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बनारस: गंगा की रेत पर नहर की खुदाई के लिए सिंचाई विभाग दोषी, एनजीटी ने दी कड़ी चेतावनी

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सख़्त रुख को देखते हुए शासन और प्रशासन के दबाव में सिंचाई विभाग को अपनी गलती माननी पड़ी। अफसरों को एनजीटी के समक्ष कहना पड़ा कि जानकारी के अभाव में उनसे गलती हुई है।
UP Nahar Issue

बनारस के खूबसूरत गंगा घाटों पर पानी का दबाव कम करने के नाम पर रेत पर खोदी गई नहर के मटियामेट होने के मामले में ठीकरा सिंचाई विभाग के माथे पर फोड़ दिया गया। इस मामले की सुनवाई के दौरान केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय, वाराणसी जिला प्रशासन और नहर बनाने वाली कार्यदायी संस्था सिंचाई विभाग के बीच जमकर तनातनी चली। बाद में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के सख्त रुख को देखते हुए शासन और प्रशासन के दबाव में सिंचाई विभाग को अपनी गलती माननी पड़ी। अफसरों को एनजीटी के समक्ष कहना पड़ा कि जानकारी के अभाव में उनसे गलती हुई है। एनजीटी की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि गंगा पार रेती पर नहर बनाने में नियमों की अनदेखी की गई। ड्रेजिंग से निकले हुए मैटेरियल को टेंडर के जरिए बेच देना नियम विरुद्ध है।

वाराणसी में गंगा पार रेती पर नहर निर्माण में 11.95 करोड़ से ज्यादा की धनराशि खर्च की गई थी। गंगा का जलस्तर बढ़ा तो नहर का वजूद मिट गया। समूची नहर गंगा की गोद में समा गई। अस्सी से राजघाट के समानांतर रेत में नहर की खोदाई के लिए अब सिंचाई विभाग को दोषी मान लिया गया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के कड़े रुख को देखते हुए अफसरों ने खुद अपनी गलती मान ली। सुनवाई के दौरान सिंचाई विभाग के प्रमुख सचिव के अधिवक्ता ने कहा, “हमें तो यह जानकारी ही नहीं थी कि ड्रेजिंग के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) की अनुमति लेनी चाहिए। हमने यह काम भरोसे में किया था। हमें यह भी नहीं पता था कि ड्रेजिंग मैटेरियल को बेचा नहीं जा सकता है। हमने जानबूझकर गलती नहीं की है।” फिलहाल, एनजीटी ने सुनवाई के बाद आदेश देते हुए कहा है कि ऐसी घटना दोबारा नहीं होनी चाहिए।

सिंचाई विभाग पर फोड़ा ठीकरा

गंगा पार रेती पर नहर बनाने के मामले में नया मोड तब आया जब केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने 5 जनवरी 2023 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के समक्ष तल्ख जवाब दाखिल किया। एनजीटी में दाखिल जवाब में मंत्रालय ने साफ-साफ कहा कि गंगा पार रेत पर नहर बनाने के लिए नमामि गंगे और राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण  (एसईआईएए)  से अनुमति नहीं ली गई थी। कार्यदायी संस्था सिंचाई विभाग ने भी इस मामले से किनारा कर लिया और महकमे के अफसरों ने सारा दोष प्रशासन के माथे पर मढ़ दिया। सिंचाई विभाग के अफसरों ने अपनी गर्दन बचाने के लिए यह बात भी लिखकर दे दी कि वाराणसी जिला प्रशासन के दबाव में जेसीबी और पोकलेन से ड्रेजिंग करके रेत पर करीब 5.3 किमी लंबी नहर बनाई गई। गंगा का जल स्तर बढ़ा तो रेत की नहर का वजूद मिट गया। हालांकि बाद में सिंचाई विभाग ने सारी गलती अपनी मान ली।


नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की चार सदस्यीय पीठ के समक्ष 10 मार्च 2023 को इस मामले की सुनवाई हुई। जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता में जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस अरुण कुमार त्यागी और डॉ. ए. सेंथिल वेल ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि गंगा पार रेती पर नहर बनाने में नियमों की अनदेखी की गई। ड्रेजिंग से निकले हुए मैटेरियल को टेंडर के जरिए बेच देना नियम विरुद्ध है। ड्रेजिंग में निकली बालू का इस्तेमाल सिर्फ सरकारी कार्य, तटबंध बनाने और कटान को रोकने के लिए ही किया जा सकता है। ड्रेजिंग के लिए एनएमसीजी व राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की सहमति ली जानी थी, लेकिन वह नहीं ली गई। सुनवाई के दौरान सिंचाई विभाग के अधिकारी दुहाई देते रहे कि उन्होंने जानबूझकर गलती नहीं की। उन्हें ड्रेजिंग के लिए अनुमति लेने और मैटेरियल को न बेचने की बाध्यता के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।

