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किसान आंदोलन में है अर्थव्यवस्था को बदल डालने की ताक़त 

किसान आंदोलन की एकजुटता बनी रहे और इस आंदोलन से जो हलचल पैदा हुई है, वो और बढ़ सके, और जो सवाल और चिंताएँ सामने आईं हैं, वे समाज की निगाह से ओझल न हों, इसके लिए सोच-समझ के साथ किसान आंदोलन को अनेक नये कदम उठाने होंगे।
farm protest

कॉर्पोरेट पूँजी के सामने अब तक का सबसे बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है। नवउदारवाद के दौर में पिछले तीस वर्षों में मुनाफ़ा कमाने की प्रक्रिया में अनेक बार अवरोध आये लेकिन इतनी बड़ी अड़चन कभी नहीं आयी थी। इस संकट से बाहर निकलने की छहटपटाहट में कॉर्पोरेट पूँजी ने अपना आखिरी हमला बोल दिया है। 

उद्योगों, व्यापार और वित्त के क्षेत्रों को निगलने के बाद कॉर्पोरेट पूँजी की लालची ऑंखें अब ज़मीन और खेती-किसानी की तरफ घूम गयी हैं। खेती-किसानी के साथ-साथ कॉर्पोरेट पूँजी का इरादा सार्वजनिक क्षेत्र में मौजूद सड़क, रेल, हवाई अड्डे, विमानन कंपनियाँ, जहाज, बंदरगाह आदि सार्वजनिक इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण के सार्वजनिक सेवा क्षेत्र को निगल जाने का भी है। 

सबसे अहम् बात है इस कॉर्पोरेट पूँजी का हमारे देश की ज़मीन पर नज़रें गड़ी होना। हमारे देश की जलवायु उष्ण कटिबंधीय और अर्ध उष्ण कटिबंधीय होने से हमारे यहाँ तमाम तरह की फसलें पैदा की जा सकती हैं। सारी दुनिया में हमारी खेती की पैदावारी ताक़त अनूठी है। 

याद रखिये कि पूँजीवाद का यह हमला  हमारी खेती और ज़मीन पर नया नहीं है। भारत के खेती-किसानी करने वाले लोगों पर 18वीं सदी में उपनिवेशवाद के दौर में अँगरेज़ों ने हमला शुरू किया था। उन्होंने न केवल अपनी ज़रूरत की फसलों की ज़बरदस्ती खेती करवाई और हमारा फसल चक्र बदल डाला बल्कि खेती पर तमाम तरह के टैक्स लगाकर दुनिया के भीषण अकालों को अंजाम दिया जिसमें लाखों लोगों की जानें गईं। इतिहास एक बार फिर अपने आपको दोहरा रहा है। 

औपनिवेशिक गुलामी के दौर के ख़त्म होने के बाद भारत में स्थापित हुए कल्याणकारी राज्य ने खेती-किसानी में शामिल लोगों के लिए नये मौके मुहैया करवाए। नयी तकनीक और राज्य का सकारात्मक हस्तक्षेप खेती को मिला और नतीजे के तौर पर देश खाद्य पदार्थों के उत्पादन के मामले में काफी हद तक आत्मनिर्भर बना। इससे खेती से जुड़े लोगों की ज़िंदगी में ज़मीनी स्तर पर बड़े बदलाव आये। बेशक जो बदलाव आये वो खेती से जुड़े हर तबके के लिए एक जैसे नहीं थे, न ही ऐसा था कि वे बदलाव देश के सभी इलाकों के सभी किसानों तक पहुँचे। लेकिन इन बदलावों में किसानों के पूरे तबके को बेहतरी की ओर ले जाने का वादा था। अब ये वादा और बेहतरी की संभावना ही पूरी तरह ख़त्म की जा रही है। 

