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घर-परिवार और राज्य: राजस्व घाटे से जुड़े भ्रमों के पीछे क्या है?

किसी को यह लग सकता है कि राजकोषीय घाटे के लिए वित्त, देश में ही रहने वालों से ऋण लेकर जुटाना संभव ही कहां है? अपने देश के निवासियों के पास इतनी ‘बचतें’ ही कहां होंगी जो सरकार को कर्जा दे सकें। लेकिन, इस तरह देखने पर तो हम इसे बिल्कुल समझ ही नहीं पाएंगे कि राजकोषीय घाटा किस तरह से काम करता है।
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प्रतीकात्मक चित्र (क्रेडिट-Pxfuel)

कई बार सरल सादृश्य (तुलना) भ्रम में डालने वाले और यहां तक कि खतरनाक भी हो सकते हैं। अक्सर घर-परिवार और राज्य या शासन के बीच पेश किये जाने वाले सादृश्य इसी का एक उदाहरण हैं। कहा जाता है कि कोई परिवार ज्यादा दिनों तक ‘अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च’ नहीं करता रह सकता है और देर-सबेर उसे कर्ज देने वाले, न सिर्फ उसे कर्जा देना बंद कर देंगे, बल्कि कर्ज न चुकाने के लिए, उसकी संपत्तियों पर पर भी कब्जा कर लेेंगे। इसी तरह कोई राज्य या शासन भी हमेशा ‘अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च’ नहीं करता रह सकता है और अनंत काल तक ऋण नहीं लेता रह सकता है। देर-सबेर, उसके मामले में भी ऋणदाता उसे और ऋण देना बंद कर देंगे और उसकी संपत्तियां जब्त तक कर लेंगे।

यह दलील अक्सर सुनाई दे जाती है। ब्रेटन वुड्स संस्थाओं के प्रवक्ताओं के मुंह से और वित्त मंत्रियों के बजट भाषणों में हमने अनगिनत बार यह दलील सुनी है, जिसके सहारे राजकोषीय घाटे को सीमित रखने की सफाई दी जाती है। चूंकि राजकोषीय घाटा इसी को दिखाता है कि कोई राज्य, अपने खर्चे पूरे करने के लिए कितना फालतू कर्ज ले रहा है, इस दलील के लिहाज से राजकोषीय घाटा होने का ही मतलब यह है कि संबंधित राज्य, ‘अपनी आमद से ज्यादा खर्चा’ कर रहा है और यह आखिरकार फजीहत कराएगा, जैसा कि आमद से ज्यादा खर्चा करने वाले परिवार के साथ होता है।

हां! इस दलील में एक मामूली सी रियायत फिर भी दे दी जाती है। कहा जाता है कि किसी भी बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में, राज्य का राजस्व भी बढ़ रहा होता है और इसलिए, अगर हर साल का राजकोषीयस घाटा, सकल घरेलू उत्पाद के एक खास हिस्से के बराबर ही बनाए रखा जाता है, तो उस सूरत में जीडीपी के अनुपात के रूप में राज्य का कुल ऋण भी एक जितना ही बना रहेगा, बशर्ते इन ऋणों पर लगने वाला ब्याज, संबंधित अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर से कम हो। इसके अलावा, अगर जीडीपी के हिस्से के तौर पर राजकोषीय घाटे का अनुपात थोड़ा ही बना रहता है, तो जीडीपी के अनुपात के रूप में राज्य का घाटा संभालने लायक बना रहेगा। लेकिन, अगर राजकोषीय घाटा इस थोड़े से अनुपात से जरा भी ऊपर जाता है, तो उस अर्थव्यवस्था का ऋण-आय अनुपात बहुत ज्यादा हो जाएगा और ऋण का बोझ बेकाबू हो जाएगा। इसी तरह की तर्क प्रणाली के जरिए, राजकोषीय घाटे के लिए जीडीपी के करीब 3 फीसद की वैधानिक सीमा तय की गयी है।

