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जन्मशतवार्षिकी: हिंदी के विलक्षण और विरल रचनाकार थे फणीश्वरनाथ रेणु 
देश-विदेश में महापुरुषों के जन्म एवं पुण्यतिथि पर उनके स्मरण की परंपरा रही है। लेकिन रेणु को याद करना सिर्फ़ कोई रस्म या परंपरा नहीं बल्कि एक समय को याद करना है।
प्रदीप सिंह
24 Jan 2021
फणीश्वरनाथ रेणु 

यह वर्ष प्रख्यात लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ (जन्म : 4 मार्च, 1921 - मृत्यु : 11 अप्रैल, 1977) की जन्मशती है। देश-विदेश में महापुरुषों के जन्म एवं पुण्यतिथि पर उनके स्मरण की परंपरा रही है। लेकिन रेणु को याद करना सिर्फ कोई रस्म या परंपरा नहीं बल्कि एक समय को याद करना है। रेणु ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में आंचलिक जीवन के हर धुन, हर गंध, हर लय, हर ताल, हर सुर, हर सुंदरता और हर कुरूपता को शब्दों में बांधने की सफल कोशिश की है। इस तरह  रेणु को याद करने का अर्थ, इसका विश्लेषण करना भी करना है कि उनके समय में समाज के समक्ष जो चुनौतियां और विडंबनाएं मौजूद थी, क्या आज उसमें कोई कमी आयी है?

रेणु का समय प्रेमचंद के ठीक बाद का था। स्वतंत्रता के पहले प्रेमचंद का लेखन सामाजिक यथार्थवादी परंपरा को उजागर करने वाला था और आजादी के बाद उन विडंबनाओं को समाप्त करने का सपना संजोएं हुए था। लेकिन आजादी के हिंदी साहित्य पर एक तरह के आभिजात्यबोध का कब्ज़ा हो गया। भाषा शब्दों और प्रयोगों के खेल में फंसने लगी थी।

स्वतंत्रता के बाद नया जीवन, प्रगति के नए-नए सपने और ऊंच-नीच का भेदभाव समाप्त होने के बजाय कमोबेश शिथिल पड़ने लगे थे। लेकिन सब सरकारी उपक्रम के तहत। समाज का बड़ा वर्ग सरकारी धुन पर थिरकने और प्रशासन की नजर से देखने का आदि होने लगा। 

ऐसे में रेणु के लिए सबसे आसान था लीक पर चलकर शहरी और मध्यमवर्गीय जीवन की कहानियां लिखते जाना। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। रेणु ने अपने आस-पास का जो दृश्य देखा, जो नंगी आंखों से दिखायी और कानों से सुनाई पड़ती थी और समाज के अंदर से निकलती उस आवाज को सुना जो आजादी के बाद दम तोड़ने लगी थी। रेणु ने आजादी के बाद गांवों की कराह सुनी और अपने लिए रास्ता चुना।

ऐसे बहुत कम लेखक होते हैं जो अपने जीते जी ही किंवदंतियों का हिस्सा हो जाते हैं। जो अपने समय के रचनाकारों के लिए प्रेरणा और जलन दोनों का कारण एक साथ ही बनते हैं। लेकिन रेणु की साहित्यक धारा से बिल्कुल अलग राय रखने वालों को भी उनकी कलम की ताकत से इनकार नहीं था। 

फणीश्वर नाथ रेणु की जन्मशतवार्षिकी के अवसर पर नई दिल्ली स्थित साहित्य अकादेमी ने एक संगोष्ठी आयोजित की जिसमें उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया। उद्घाटन वक्तव्य में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि, “रेणु हिंदी के विलक्षण और विरल रचनाकार थे। अन्य भारतीय भाषाओं में भी उन जैसे रचनाकार गिने-चुने ही हैं। प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा साहित्य को जैनेंद्र के बाद नया मोड़ देने वाले वे दूसरे रचनाकार थे। उन्होंने आजादी के बाद के पहले दशक की सरकारी योजनाओं का सजीव लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। शरद चंद्र और रवींद्रनाथ टैगोर से प्रभावित रेणु के साहित्य में जो राग तत्त्व दिखाई देता है, वह अद्वितीय है।”

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. गोपेश्वर सिंह ने कहा कि, “रेणु की प्रतिबद्धता सच्चाई के प्रति थी और इसके लिए उन्होंने अपने लोगों की आलोचना करने में कोई चूक नहीं की। प्रेमचंद के बाद कथा का नेरेटिव जैसा उन्होंने बदला वैसा कोई और न कर सका। पिछड़े वर्ग के होने के बावजूद भी उन्होंने अगड़े-पिछड़े की राजनीति पर बेबाकी से लिखा।”

