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मौजूदा दौर में क्यों बार बार याद आती हैं सावित्री बाई फुले

जयंती पर विशेष: आज सावित्री बाई को इसलिए भी याद किया जाना जरूरी है कि जिस मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़कर सावित्री बाई फुले ने औरतों के लिए जगह बनाई थी, वही आज दोबारा हावी हो रही है।
Savitribai Phule

भारत में महिलाओं को एक लम्बे समय से दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता रहा है। यही कारण है कि उनकी जिंदगी को खाना बनाने और वंश को आगे बढ़ाने तक सीमित समझा जाता है। यह सब यहां पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण होता है। हमारे देश में एक समय ऐसा भी रहा है जब लडकियों को पढ़ाना-लिखाना पाप और अपराध समझा जाता था। लेकिन ऐसे समय में हमें सराहना करनी होगी महान सामाज सुधारक सावित्री बाई फुले और उनके जीवनसाथी ज्योतिराव फुले की। इस पुरानी सोच वाले समाज में भी सावित्री बाई फुले जैसी महिला ने अन्य महिलाओं और हाशिए के लोगों के उत्थान के लिए शिक्षा के इंतजाम किए। उन्होंने  मात्र 17 वर्ष की उम्र में सन् 1848 में पुणे में देश का पहला गर्ल्स स्कूल खोला।

आज सावित्री बाई को इसलिए भी याद किया जाना जरूरी है कि जिस मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़कर सावित्री बाई फुले ने औरतों के लिए जगह बनाई थी, वही आज दोबारा हावी हो रही है। आज फिर से महिलाओं और हाशिये के लोगों जैसे दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को शिक्षा से दूर किए जाने का षड्यंत्र किया जा रहा है। नई शिक्षा नीति 2020 इसका उदहारण है जहां शिक्षा सिर्फ कथित उच्च और धनी वर्ग की अफोर्ड कर सकता है। 

शिक्षा और रोजगार देश के हर नागरिक की बुनियादी आवश्यकता है, पर आज मनुवादी व्यवस्था के तहत हिन्दू राष्ट्र के नाम पर धर्म संसद लोगों को मरने और मारने का सन्देश दे रही हैं। लोकतंत्र की जगह फासीवाद लाने का प्रयास हो रहा है। बाबा साहेब के बनाए संविधान को ख़ारिज करने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे समय  में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के संघर्ष, त्याग और बलिदान को याद किया जाना बेहद जरूरी है। इनसे प्रेरणा लेकर लोकतंत्र, रोजगार और शिक्षा को बचाए रखने के लिए आवाज उठाना बहुत जरूरी है।

इनके साथ ही याद आती हैं – फातिमा शेख। फातिमा शेख एक भारतीय शिक्षिका थीं। वे समाज सुधारक , ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले की सहयोगी थीं। फातिमा शेख मियां उस्मान शेख की बहन थीं। उनके घर में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने निवास किया था। जब फुले के पिता ने दलितों और महिलाओं के उत्थान के लिए किए जा रहे उनके कामों की वजह से ज्योतिबा और सावित्री  को घर से निकाल दिया था। तब फातिमा शेख ने उन्हें अपने यहां रखा था।         

फातिमा शेख आधुनिक भारत की सबसे पहली मुस्लिम महिला शिक्षकों में से एक थीं। और उन्होंने ज्योतिबा फुले के स्कूल में दलित बच्चों को शिक्षित करना शुरू किया। तात्कालिक समाज में एक मुस्लिम महिला के लोगों के बीच आकर शिक्षा व महिला अधिकारों  के मुद्दों पर काम करना अत्यंत ही साहस का काम था जो समाज की सभी महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है।

 यह कोई आश्चर्य नहीं था कि पूना की ऊँची जाति से लगभग सभी लोग फातिमा और सावित्री बाई फुले के खिलाफ थे, और सामाजिक अपमान के कारण उन्हें रोकने की भी कोशिश थी। यह फातिमा शेख थीं जो समाज सेवा से कभी भी पीछे नहीं हटीं। उन्होंने लगातार अपने जीवन में संघर्ष किया और ज्योतिवा राव तथा सावित्री बाई फुले के साथ कंधे से कंध मिलाकर काम किया।

सावित्री बाई ज्योतिराव फुले भारत की शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवयित्री थीं। उन्होंने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। वे प्रथम महिला शिक्षिका थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। 1852 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।

सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्री बाई  फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।

सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रिंसिपल और पहले कन्या स्कूल की संस्थापक थीं। उन्हें महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव, जो बाद में ज्योतिबा के नाम से जाने गए सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह जीया जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित करना। उनको भारत की पहली महिला शिक्षिका के रूप में जाना जाता है।