बहरहाल, परिवार और राज्य की यह तुलना पूरी तरह से भ्रांतिपूर्ण और वास्तव में खतरनाक है क्योंकि इसका नतीजा यह होता है कि इसके आधार पर ऐसे हालात में भी, जहां सकल मांग की कमी के चलते, आम बेरोजगारी के हालात बने हुए हों, राजकोषीय घाटे को और इसलिए सरकारी खर्चे को, सीमित कर के रखा जाता है। दूसरे शब्दों में, घर-परिवार और शासन के बीच के इस झूठे सादृश्य की वेदी पर, करोड़ों मेहतनकशों की जिंदगियों की बलि चढ़ा दी जाती है।

लेकिन, घर-परिवार और राज्य के बीच मौलिक अंतर होता है और इस अंतर का संबंध निम्रलिखित बुनियादी तथ्य से होता है। अगर राज्य, अपने राजकोषीय घाटे की वित्त व्यवस्था विदेश से कर्जा लेकर नहीं करता है, तो वह देश के अंदर के ही ऐसे लोगों से ऋण ले रहा होता है, जिन पर कर लगाने का उसका संप्रभु अधिकार होता है। दूसरी ओर राजकोषीय घाटे की भरपाई करने के लिए विदेशी ऋण की जरूरत सिर्फ तभी होती है, जब ऋण के सहारे बढ़े हुए सरकारी खर्च से पैदा होने वाली सकल मांग में बढ़ोतरी का एक हिस्सा, बढ़े हुए आयातों के जरिए अर्थव्यवस्था से ‘बाहर रिस रहा’ हो और इस तरह के ‘रिसाव’ को भी तटकर संबंधी पाबंदियों के जरिए तथा सरकारी खर्चों को समुचित दिशा में मोड़े जाने के जरिए रोका जा सकता है। इसलिए, ऐसे ऋण को संभालना मुश्किल हो जाने की सूरत में, शासन के पास हमेशा यह विकल्प होता है कि वह घरेलू कर की दरों को बढ़ा दे और इसके जरिए, अपने ऋण के सापेक्ष आकार को नीचे ले लाए।

जाहिर है कि घर-परिवार के लिए ऐसा करना संभव नहीं होता है। जब कोई परिवार, किसी दूसरे से ऋण लेता है, उसे ऋण देने वाले पर ऐसा कोई संप्रभु अधिकार हासिल नहीं होता है, वह अपने ऋणदाताओं से किसी तरह की वसूली के जरिए, अपने ऋण का आकार घटा नहीं सकता है। लेकिन, राज्य के मामले में ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती है। वह अपने अधिकार क्षेत्र में आने वालों पर कर लगा सकता है और जिनसे उसने ऋण लिया है उनसे और जिनसे उसने ऋण नहीं लिया है उनसे, दोनों से ही संसाधनों की उगाही कर सकता है।

किसी को यह लग सकता है कि राजकोषीय घाटे के लिए वित्त, देश में ही रहने वालों से ऋण लेकर जुटाना संभव ही कहां है? अपने देश के निवासियों के पास इतनी ‘बचतें’ ही कहां होंगी जो सरकार को कर्जा दे सकें। लेकिन, इस तरह देखने पर तो हम इसे बिल्कुल समझ ही नहीं पाएंगे कि राजकोषीय घाटा किस तरह से काम करता है। अगर यह मान लिया जाए कि राजकोषीय घाटे के प्रभावों का ‘बाहर रिसाव’ नहीं हो रहा है, तो कोई भी राजकोषीय घाटा अतिरिक्त मांग पैदा करता है और इसलिए, उत्पाद तथा रोजगार में बढ़ोतरी करता है और इस तरह अतिरिक्त बचतें पैदा करता है। वास्तव में इससे उत्पाद तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि इससे निजी हाथों में पैदा होने वाली अतिरिक्त बचतें (हम निजी निवेश को प्रदत्त मानकर चल रहे हैं) ठीक राजकोषीय घाटे के बराबर नहीं हो जाती हैं। इसलिए, राजकोषीय घाटा ऋण के रूप में जो बचतें लेता है, उन बचतों को वही निजी हाथों में पहुंचाता रहता है। इसलिए, राजकोषीय घाटे का वित्त-पोषण करने के लिए निजी हाथों में पर्याप्त बचतें नहीं होने का तो, कोई सवाल ही नहीं उठता है।