चित्तरंजन मिश्र ने कहा कि, “प्रेमचंद के गाँव जहाँ शहर के नजदीक हैं वहीं रेणु के गाँव बेहद अंदर के गाँव हैं इसलिए दोनों के यर्थाथ में बेहद अंतर है। रेणु ने प्रेमचंद के गाँव से जुड़े यथार्थ को नई दृष्टि ही नहीं दी बल्कि उसको सम्पूर्णता प्रदान की। उन्होंने मनुष्य के मन को पूरे वैभव और सम्पूर्णता से व्यक्त किया। सही मायनों में रेणु का साहित्य बदलाव की आकांक्षा का प्रतीक था।”

अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने कहा कि, “फणीश्वरनाथ रेणु को आजादी के बाद का प्रेमचंद कहा जा सकता है। उनका लेखन हमेशा दमन के खिलाफ रहा जो कि उस समय की जरूरत भी थी।”

इस दौरान कई लोगों ने रेणु पर आलेख पढ़े। जिसमें रश्मि रावत ने कहा कि रेणु के हृदय में आम जीवन के प्रति प्रेम  सम्पूर्ण मात्रा में था और उनको पढ़ते हुए आदमियत पर भरोसा होता है।

देवशंकर नवीन ने कहा कि रेणु की कथाओं में हम व्यवस्थाओं के शिकंजे में जकड़े उन ग्रामीणों को पाते हैं जो इस शासकीय वर्चस्व के चलते बहुत सी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं।

कमलेश वर्मा ने ‘मैला आँचल’ के चरित्रों का विश्लेषण प्रस्तुत किया। मीना बुद्धिराजा ने कहा कि रेणु केवल लिखते ही नहीं बल्कि उस परिवेश को जीते भी हैं।

अरुण होता ने कहा कि रेणु अपने समय-समाज के अंतर्विरोधों को बड़ी सजीवता से प्रस्तुत करते हैं। करुणशंकर उपाध्याय ने कहा कि हमारे पूर्व आलोचक रेणु के साथ न्याय नहीं कर पाए और उनको केवल ‘मैला आँचल’ और एक-दो कहानियों के इर्द-गिर्द ही समेट दिया, जब कि रेणु हमें अपनी हर रचना में जीवन की जड़ो तक ले जाते हैं।

विचार-सत्र की अध्यक्षता कर रहे रेवती रमण ने कहा कि, “रेणु बहुत बड़े शब्द साधक थे। उन्होंने कहानी और उपन्यासों में कलाकारों के प्रति जो सम्मान दिखाया है उससे स्पष्ट होता है कि वे जीवन में कला को अहम हिस्सा मानते थे। उन्होंने भाषा के आधार पर रेणु का विवेचन करते हुए कहा कि वे इस संदर्भ में कालजयी रचनाकार ठहरते हैं।”

फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में एक संपन्न किसान परिवार में हुआ था। अब उनका घर अररिया जिले में पड़ता है। उनकी शिक्षा भारत और नेपाल में हुई। प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज तथा अररिया में पूरी करने के बाद रेणु मैट्रिक के लिए नेपाल के विराटनगर चले गए। 

विराटनगर नेपाल के प्रसिद्ध राजनीतिक परिवार कोईराला का निवास स्थान भी था। रेणु ने कोईराला परिवार में रह कर विराटनगर आदर्श विद्यालय से पढ़ाई की। इन्होंने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 में की। यह वह समय था जब देश में स्वतंत्रता संग्राम अपने अंतिम मुकाम पर था। पढ़ाई के दौरान ही रेणु स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। इसके बाद 1950 में उन्होंने नेपाल में जनतंत्र की स्थापना के लिए चल रहे राजतंत्र विरोधी क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिया। 

स्वतंत्रता आंदोलन और नेपाली जनतंत्र के लिए चलने वाले आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के साथ ही रेणु का अपने समय में चलने वाले अधिकांश आंदोलनों से हमेशा नजदीकी संबंध रहा। पटना विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ छात्र संघर्ष समिति में सक्रिय रूप से भाग लिया और जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति में अहम भूमिका निभाई।

आज रेणु के नहीं होने के चार दशक बाद भी जब हम उनकी रचनाओं को देखते हैं तो सामाजिक मनोविज्ञान पर उनकी पकड़, गांवों को देखने का उनका नजरिया चौंकाता है। आज हमें रेणु की कमी ज्यादा खलती है क्योंकि इस दौर में गांव पर लिखने वाले लेखकों की संख्या रोज-ब-रोज कम हो रही है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Phanishwar Nath Renu
Premchand
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फणीश्वरनाथ रेणु 

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