भारत के खेतिहर समाज पर हाल-फिलहाल जो खतरा मंडरा रहा है, वो उन  कृषि कानूनों की शक्ल में है जिनके अमल में आने पर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान की कृषि अर्थव्यवस्था का वह हिस्सा तबाह हो जायेगा जो खेत मज़दूरों और छोटे किसानों की तुलना में बेहतर आर्थिक स्थिति में है। इन कानूनों के अमल में आने से कॉर्पोरेट पूँजी को भारत की कृषि से जुड़ी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बेरोकटोक कारोबार का रास्ता भी खुल जाएगा। सरकार द्वारा कॉर्पोरेट पूँजी के गठजोड़ में खेती-किसानी पर किये गए हमले की रणनीति न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) पर सरकार के रुख से और साफ़ नज़र आती है। ये अहम् बात है कि सत्ता में बैठे लोग न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) को कभी भी सभी राज्यों की सभी फसलों के लिए कानूनी तौर पर लागू नहीं करना चाहते हैं। वे कभी ऐसा करना भी नहीं चाहते थे। क्योंकि एमएसपी कृषि के प्रगतिशील बदलाव की मुख्य धुरी है।  

इसलिए ज़ाहिर है कि किसानों का जो आंदोलन शुरू हुआ, वो उन इलाकों के किसानों ने शुरू किया जिन पर इन कानूनों की सबसे पहले और सबसे साफ़ तौर पर मार पड़ रही थी। ये किसान आंदोलन किसानों द्वारा ही संगठित किया गया और उसी में से इसके नेतृत्व को गढ़ा गया। इस आंदोलन को पूरे देश के किसान समाज से सहयोग और समर्थन मिला भले ये किसान वर्गीय आधार पर उनसे छोटे हों या वे देश के मुख्तलिफ इलाकों के हों। यह आंदोलन ग्रामीण खेतिहर समाज के भीतर मौजूद जातिभेद और सांप्रदायिक भेद की चुनौतियों से भी निपटकर आगे बढ़ा। हुक्मरानों ने राष्ट्रवाद के नाम पर भी इसे बदनाम करने की साज़िशें कीं, आंदोलनकारी किसानों को खालिस्तानी और विदेशों से आनेवाले पैसों पर चलने वाला कहा गया लेकिन उस साज़िश को हराकर भी ये आगे बढ़ा। सबसे बड़ी बात यह कि जाति, धर्म और भौगोलिक या प्रांतीय फर्क को पार करके इसने एक नयी राजनीतिक पहचान भी विकसित की जो "किसान" होने की पहचान है। 

इस किसान आंदोलन ने राजनीतिक दलों से एक सुरक्षित दूरी रखने का विवेक और दूरदर्शिता दिखाई है क्योंकि राजनीतिक दलों के फौरी चुनावी राजनीतिक स्वार्थ और संकीर्णताएँ आन्दोलन से व्यापक जनता को जोड़ने में अड़चन बन सकती थीं। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आंदोलन के भीतर राजनीतिक समझ का अभाव है। रणनीतिक तौर पर इस आंदोलन ने अपने आपको अधिक राजनीतिक बनाया है और व्यापक राजनीतिक समझ विकसित की है। इसने मेहनतकश तबके से, नौजवानों से, बेरोज़गारों से, छोटे-मोटे व्यापारियों से और आढ़तियों से सहयोग और समर्थन की अपील की है जो खुद भी कॉर्पोरेट पूँजी के हमले का शिकार बनने वाले हैं और बन भी रहे हैं।  

यह भी सच है कि आंदोलन में अभी भी कुछ कमज़ोर जगहें हैं। इन दरारों को बढ़ने से रोकने का और उन्हें पाटने के तरीकों के बारे में आंदोलन को खुद सोचना ही होगा। 

इसमें सबसे स्पष्ट दरार तो यही है कि एक तरफ़ बड़े किसान हैं और दूसरी तरफ़ छोटे और सीमान्त किसान तथा भूमिहीन खेत मज़दूर हैं। ज़ाहिर है इन समूहों के नफ़े-नुकसान के पैमाने एक जैसे नहीं होंगे। लेकिन वे अभी तक सरकार की तरफ़ से किसानों को बाँटकर उनमें फूट पैदा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद आंदोलन में एकजुटता कायम किए हुए हैं। 