इस तरह, राजकोषीय घाटा यानी अपने बढ़े हुए खर्चे के लिए राज्य द्वारा ऋण लिया जाना और किसी घर-परिवार द्वारा अपने खर्चों के लिए ऋण लिया जाना, दो पूरी तरह से अलग-अलग चीजें हैं, जिनकी तुलना नहीं हो सकती है। लेकिन, यह कहने का अर्थ यह हर्गिज नहीं है कि राजकोषीय घाटा ही, सरकार के खर्चों के वित्त पोषण का बेहतरीन तरीका है। राजकोषीय घाटे का रास्ता अपनाने की जो समस्या है, वह पीछे हम जो कह आए हैं, उसी से साफ हो जाती है। समस्या यह है कि राजकोषीय घाटा, अपने बराबर अतिरिक्त निजी बचतें (यानी अतिरिक्त निजी संपदा) पैदा करता है और चूंकि ये बचतें आम तौर पर ज्यादातर समाज के सम्पन्न तबके द्वारा ही की जाती हैं, राजकोषीय घाटे के सहारे सरकार द्वारा किए जाने वाले बढ़े हुए खर्चे, कुल मिलाकर संपदा असमानता बढ़ाने का ही काम करते हैं। अगर, इस तरह ऋण लेने के बजाए, शासन वास्तव में इन अतिरिक्त बचतों को कर के जरिए अपने हाथों में इकट्ठा कर रहा होता यानी उसने राजकोषीय घाटे का सहारा न लेकर, अतिरिक्त कर जुटाने के जरिए अपने बजट को संतुलित कर लिया होता, तो संपदा असमानता में ऐसी बढ़ोतरी नहीं हुई होती, हालांकि इस स्थिति में पहले वाले हालात की तुलना में निजी संपदा में कोई कमी भी नहीं हुई होती।

इस तरह, जहां राजकोषीय घाटे से पोषित अतिरिक्त सरकारी खर्चा, कर से पोषित सरकारी खर्चे की तुलना में एक खराब विकल्प है, वहीं राजकोषीय घाटे पर काबू पाने के नाम पर सरकार के द्वारा यह खर्चा ही नहीं करने से तो, राजकोषीय घाटे से पोषित सरकारी खर्चा हजार गुना बेहतर है। इसकी वजह यह है कि राजकोषीय घाटे से पोषित हो तब भी यह खर्चा, करोड़ों बेरोजगार मेहनतकशों को रोजगार मुहैया करा के उनकी जीवन दशाओं को बेहतर बनाता है, जो कि इस तरह का खर्चा नहीं किए जाने की स्थिति में होगा ही नहीं।

इसी प्रकार, ऋण लेने के मामले में राज्य और घर-परिवार के बीच सादृश्य दिखाने वाले तर्क के जरिए, राजकोषीय घाटे को हिकारत से देखा तो जाता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राजकोषीय घाटे के बढ़ने का विरोध किए जाने का यही वास्तविक कारण है। इसलिए, इस सादृश्य का गलत साबित किया जाना भी अंतराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को यह राजी करने के लिए काफी नहीं होता है कि वह राजकोषीय घाटे के बढ़ने को मंजूर कर ले। राजकोषीय घाटे के बढ़ने के उसके विरोध का असली कारण यह है कि पूंजीपतियों को दरकिनार करते हुए, सकल मांग में बढ़ोतरी करने के लिए, राज्य का सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करना, पूंजीवाद की सामाजिक वैधता को ही कमजोर करता है। इसी के डर से वित्तीय पूंजी, राज्य के खर्च बढ़ाने को हतोत्साहित करने के लिए, इस झूठे किंतु प्रकटत: सरल तथा असरदार सादृश्य को दलील बनाने का सहारा लेती है। यह सादृश्य असली कारण नहीं है बल्कि वह तो वह प्रकट बहाना है जो राज्य की ऐसी स्थिति में भी निष्क्रिय बने रहने को उचित ठहराने के लिए बनाया जाता है।

