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पश्चिम बंगाल चुनाव: आदिवासी कुर्मियों को एसटी का दर्जा दिये जाने पर दो चिट्ठियां और बंगाल सरकार के 'टाल-मटोल' की कहानी

जंगल महल क्षेत्र की छह लोकसभा सीटों में से पांच पर भाजपा का काबिज होना विधानसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी के लिए चिंता वाला क्षेत्र साबित हो रहा है।
पश्चिम बंगाल चुनाव
Image Courtesy: The Federal News

कोलकाता: अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा दिये जाने की आदिवासी कुर्मियों की मांग पर सिर्फ दो सप्ताह के भीतर पश्चिम बंगाल सरकार के रुख़ में बदलाव से नाराज़गी उनके शीर्ष संगठन,आदिवासी कुर्मी समाज (AKS) ने तीन चरण के आंदोलन कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की थी,जिसमें 23 फ़रवरी को धऱना,1 मार्च को ब्लॉक स्तर पर ज्ञापन सौंपना और 15 मार्च को आदिवासी कुर्मियों की एक बड़ी आबादी के साथ सभी जगहों पर सुबह 6 बजे से 12 घंटे का नाकाबंदी करना था।

पुरुलिया के एकेएस सदस्यों ने पुरुलिया से ही न्यूज़क्लिक को बताया कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार शुरू हो गया है, सड़क नाकाबंदी की योजना को स्थगित कर दिया गया है। एकेएस केंद्रीय समिति के मुख्य सलाहकार,अजीत प्रसाद महतो के मुताबिक़,उचित समय आने पर निश्चित ही रूप से इस पर कार्रवाई की जायेगी।

पुरुलिया उन चार ज़िलों में से एक है,जो राजनीति के साथ-साथ क़ानूनी तौर पर संवेदनशील इस जंगल महल क्षेत्र में आता है। अन्य तीन ज़िले-झाड़ग्राम,पश्चिम मेदिनीपुर और बांकुरा हैं। इस क्षेत्र में राज्य के 294 सदस्यीय सदन वाली विधानसभा की कुल 42 सीटों में लोकसभा की सीटों की संख्या छ: है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने इनमें से चार सीटें जीती थीं और ये सीटें थीं- झारग्राम, मेदिनीपुर, पुरुलिया और बांकुरा। तृणमूल कांग्रेस ने दो सीटें-घाटल (पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले की दूसरी सीट) और बिशुनपुर (बांकुरा ज़िले की दूसरी सीट) जीती थी।

जब छह-आठ सप्ताह पहले टीएमसी से भाजपा में जाने की संभावनाओं की चर्चा ज़ोरों पर थी,उसी दौरान बिष्णुपुर के सदस्य सौमित्र ख़ान ने भगवा खेमे का रुख़ कर लिया था। उसके साथ ही भाजपा अब इस जंगल महल क्षेत्र के छह लोकसभा सीटों में से पांच पर काबिज है। यह इस बात को दिखाता है कि मुख्यमंत्री और टीएमसी सुप्रीमो, ममता बनर्जी की चिंता यही है कि वह इस क्षेत्र में अपने समर्थन के आधार को फिर से किस तरह  हासिल कर पायें। यह आदिवासी कुर्मियों का समर्थन जुटाने को लेकर बनर्जी की कोशिशों की भी व्याख्या करता है। लेकिन, घटनाक्रम में आये अचानक बदलाव से आदिवासी कुर्मियों का मोहभंग हो गया है और वे अब अपने ही तरीक़ों से अपनी मांग पर ज़ोर देते दिख रहे हैं।

अनुमान है कि आदिवासी कुर्मियों की 30 लाख की बड़ी आबादी है और उनमें से तक़रीबन 10 लाख मतदाता हैं, जो 42 विधानसभा क्षेत्रों में से 25 के लिए बहुत मायने रखते हैं। 8 जनवरी, 2021 के एक चिट्ठी में एकेएस ने एक बार फिर मुख्यमंत्री को अनुसूचित जाति के दर्जे को लेकर लंबे समय से लंबित उनके दावे के बारे में याद दिलाया था और कहा था कि केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय की तरफ़ से "अप्रैल-मई 2017 में एसटी की मांग पर राज्य के समर्थन और औचित्य को  लेकर" टिप्पणियों की मांग के बाद से ये मामला कैसे लटकता रहा है।

