पहला राज्य

पौड़ी में पलायन से खाली गांवों और बंजर खेतों का एक लंबा सिलसिला है। पानी की दिक्कत, जंगली जानवरों के आतंक के चलते यहां लोगों ने एक-एक कर खेती छोड़ दी। बंजर खेतों की समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकार ने उत्तराखंड सरकार ने शीत सत्र में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भू-सुधार कानून-1950 में संशोधन किया। इसके तहत अब किसान अधिकतम 30 एकड़ तक अपनी ज़मीन खेती, हॉर्टीकल्चर, जड़ी-बूटी उत्पादन, दुग्ध उत्पादन, सौर ऊर्जा जैसे कार्यों के लिए किसी व्यक्ति, कंपनी या संस्था को अधिकतम 30 साल के लिए लीज़ पर दे सकता है।

किस्मत भरोसे वाली खेती बदलनी होगी

उत्तराखंड में हरिद्वार और उधमसिंहनगर के किसान खेती से अच्छी आमदनी हासिल कर पा रहे हैं। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में ज्यादातर किसान किस्मत भरोसे ही हैं। वर्ष 2000 में यहां कृषि क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेअर था, जो घटकर अब 6.91 लाख हेक्टेअर रह गया है। यानी एक लाख  हेक्टेअर से अधिक ज़मीन बंजर हो गई है। राज्य में जोत का औसत आकार 0.89 हेक्टेअर है। यानी राज्य के ज्यादातर किसान छोटे-सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं।

 पिछले वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2011-12 में राज्य की जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 14 प्रतिशत से वर्ष 2018-19 में 10.81 प्रतिशत रह गया। प्राथमिक क्षेत्र में कृषि का योगदान लगातार घट रहा है। वर्ष 2011-12 में क्रॉप सेक्टर की हिस्सेदारी 7.05 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2018-19 में अग्रिम अनुमानों के मुताबिक 4.67 प्रतिशत रह गई। पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 13 प्रतिशत ही कृषि भूमि सिंचित है, यानी ज्यादातर खेती मौसम पर निर्भर करती है।

बजट में खेती का हिस्सा

वर्ष 2017-18 में कृषि का बजट 2,928 करोड़ था, जो 2018-19 में 2,782 करोड़ और 2019-20 में 3,325 करोड़ हो गया। वर्ष 2011-12 से 2018-19 तक कृषि और उससे जुड़े सेक्टर का बजट, कुल बजट का करीब 3.80 से 3.63 प्रतिशत के बीच रहा। वर्ष 2018-19 के बजट में राज्य सरकार ने खेती और उससे जुड़े सेक्टर में कुल बजट का 7.3 प्रतिशत हिस्सा रखा जो अन्य राज्यों के इस मद में रखे गए बजट के औसत 6.4 प्रतिशत से अधिक था।  

इन योजनाओं पर है किसानों की आमदनी दोगुनी करने की ज़िम्मेदारी

केंद्र और राज्य की कृषि से जुड़ी कई योजनाएं चल रही हैं। जैसे- नेशनल मिशन फॉर सस्टेनबल एग्रीकल्चर, वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम, परंपरागत कृषि विकास योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, कृषि विस्तार एवं प्रोद्योगिकी पर राष्ट्रीय मिशन, बीज प्रमाणीकरण, उर्वरक उपभोग, राष्ट्रीय कृषि बाज़ार, ग्रोथ सेंटर्स। इन सभी योजनाओं के साथ केंद्र और राज्य की सरकार वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात ऊंचे स्वर में कहती है।

जबकि अनिश्चितता के साथ जी रहे किसानों की आवाज़ दबी हुई है। वे किसान जो अब भी अपने खेतों में खड़े हैं, उन्हें अपने राज्य के बजट और सरकार से यही उम्मीद करते हैं कि खेती सिर्फ मौसम की मेहरबानी पर न टिके, मिट्टी की उर्वरकता को बढ़ाने, उपज को बाज़ार तक पहुंचाने, नुकसान हो तो भरपायी का कोई ज़रिया हो। जंगली जानवरों को खेतों-बगीचों में जाने से रोकने के उपाय किये जाएं। ऋषिकेश के किसान आशंकित होकर कहते हैं कि अब किसान को खेती से वो आमदनी नहीं हो रही, जितनी खेत बेचने पर हो जा रही है। इसलिए आज जो खेत दिख रहे हैं कल यहां इमारतें नज़र आएंगी।

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