फिलहाल कॉर्पोरेट पूँजी के हमले का डर और खेती से जुड़े समूचे ग्रामीण समाज की आर्थिक हालत के पहले से बदतर हो जाने की असुरक्षा सभी छोटे-बड़े किसानों और खेत मज़दूरों को साथ में ले आयी है। आंदोलन को लगातार बुलंद बनाये रखने में एक तरफ बड़े किसानों के संसाधनों की भूमिका है लेकिन उतनी ही अहम भूमिका उस तादाद की भी है जो छोटे किसानों और खेत मज़दूरों की भागीदारी के बिना मुमकिन नहीं हो सकती थी। आंदोलन में रफ़्तार और एकजुटता बनाये रखने में पंजाब, दिल्ली और हरियाणा के गुरुद्वारों व लंगरों, तथा उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की खाप पंचायतों और किसान महापंचायतों का भी अहम् किरदार रहा है।  फिर भी इस एकजुटता को लम्बे समय तक कायम रखने के लिए कुछ और भी कदम उठाना ज़रूरी होंगे। 

उसमें सबसे अहम् कदम होगा ग्रामीण-कृषि अर्थव्यवस्था को सहकारिता (कोऑपरेटिव) के आधार पर फिर से खड़ा करना। इससे सीमान्त और छोटे खेतों वाले किसान आर्थिक रूप से सक्षम इकाइयाँ बन सकेंगे।  

जब किसानी इस तरह से कोऑपरेटिव आधार पर पुनर्गठित की जाएगी तो उसमें मज़दूरों की और भी कम ज़ररूरत होगी। मतलब कम लोग मिलकर ही उतना काम कर लेंगे जितना खेत के हिसाब से ज़रूरत होगी। ज़ाहिर है इससे जो अतिरिक्त मेहनतकश लोग बचेंगे और जो खेत मज़दूर होंगे, उन्हें मज़दूरों के समूहों में संगठित करना होगा। श्रमिकों के इन समूहों को खेती की अर्थव्यवस्था के साथ आगे-पीछे जुड़ी ज़रूरतों में तो लगाया ही जा सकता है (जैसे बीज, खाद, कीटनाशक आदि का इंतज़ाम और फसल तैयार होने के बाद उसका भण्डारण, वितरण, विक्रय, प्रसंस्करण आदि), साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा व सामाजिक सेवाओं का पूरा ढाँचा तैयार करने में भी इनका समुचित उपयोग किया जा सकेगा।  

ज़ाहिर है इस तरह का आमूलचूल बदलाव राज्य की केंद्रीय भूमिका के बिना नहीं हो सकता। कॉर्पोरेट पूँजी का हितैषी मौजूदा राज्य भला क्यों यह होने देना चाहेगा लेकिन किसानों की एकजुटता और उनकी राजनीतिक ताक़त के चलते राज्य अगर न भी चाहे तो भी उसे यह समर्थन देने पर मजबूर किया जा सकता है। 

मौजूदा किसान आंदोलन में एक और कमज़ोरी पर्यावरण को लेकर इसकी अपर्याप्त संलग्नता है जिसकी तरफ भी आंदोलन को ध्यान देना होगा। हरित क्रांति अपने साथ पानी, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल लेकर आयी थी। इससे ज़मीन और पानी पर ख़राब असर हुए हैं और इससे ऐसे हालात बने हैं जिसकी वजह से किसी ख़ास इलाके में सिर्फ एक ही फ़सल पैदा हो सकती है। खेती का यह तरीका पारिस्थिकीय तंत्र के लिहाज से भी मुनासिब नहीं है।