हालांकि,सरकार ने तब भी इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया था। विधानसभा चुनाव के नज़दीक आते जाने और इसे एक नाजुक मुद्दा बनते जाने को देखते हुए राज्य सरकार ने इसके बाद 20 जनवरी को केंद्र को पत्र लिखकर इस समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने की ज़ोरदार सिफ़ारिश की थी।

लेकिन,इस समुदाय की संतुष्टि अल्पकालिक साबित हुई और यह एक ही मुद्दे पर दो चिट्ठियों की कहानी बन गयी, मगर,पश्चिम बंगाल प्रशासन की ओर से बिल्कुल अलग रुख़ अपनाया गया। सोलह दिन बाद, 6 फ़रवरी को राज्य ने केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय को सुझाव देते हुए लिखा,"मानव विज्ञान सर्वेक्षण (ASI) को पहचान,व्युत्पत्ति सम्बन्धी उस आधार के वर्गीकरण की सिफ़ारिश करने का काम सौंप जाये,जो कुर्मी समुदाय को बनाने वाले घटक कुलों पर आधारित है।" राज्य ने केंद्र से यह देखने का भी आग्रह किया कि एसटी वाली राज्य सूची में उनके शामिल होने के मानदंड निर्धारित हों। राज्य की इस चिट्ठी में कहा गया है कि इस अध्ययन से होने वाली सिफ़ारिशों पर राज्य के विशेषज्ञ समूह की तरफ़ से विचार-विमर्श किया जायेगा और उसके बाद ही इस मांग पर आगे की कार्रवाई होगी।

राज्य सरकार ने 6 फ़रवरी को जिस तरह से काम किया,उसे लेकर दो तरह की बातें सामने आयी हैं। ऐसा लगता है कि बनर्जी ने एकेएस के शीर्ष अधिकारियों को सुझाव दिया था कि वे अपने समुदाय के मतदाताओं से चुनाव में टीएमसी उम्मीदवारों का समर्थन करने के लिए कहें। लेकिन,एकेएस ने ऐसा करने को लेकर अपनी असमर्थता जतायी और 27 अक्टूबर, 2017 को बांकुरा ज़िले के छत्ना में किये गये संगठन के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा कि यह "राजनीतिक रुख़ अख़्तियार नहीं करेगा / पांच साल के लिए एक राजनीतिक विचार का हिस्सा होगा और आदिवासी कुर्मी अपनी व्यक्तिगत पसंद / फ़ैसले के मुताबिक़ मताधिकार के अपने अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र होंगे।"

साफ़ है कि एसटी का दर्जा दिये जाने को लेकर किये जा रहे इस दावे पर अधिकारियों की ओर से बरती गयी निष्क्रियता ए.के.एस. को नागवार गुज़रा। इसके अलावे,जिस तरह के जवाब से अवगत कराया गया,वह किसी समर्थन चाहने वाले राजनीतिज्ञ को पसंद नहीं आयेगा, ख़ासकर तब,जब कोई राजनेता खोये हुए समर्थन आधार को फिर से हासिल करने की कोशिश कर रहा हो।

इसे लेकर जो दूसरी बात कही जा रही है,वह यह कि, 20 जनवरी को राज्य सरकार की उस चिट्ठी के बारे में पता चलने पर कि आदिवासी कुर्मियों को एसटी का दर्जा दिये जाने को लेकर ज़ोरदार सिफ़ारिश की गयी है, कुछ संथाली संगठनों ने इस मुद्दे को दो राज्य मंत्रियों-पार्थ चटर्जी और पूर्णेंदु बसु के सामने रखा और पूछा कि संविधान के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत एसटी का दर्जे मिल जाने से होने वाले लाभ आदिवासी कुर्मियों को किस तरह मिल सकता है।

"टीएमसी के लिए समाने दिख रहे विधानसभा के मुश्किल चुनाव" के मद्देनज़र दो मंत्रियों ने शायद सोचा होगा कि किसी तरह से "ऐसा हो जाता" या फिर यूं कहा जाय कि कोई "संतुलन वाला तरीक़ा "मिल जाता। इसी का नतीजा जिस रूप में सामने आया,वह एएसआई की तरफ़ से एक अध्ययन के लिए 6 फ़रवरी वाला वह पत्र और सुझाव था।