लेकिन, बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। नवउदारवादी व्यवस्था के तहत सोचे-समझे तरीके से राज्य को घटाकर वास्तव में घर बार के ही दर्जे में पहुंचाने की कोशिश की जाती है, ताकि वक्त गुजरने के साथ यह झूठा सादृश्य ही एक वास्तविकता बन जाए। बेशक, नवउदारवाद के अंतर्गत यह एक आम प्रवृत्ति होती है। राज्य की संप्रभु प्रकृति को नकारना और उसे घर-परिवार या किसी फर्म जैसे किसी भी अन्य आर्थिक एजेंट के समान बना देना, नवउदारवादी व्यवस्था की एक प्रमुख पहचान ही होती है।

इसी का एक लक्षण है, मुनाफादेह होने के पैमाने से सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र की तुलना करना, जिसका मकसद सार्वजनिक क्षेत्र को कमतर दिखाना होता है। इस तरह का विमर्श अपनाए जाने के पीछे ही चाल छुपी होती है, इस तरह की तुलना में ही यह धारणा छुपी होती है कि सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका, निजी क्षेत्र की भूमिका से भिन्न नहीं है यानी राज्य में और किसी निजी कॉर्पोरेट एंटिटी में कोई अंतर नहीं है और उन्हें इसी नजर से परखा जाना चाहिए। इस पूर्व-धारणा से शुरू करने के बाद, सार्वजनिक क्षेत्र की अंतर्निहित सामाजिक भूमिका के अर्थ को आमतौर पर कमतर करते हुए, सार्वजनिक क्षेत्र को ‘मुनाफादेह’ बनने के लिए मजबूर किया जाता है। इस तरह, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर और ज्यादा मुनाफादेह बनने के लिए दबाव डाला जाता है, जिसका नतीजा यह होता है कि वे कृषि जैसे प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण देने से इंकार करना शुरू कर देते हैं।

इसी प्रकार राज्य से, उसकी कर लगाने की संप्रभु भूमिका को और खासतौर पर निजी क्षेत्र पर कर लगाने की उसकी संप्रभु भूमिका को छीनने की कोशिश की जाती है, जबकि जैसाकि हम पीछे देख आए हैं, राज्य की यही संप्रभु भूमिका है जो कर्जदार के रूप में उसे, मिसाल के तौर पर किसी घर-परिवार से अलग करती है। नवउदारवादी व्यवस्था में राज्य को अपनी इच्छा से अपना कॉर्पोरेट कर राजस्व बढ़ाने का अधिकार नहीं होता है, जबकि राजकोषीय घाटे के बल पर पैदा होने वाली अतिरिक्त बचतों के राज्य द्वारा बटोरे जाने के लिए ऐसा करना जरूरी होता है। राज्य की अपनी इच्छा से अतिरिक्त कॉर्पोरेट कर न लगा पाने की वजह यह है कि दुनिया भर में घूमने वाली वित्तीय पूंजी, निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र पर कराधान में ऐसी किसी भी बढ़ोतरी को नापसंद करती है। संक्षेप में यह कि इस तरह की व्यवस्था में शासन को इस तरह से आचरण करने के लिए मजबूर किया जाता है, जैसे ऋणों के मामले  में वह भी, किसी कर्जदार घर-परिवार की तरह की लाचार हो।

इस तरह नवउदारवादी पूंजीवाद, राज्य की संप्रभु भूमिका को छुपाते हुए, एक ओर राज्य तथा दूसरी ओर अन्य आर्थिक एजेंटों के बीच एक झूठा सादृश्य ही नहीं गढ़ता है, वह इसका दबाव भी बनाता है कि वास्तव में राज्य, वैसा ही चरित्र ग्रहण कर ले, जैसे चरित्र की उसके लिए नवउदारवादी पूंजीवाद ने पूर्वकल्पना की है।

इसलिए, नवउदारवाद के खिलाफ संघर्ष के एजेंडा पर, राज्य की संप्रभु प्रकृति का पुनर्जीवन भी होना चाहिए। लेकिन, यह तो तभी संभव है जब राज्य का वर्ग चरित्र भी दूसरा ही हो। वैश्वीकृत वित्त के वर्चस्व को तोड़ने के लिए यह जरूरी है कि ऐसी कोशिश करने वाला राज्य, मजदूरों तथा किसानों के गठबंधन के समर्थन पर टिका हुआ हो और उसकी सार्वजनिक नीतियां, इन वर्गों की रोजी-रोटी को प्राथमिकता देने वाली हों।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Household and State Borrowing: A False Analogy

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