किसानों ने ये काम कोई जानबूझकर नहीं किया है। वो पहले से हरित क्रांति के साथ जुड़े खाद, पानी, रसायनों के बेजा इस्तेमाल के बारे में नहीं जानते थे कि लम्बे वक़्त में इसके क्या नतीजे होंगे। जैसा उन्हें तत्कालीन सरकार और वैज्ञानिकों ने उस वक़्त बताया, उन्होंने वैसे ही खेती करना शुरू कर दी और नतीजे में जो बम्पर फसल हुई, उसने उन्हें पर्यावरण या क़ुदरत के साथ हो रहे बर्ताव के बारे में ज़्यादा सोचने का मौका ही नहीं दिया। वो तो अब जब ज़मीन के नीचे के पानी का स्तर हज़ारों फ़ीट नीचे चला गया है, मिटटी की गुणवत्ता और उत्पादकता बेहद कम हो गयी है और कीटनाशकों के प्रयोग ने अनेक गाँवों में कैंसर जैसी असाध्य बीमारियों ने अपने पैर पसार लिए हैं, तब यह पर्यावरण और जलवायु की बात महत्त्वपूर्ण हो उठी है। 

किसान तबका अब यह बात समझ रहा है। लेकिन जो हालात बन गए हैं, उनमें ये ज़रूरी है कि सामूहिक दूरदर्शिता से खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस तरह पुनर्गठन किया जाए जो पर्यावरण हितैषी हो। एक बार फिर इसे करने में भी सरकार की भूमिका बहुत अहम होगी। खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ज़मीन और पानी के इस्तेमाल की वैज्ञानिक आधार वाली जनहितैषी नीति बनाने के लिए सरकार को ही पहलकदमी करनी होगी। सरकार को खेती की ज़मीन को कॉर्पोरेट के कब्ज़े से बचाने के लिए ज़मीन की ख़रीद-बिक्री को भी पूरी तरह बंद करना होगा। जैसा क्यूबा की सरकार ने कर दिखाया है कि यदि जैविक खेती और फसलों में विविधता को बढ़ावा दिया जाए और नयी तकनीकों की खोज के लिए शोध और विकास में ज़्यादा निवेश किया जाए तो रासायनिक उर्वरकों पर खेती की निर्भरता को घटाया जा सकता है तथा पानी का इस्तेमाल कम किया जा सकता है और फिर भी  खेती की उत्पादकता बनाये और बढ़ाये रखी जा सकती है। 

किसान आंदोलन के सामने तीसरी कमज़ोरी है कृषि उत्पादन तथा व्यापार पर विश्व व्यापार संगठन की तरफ़ से लागू अंतरराष्ट्रीय बंधन। सरकार इन्हीं शर्तों को अपने तथाकथित "सुधार एजेंडे" को आगे बढ़ाने के लिए आखिरी तर्क के तौर पर इस्तेमाल करेगी। 

विश्व व्यापार संगठन ने भारत की खेती को वैश्विक या जागतिक बाजार के साथ जोड़ दिया है जिसमें खेती की बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों का दबदबा है। यह प्रक्रिया पूरी तरह अतार्किक, नाइंसाफी भरी और साम्राज्यवादी है। विकसित देशों की खेती हमारे देश की खेती से पूरी तरह अलग है। उसका ढाँचा अलग है, उसकी गुणवत्ता अलग है। उन देशों की अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खेती का योगदान बहुत ही कम है। इसी तरह वहाँ खेती पर निर्भर श्रमिक भी अधिक नहीं है। जबकि हमारे देश के हालात इसके बिलकुल उलट हैं। हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद में खेती की  हिस्सेदारी 15 फ़ीसदी है जबकि खेती पर निर्भर लोगों की तादाद 50 फीसदी है। 

हमारे देश में बड़ी आबादी ग़रीबी में रहती है। उनकी आमदनी इतनी भी नहीं होती कि वे अपनी ज़रूरत के मुताबिक खाना भी खा सकें। इसलिए सरकार लोगों की अनाज की ज़रूरतों को सिर्फ़ आयात के भरोसे छोड़ कर देश की बड़ी आबादी को खाद्य असुरक्षा की ओर नहीं धकेल सकती है। अपनी खस्ताहाल विशाल आबादी को उचित दाम पर रसद की आपूर्ति करने के लिए उसे अपने देश में भी अच्छा-खासा कृषि उत्पादन करना होगा और सार्वजानिक क्षेत्र के माध्यम से बड़े पैमाने पर अनाज का भण्डारण और वितरण भी करना होगा। 