एकेएस खेमे में इसे नामंज़ूर किये जाने और नाराज़गी का ज़िक़्र करते हुए महतो ने फ़रवरी की शुरुआत में न्यूज़क्लिक  को बताया था कि हालांकि, कुर्मी छोटानागपुर क्षेत्र और पश्चिम बंगाल के जंगल महल के सबसे आदिम जनजातियों में से एक हैं,इसके बावजूद उनकी स्थिति कई बदलावों का शिकार रही है। 1872 में उन्हें "जंगल का कुर्मी / झारी कुर्मी" माना गया; 1911 और 1921 के बीच उन्हें "आदिवासी जनजाति" के रूप में वर्गीकृत किया गया था; इसके बाद उन्हें "अलग-थलग जाति" के रूप में नामित किया गया, फिर 1931 में आदिम जनजाति के रूप और इसके बाद एएसआई ने इसे 1941 में "हिंदू जनजाति" के रूप में माना।

एकेएस इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि यह समुदाय 1931 की एसटी सूची का हिस्सा था और 1950 तक ऐसा ही रहा। इस संगठन ने अधिकारियों को बताया है कि तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सितंबर / अक्टूबर 1950 की शुरुआत में संसद में घोषणा की थी कि "केवल उन्ही ही एसटी सूची में शामिल किया जायेगा,जो 1931 की जनगणना रिपोर्ट में आदिम जनजातियों की सूची में थे।"  लेकिन,महतो अफ़सोस जताते हुए कहते हैं कि उनकी स्थिति के बारे में स्पष्टता अभी भी नहीं है, ।

ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी एकेएस से समर्थन की प्रतिबद्धता हासिल करने में विफल रही हैं; लेकिन वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता और झारखंड के मुख्यमंत्री,हेमंत सोरेन को चुनाव में झामुमो के उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारे जाने को लेकर राज़ी करके उस जंगल महल में वोट के विभाजन को टालने में सफल रही हैं।

न्यूज़क्लिक को पता चला है कि झामुमो ने कुछ 25-30 उम्मीदवारों को खड़ा करने का प्रस्ताव दिया था,जिनमें से ज़्यादातर उम्मीदवारों को इस जंगल महल के आरक्षित एसटी सीटों से खड़ा होना था। मैदान में उतारे जाने वाले इन उम्मीदवारों के साथ-साथ झामुमो को पश्चिम बंगाल में आदिवासी बस्तियों की उनकी मांग को संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत लाये जाने का भी दबाव डालना था,इसके साथ-साथ आदिवासियों की ज़मीन को ग़ैर-आदिवासियों और निजी क्षेत्र की कंपनियों को खनन और अन्य औद्योगिक उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित करने से रोकना था।

जेएमएण के महासचिव-सुप्रियो भट्टाचार्जी ने न्यूज़क्लिक से इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि उनकी पार्टी "फिलहाल" उम्मीदवारों को नहीं उतारेगी। यह पूछे जाने पर कि क्या पार्टी ने उम्मीदवारों को शॉर्टलिस्ट किया था, भट्टाचार्जी ने बताया, "हां, पूरी गंभीरता से इसकी क़वायद शुरू हो गयी थी।"

इस ''ममता समर्थन'' और ''बीजेपी की चुनावी संभावनाओं को रोकने'' के मक़सद को आगे ले जाते हुए जेएमएम के साथ बिहार की राष्ट्रीय जनता दल, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और महाराष्ट्र की शिवसेना भी हैं।

इस बीच,बंगाली दैनिक-एई शोमय के 8 मार्च के संस्करण में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, राजेश महतो के नेतृत्व वाले "कुर्मी समाज" गुट को टीएमसी की सूची में जगह मिल पाने से नाकाम रहने के बाद इस गुट ने झारग्राम ज़िले के गोपीबल्लभपुर और झारग्राम सीटों पर अपने दम पर लड़ने का फ़ैसला किया है,क्योकि इन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में कुर्मी मतदाता हैं।"

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

WB Polls: Tale of 2 Letters and Bengal Govt’s ‘Flip-flop’ on ST Status for Adivasi Kurmis

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