ड्रेजिंग नियमावली बनाने के निर्देश

रेत की नहर पर फैसला सुनाते हुए एनजीटी की पीठ ने दो टूक शब्दों में कहा, ''भविष्य में ऐसी गलती पर माफी नहीं मिलेगी। नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) को देशभर की नदियों में खुदाई के लिए महीने भर में ड्रेजिंग नियमावली बनानी होगी।''

एनजीटी की पीठ ने यह भी कहा कि यह चौंकाने वाली बात है कि गंगा पार रेती पर नहर बनाने में नियमों की सरासर अनदेखी की गई। पीठ ने अपने आदेश में यह भी कि एनएमसीजी देश भर की नदियों में ड्रेजिंग की नियमावली एक माह के अंदर तैयार करे। जो नियमावली बने, उसे एनएमसीजी की वेबसाइट पर भी उपलब्ध कराई जाए। इसका विभिन्न माध्यमों से प्रचार भी किया जाए। एनजीटी ने विशेषज्ञों के निर्देश पर सील्ट निस्तारण की कार्ययोजना तैयार करने के आदेश भी दिए गए हैं।

याचिकाकर्ता डॉ. अवधेश दीक्षित की तरफ से अधिवक्ता सौरभ तिवारी ने एनजीटी के पीठ के समक्ष तर्क यह दिया कि गंगा पार रेती पर अवैध खनन किया गया था और बाढ़ में वह भी बह गया। इसके बाद भी रेत की खुदाई की गई और उसे मनमाने तरीके से बेचा गया। इसके लिए भी एनएमसीजी की ओर से कोई अनुमति नहीं ली गई। अधिवक्ता सौरभ तिवारी ने सबूत पेश करते हुए कहा कि रेत पर नहर निर्माण में 11.95 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जबकि सिर्फ 2.5 करोड़ रुपये का राजस्व मिल पाया। इस तरह कुल लगभग 9.43 के  राजस्व की हानि हुई। गंगा की बाढ़ खत्म होने पर न नहर बची, न नहर की खुदाई से बालू निकाला जा सका। रेत पर नहर के मामले में एनजीटी ने कुल छह पन्नों का फैसला सुनाया।

(एनजीटी में रेत की नहर का मुद्दा उठाने वाले अधिवक्ता सौरभ)

अधिवक्ता सौरभ तिवारी ने ‘न्यूज़क्लिक’ से कहा, ''गंगा नदी के वजूद को बचाने के लिए हमारा संघर्ष आगे भी जारी रहेगा। गंगा की रेत पर अवैध तरीके से बसाई गई टेंट सिटी का मामला भी हमने एनजीटी पीठ के समक्ष रखा है। इस मामले में भी जल्द सुनवाई होने की उम्मीद है। फिलहाल, एनजीटी का फैसला सकारात्मक है। इस मामले में सिंचाई विभाग और उत्तर प्रदेश सरकार की ग़लती मानी गई है। यह अलग पहलू है कि किसी को दंडित नहीं किया गया।''

नहीं मानी विशेषज्ञों की बात

नदी विज्ञानियों ने रेत में नहर के बनने से पहले ही आशंका जता दी थी कि बाढ़ आते ही 1,195 लाख रुपये पानी में डूब जाएंगे। नदी वैज्ञानिक प्रोफेसर यूके चौधरी,  जाने-माने पर्यावरणविद प्रोफेसर विश्वंभरनाथ मिश्र और प्रो बीडी त्रिपाठी की आशंका अंततः सच साबित हुई। जैसे ही नदी का जलस्तर बढ़ा, वैसे ही रेत की नहर का वजूद मिट गया।

विशेषज्ञ यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि बनारस की गंगा में अनियोजित विकास से नदी बनारस के खूबसूरत घाटों से रूठकर दूर चली जाएगी। उन्होंने यह भी बता दिया था कि “रेत की नहर” बाढ़ के पानी की गति नहीं झेल पाएगी, क्योंकि उसे वैज्ञानिक सिद्धांतों के विपरीत बनाया गया है। नहर बनने के बाद गंगा में पानी की गहराई कम होने लगेगी। इसके चलते वेग में कमी आएगी। तब घाटों के किनारे गाद जमा होगी और नदी का प्रवाह थमने लगेगा। रेत में नहर क्यों बनाई जा रही है, इसका ब्योरा पब्लिक डोमेन में रखा जाना चाहिए था, लेकिन जनता के पैसे से होने वाला यह विकास कार्य छिपाकर किया गया।