कृषि उत्पादों के भूमंडलीय बाज़ार कीमतों की घोर अनिश्चितता के लिए कुख्यात है। हमारे कृषि उत्पादन और विपणन को उस बाज़ार की कीमतों की उथल-पुथल से सीधे बाँध देने के दुष्परिणामस्वरूप कृषि पर निर्भर श्रमिकों के बहुत बड़े  तबके पर अनियोजित ढंग से विस्थापित किये जाने का ख़तरा सदा बना रहेगा। सामाजिक और आर्थिक स्थिरता के लिए यह ज़रूरी है कि हम हमारी कृषि व्यवस्था को ऐसी उथल-पुथल और अव्यवस्था से बचाकर रखने की हरसंभव कोशिश करें। 

गैट के इतिहास पर नज़र डालने पर और डब्ल्यूटीओ के अस्तित्व में आने के पहले, योरपियन इकॉनॉमिक कम्युनिटी (जिसका मौजूदा अवतार योरपीय यूनियन है) और अमेरिका के बीच जो लम्बी और गहन सौदेबाजी हुई, उससे ये स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन और व्यापार का विषय अन्य किसी व्यापार की तुलना में कितना महत्त्वपूर्ण, भिन्न और ख़ास है। 

अमेरिका और यूरोप की कृषि व्यापार (एग्रीबिजनिस वाली लॉबी बहुत ताक़तवर और विश्वस्तरीय है। इसी लॉबी ने डब्ल्यूटीओ में शामिल कृषि समझौते (अग्रीमेन्ट ऑन एग्रीकल्चर) के तहत दो महत्त्वपूर्ण कामयाबियां हासिल कीं। एक तो उन्होंने अपने देशों की सरकारों को खेती के क्षेत्र को समर्थन देना सुनिश्चित कर लिया ताकि उनके देशों के कृषि उत्पाद सस्ते हों। साथ ही साथ उन्होंने विकासशील देशों के बाज़ारों को अपने देशों के सब्सिडी प्राप्त कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए खोलने में भी कामयाबी हासिल कर ली। इसके ठीक उलट विकासशील देश अब तक आयातों के हमले के खिलाफ डब्ल्यूटीओ के आकाओं से कुछ न्यूनतम सुरक्षात्मक प्रावधान बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। वे इस बात के लिए अभी लड़ रहे हैं कि अपने देश के ज़रूरतमंद लोगों के लिए सरकारी खर्चे से आवश्यक मात्रा में खाद्यान्न भंडारण करने का उनका अधिकार डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते (एओए) में कानूनन शामिल हो। 

ये छोटी-छोटी सी माँगों को लेकर पिछले दो दशकों से वार्ताएँ दर वार्ताएँ चलती आ रही हैं लेकिन नतीजा अभी तक सिफर ही रहा है। अब ऐसे एकीकृत प्रयास किए जाने चाहिए जिससे हमारे जैसे मुल्कों में खेती का जो विशिष्ट, अद्वितीय और मौलिक स्थान है, उसको सर्वमान्यता हासिल हो। और परिणामस्वरूप, डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत कृषि समझौते (एओए) में ऐसे देशों को अपने कृषि उत्पादन तथा व्यापार के विषय में विस्तृत नीति-स्वातंत्र्य हासिल हो।   

पहले के गैट के निज़ाम में जिन तर्कों के आधार पर अमेरिका को अपनी कृषि उत्पाद और व्यापार के विषय में स्थायी रूप से नीतिगत छूट दी गयी थी और यूरोपियन इकॉनॉमिक कम्युनिटी को अपनी साझी कृषि नीति जारी रखने की छूट दी गई थी, और बाद में भी जिन तर्कों की बुनियाद पर मौजूदा डब्ल्यूटीओ के निज़ाम में अमेरिका और यूरोपियन यूनियन को मुक्त मन से सब्सिडी के "हरे और नीले बक्सों" के तहत बड़ी-बड़ी छूटें दी गईं, उन तर्कों की वैधता हमारी ज़रूरतों के सामने न तब कुछ थी और न अब कुछ है। हमारे देश में ज़रूरत खाद्य सुरक्षा की है,  फिर उसके बाद, खेती पर निर्भर भारी-भरकम आबादी के अनियोजित और अप्रत्याशित विस्थापन के भूचाल को रोकने की है। खेती के उत्पादन और व्यापार के सन्दर्भ में अधिक स्वायत्तता की माँग करने का तर्क हमारे पास उनकी तुलना में कहीं ज़्यादा मज़बूत है। 