वे स्कूल जाती थीं, तो विरोधी लोग उनपर पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंकते थे। आज से 170 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था ऐसे में सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका के रूप में उभरती हैं क्योंकि उन्होंने विपरीत और विषम परिस्थियों में भी हिम्मत नहीं हारी और लड़कियों को शिक्षित करने में अपनी अभूतपूर्व भूमिका निभाई। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फेंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। वे अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने महिलाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया।

जात-पात और छुआछूत के उस युग में दलित बालिकाओं की शिक्षा की बात करना इतना सरल नहीं था। महज 17 साल की उम्र में सावित्री बाई लड़कियों को पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थीं। तब विरोधी रास्ते में उन्हें परेशान करने की भरसक कोशिश करते थे। सामाजिक दबाव बनाने के साथ मानसिक रूप से तोड़ने  के लिए उनके घर गुंडे भेजे भी गए।

सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की।  उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की।  उन्हों ने पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को करवाया।

सावित्री बाई फुले का समय वह दौर था जब महज 12-13 वर्ष की उम्र में बालिकाओं की शादी उम्रदराज पुरुषों से कर दी जाती थी। कई कन्याएं किशोरावस्था में ही विधवा हो जाती थीं।  सामाजिक मान्यता के अनुसार उनका सिर गंजा कर उन्हें कुरूप बनाया जाता था ताकि उनकी तरफ कोई पुरुष आकर्षित न हो सके। फिर भी ये विधवा बालिकाएं पुरुषों से बच नहीं पाती थीं और गर्भवती होने पर समाज का बहिष्कार झेलती थीं। सामाजिक बहिष्कार और क्रूरता के चलते गर्भवती महिला आत्म हत्या या भ्रूण व शिशु की हत्या का मार्ग चुन लेती थी। इस अमानवीय बर्ताव से महिलाओं को बचाने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई  ने गर्भवतियों के लिए प्रसूतिगृह शुरू किया।

सावित्री बाई फुले कवि भी थीं। उन्होंने मराठी में कविताएं लिखीं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :

हमारे जानी दुश्मन का नाम है अज्ञान

उसे धर दबोचो, मजबूत पकड़ पर पीटो

और उसे जीवन से भगा दो

शूद्र और अतिशूद्र

अज्ञान की वजह से पिछड़े

देव धर्म, रीति रिवाज

अर्चना के कारण

अभावों से गिर कर कंगाल हुए

...

विद्या ही सर्वश्रेष्ठ धन है

सभी धन-दौलत से

जिसके पास है ज्ञान का भंडार

है वो ज्ञानी जनता की नज़रों में

...

अंगरेजी मैया का दूध पीयो

वही पोसती है शूद्रों को

...

लेखिका, शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता अनीता भारती सावित्री बाई के बारे में लिखती हैं –“18वीं सदी में सामाजिक क्रांति की अग्रदूत सावित्रीबाई फुले अपनी पूरी प्रतिभा और ताकत के साथ मौजूद होती हैं, लेकिन किसी की निगाह उन पर नहीं जाती। सवाल है इस मौन धारण, अवहेलना और उपेक्षा का कारण क्या है? क्या इसका कारण उनका शूद्र तबके में जन्म लेना और स्त्री होना माना जाए? सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन समाज के वंचित तबकों खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष और सहयोग में बीता। ज्योतिबा संग सावित्रीबाई फुले ने क्रूर ब्राह्मणी पेशवाराज का विरोध करते हुए, लड़कियों के लिए स्कूल खोलने से लेकर तत्कालीन समाज में व्याप्त तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी रूढ़ियों-आडंबरों-अंधविश्वास के खिलाफ मजबूती से जंग लड़ने की ठानी।”

10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीजों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के रोग से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी रोग लग गया। और इसी कारण से इनकी मृत्यु हुई।

10 मार्च 1998 को उनके परिनिर्वाण दिवस पर उनके शैक्षिक सामाजिक योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन पर दो रुपये का डाक टिकट जारी किया।

3 जनवरी 2017 को उनके 186वें जन्म दिन पर उनके सम्मान में गूगल ने उन पर अपना डूडल बनाया था।

सावित्री बाई जैसी शिक्षा की महानायिका को जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। उनके जैसी जुझारू और शिक्षा के लिए, समाज सेवा के लिए अपना सारा जीवन अर्पित कर देने वाली महान शिक्षिका के जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। पर क्या मौजूदा सरकारों से ऐसी उम्मीद की जा सकती है?

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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