गंगा में नहर बनाकर 1195 लाख रुपये बर्बाद करने का मुद्दा उस समय भी उछला था जब समाजवादी पार्टी के एमएलसी आशुतोष सिन्हा ने यूपी विधान परिषद के बजट सत्र में उठाया। वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगाते हुए कहा, “ रेत पर नहर के लिए नमामि गंगे और राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण से अनुमति नहीं ली गई थी। इसी बीच गंगा का जलस्तर बढ़ा और नव निर्मित नहर का वजूद मिट गया। अब वहां टेंट सिटी बन चुकी है। इनलैंड वाटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया के प्रतिनिधि ने भी इस नहर के निर्माण को गलत ठहराया है। केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने पांच जनवरी 2023 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के समक्ष जो जवाब दाखिल किया है, उसमें साफ कहा है कि नमामि गंगे और राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण से गंगा पार रेती पर नहर खोदाई की अनुमति नहीं ली गई थी। अगर प्रशासनिक अधिकारी वैज्ञानिकों की सलाह मानते तो बड़े नुकसान से बचा जा सकता था।”

भगीरथ बनने का भूत सवार

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, ''बनारस में ‘रेत की नहर’ बनाने के फेर में लाखों रुपये डूब गए। इसे सनक नहीं तो क्या कहेंगे? बालू की रेत पर नहर बनाने के लिए पता नहीं किसने दिमाग लगाया था। दुनिया में किसी नदी में ऐसा मजाक पहले कभी नहीं किया गया। लगता है, कुछ लोगों को नए जमाने का भगीरथ बनने का भूत सवार हो गया है। मोदी सरकार ने शायद केदारनाथ की विनाशलीला से सबक नहीं लिया है। देश के जिन हिस्सों में नदियों के साथ क्रूर मजाक किया गया, वहां उसका खामियाजा निर्दोष जनता को उठाना पड़ा। बनारस में धरोहर और सभ्यताओं के साथ भद्दा मजाक करने का जो दौर शुरू हुआ है, वह गंगा को पूरी तरह खंडहर बनाने की साजिश नजर आती है।''

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप इस बात से हैरान हैं कि अपनी संस्कृति और निशानियों को लुटते देखकर बनारसियों को गुस्सा नहीं आ रहा है। इस शहर में जो आर्तनाद होना चाहिए, वह नहीं उठ रहा है। वह कहते हैं, “अब से पहले बनारस कभी इतना खामोश नहीं रहा। नव निर्माण के नाम पर ऐतिहासिक शहर की बुनियाद को खोखला किया जा रहा है और झूठ की इमारत खड़ी की जा रही है। फरेब इतना करीने से किया जा रहा है कि बनारसियों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि मोदी सरकार उन्हें छल रही है। अब से पहले किसी भी हुकूमत ने इस तरह का घटिया काम नहीं किया। बीजेपी के पास कोई रचनात्मक कार्य नहीं है। सिर्फ लोकलुभावन बातें करके, धन लुटाया जा रहा है। गुजरात की कंपनियां आ रही हैं। गंगा में उनका क्रूज डलवाया गया है और जिस जगह रेत की नहर बनाई गई थी वहां तंबुओं का शहर बसा दिया गया। भविष्य में नया व्यवसायी वर्ग यहां तीर्थयात्रियों का दोहन करेगा। तब सदियों से गंगा के जरिए आजीविका चलाने वाला माझी समाज और किसान भूखों मारा जाएगा।''

वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, ''हजारों साल की मिल्कियत का मालिक रहे बनारस के लोगों ने गंगा के साथ ऐसा खिलवाड़ कभी नहीं देखा था। मणिकर्णिका घाट के सामने नदी में बनाए गए प्लेटफार्म को देखकर कोई भी कह सकता है कि यह गंगा के साथ खिलवाड़ और बनारस के लोगों के साथ धोखा किया जा है। ऐसा खिलवाड़ जिसके बारे में खुद बनारसियों को यह पता नहीं है कि गंगा में विकास के इस नए माडल की उपयोगिता आखिर क्या है? ''

(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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