यह सही वक़्त है जब हम अपनी माँग डब्ल्यूटीओ में ज़ोरदार तरीके से उठाएँ। नवंबर, 2021 में डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक होना निर्धारित है। खबर है कि डब्ल्यूटीओ में भारत और चीन की दो साधारण सी जायज़ (जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है) माँगों के समर्थन में काफ़ी माहौल बन चुका है। भारत को इस मौके पर खेती सम्बन्धी एजेंडे का दायरा बढ़ाने की पहल करना बहुत ज़रूरी है। कृषि उत्पाद और व्यापार के मामले में विकासशील देशों के लिए विस्तृत नीतिगत स्वातंत्र्य हासिल करने के लिए एक समेकित और ज़ोरदार मुहिम का नेतृत्व भारत को करना चाहिए।  

ऐसा कदम उठाने के लिए यह वक़्त बिल्कुल मुफ़ीद है। पूरी दुनिया में मंदी के हालात बने हुए हैं। हाल में आपूर्ति की कड़ियों का टूटना सारी दुनिया ने महसूस किया। कोविड-19 की महामारी की वजह से दुनिया भर में भूख और कुपोषण अपने विकरालतम स्वरूप में पूरी तरह ज़ाहिर हो चुके हैं और सारी दुनिया में खाद्यान्न के बारे में राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की दिशा में ठोस पहल की जा रही है। यह सभी हालात हमारे लिए भोजन के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिर्भरता के एजेंडे को आगे बढ़ाने में मददगार होंगे। 

आखिर में, यह बात ध्यान देने लायक है कि डब्ल्यूटीओ अपने 25  वर्षों के संस्थागत इतिहास में फिलहाल सबसे कमज़ोर हालत में है। इसकी वजह भी वो तेज़ चाल वाली क्षेत्रीय और वैश्विक पहलक़दमियाँ हैं जिन्होंने डब्ल्यूटीओ को किनारे पर खिसका दिया है, जैसे मुक्त व्यापार समझौते (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स) और आर्थिक एवं व्यापार के सहयोग समझौते। इसके साथ ही डब्ल्यूटीओ के कमज़ोर होने की एक और प्रमुख वजह अमेरिका द्वारा बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के मुख्य संरक्षक की भूमिका से क़रीब-क़रीब छुट्टी ले लेना है।  

हम अपनी सरकार से यह उम्मीद नहीं करते हैं कि वो डब्ल्यूटीओ के हुक्मों के सामने घुटने टेककर आत्मसमर्पण कर दे और फिर देश में किसानों से कहे कि डब्ल्यूटीओ की शर्तों के मुताबिक इन तथाकथित "कृषि-सुधारों" को मानना सरकार की मजबूरी है। और इस तरह अपने देश की बहुसंख्य आबादी को संकट में डालकर कॉर्पोरेट पूँजी के स्वागत के अपने गोपनीय एजेंडे को आगे बढ़ाए। बल्कि सरकार को इसके बिलकुल उलट ये करना चाहिए कि डब्ल्यूटीओ में खेती के सन्दर्भ में अपनी ज़रूरत के मुताबिक सही राष्ट्रीय नीतियाँ बनाने के लिए ज़्यादा स्वायत्तता की जायज़ माँग को ताक़त के साथ उठाए। 

कुलमिलाकर, किसान आंदोलन की एकजुटता बनी रहे और इस आंदोलन से जो हलचल पैदा हुई है, वो और बढ़ सके, और जो सवाल और चिंताएँ सामने आईं हैं, वे समाज की निगाह से ओझल न हों, इसके लिए सोच-समझ के साथ किसान आंदोलन को अनेक नये कदम उठाने होंगे:

खेती और उसके साथ जुडी हुई ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सही तरह से संगठित करने का यह सही मौका है। जो नयी ग्रामीण व्यवस्था हो वो ऐसी हो जिसमें ज़मीन और पानी के इस्तेमाल की वैज्ञानिक और जनहितैषी नीतियाँ हों। इसी समय खेती की ज़मीन को गैर कृषि उपयोग और कॉर्पोरेट को देने के लिए प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। ऐसे में ही छोटे और सीमान्त किसानों के साझा खेती करने वाले समूह बनाये जा सकते हैं। ग्रामीण इलाकों में सड़क, पानी, बिजली, विद्यालय, अस्पताल आदि बुनियादी सेवाओं का ढाँचा खड़ा करने के लिए उन मज़दूरों के भी समूह और कोऑपरेटिव बनाए जा सकते हैं जिनकी खेती में ज़रूरत नहीं है, जो अतिरिक्त हैं, और जो केवल इसलिए गाँवों में हैं क्योंकि बाहर भी उनके लिए कोई काम नहीं है। उन्हें खेती के उत्पादन के पहले और कटाई के बाद होने वाली आगे-पीछे की अनेक प्रक्रियाओं की ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती है मसलन बीज संग्रहण, बीज तैयार करना, और कटाई के बाद प्रसंस्करण, भण्डारण, परिवहन, आदि। ऐसी नयी तकनीकों की खोज पर काम हो सकता है जो उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण की दुश्मन भी न हों। किस इलाके में किस चीज़ की ज़रूरत है और किस इलाके में कोई चीज़ इफरात में है, इसकी जानकारी के आधार पर कोऑपरेटिव समूहों के बीच वस्तुओं के संतुलन के आधार पर इलाकेवार योजना बनाई जा सकती है ताकि कोऑपरेटिव  का संजाल आपस में एक-दूसरे की मदद भी कर सके और एक दूसरे को मज़बूत भी बना सके। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) यानी राशन की दुकानों को खाद्यान्न संग्रहण के साथ जोड़ा जा सकता है। स्थानीय कोऑपरेटिव फसल इकट्ठी कर सकते हैं, उसका भण्डारण और उसका वितरण भी स्थानीय ग्रामीणों के कोऑपरेटिव समूहों  को दिया जा सकता है। ऐसी स्थानीय परियोजनाओं को लिया जा सकता है जिसमें मज़दूर ज़्यादा लगते हों और मशीन कम। देश के अंदर के व्यापार और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में सार्वजनिक या कोऑपरेटिव सेक्टर की भूमिका को बढ़ाया जा सकता है। और इस सबके साथ ही डब्ल्यूटीओ के अनुशासन में चल रहे कृषि उत्पादन और व्यापार के मामले में अपनी अधिक स्वायत्तता भी हासिल की जा सकती है। 

किसान आंदोलन ने अब तक अपनी ताक़त और सब्र दोनों दिखाये हैं। साथ ही उन्होंने आंदोलन के नये तरीके भी दिखाये हैं और दिखाया है कि उनका आंदोलन संकीर्ण स्वार्थ केंद्रित न होकर वाकई राष्ट्रीय चरित्र का है। इसलिए ये स्वाभाविक ही है कि इससे ऐसे मुकम्मल कदम उठाने की उम्मीद जागती है जो सिर्फ आंदोलन को अभी तत्काल सामने दिख रहे ज़मीन हड़पे जाने के, अपनी रोज़ी-रोटी छिनने के और अपनी किसान पहचान पर मंडरा रहे खतरे से ही खुद को नहीं बचाएगा बल्कि एक ऐसी अर्थव्यवस्था की बुनियाद भी डालेगा जो एक-दूसरे के साथ सहयोग, लोगों की आपसी एकजुटता और एक टिकाऊ विकास से बनी हो। 

(लेखक पूर्व वित्त सचिव तथा दिल्ली स्थित जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)  

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