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कैसे संविधान लोगों को इतिहास, मूल्यों और अधिकारों से जोड़ता है

ग्रामीण परिवेश में पढ़ाई के लिए एक उपकरण के रूप में संविधान से सीखे गए महत्वपूर्ण सबक इस लेख में साझा किए गए हैं।
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फ़ोटो साभार : PxHere

भारत में, समानता, न्याय, आज़ादी और बंधुत्व जैसे आदर्श अक्सर शिक्षा प्रणालियों और हमारी सामूहिक जागरूकता से दूर नज़र आते हैं। फिर भी, कई संगठनों ने सामाजिक और राजनीतिक शिक्षा को अपने काम में शामिल करने का प्रयास किया है। बड़े ही प्रभावी तरीके से एक ऐसा स्पेस बनाना शामिल है जो भारत के संविधान को जीवंत बनाता हो, नैतिकता, अधिकारों और मूल्यों की अमूर्त धारणाओं और लोगों की रोजमर्रा की वास्तविकताओं के बीच अंतर को पाटते हो।

संविधान क्यों?

जब इस लेख के लेखकों ने राजस्थान में ग्रामीण युवाओं से संवैधानिक मूल्यों पर एक फेलोशिप के बारे में उनकी राय मांगी, तो एक प्रतिभागी, राहुल [बदला हुआ नाम], जो एक प्रमुख जाति से है, प्रतिक्रिया देने वाला पहला व्यक्ति था। उसने कहा, ''हम अपने स्कूलों में संविधान के बारे में सीखते हैं, लेकिन कभी यह समझ नहीं पाते कि यह हमारे जीवन पर  कैसे लागू होगा। हालाँकि मैंने अपने गाँव में 'निचली' जातियों के प्रति छुआछूत जैसा व्यवहार किया है, लेकिन मुझे कभी नहीं लगा कि यह गलत है। [गांव] का समाज कहता है कि यह ठीक है, लेकिन [संविधान के अनुसार] इसकी अनुमति नहीं है— हम सभी समान हैं और हमारे पास समान अधिकार हैं।”

संविधान की स्थापना के 70 से अधिक वर्षों के बाद भी, भारतीयों की एक बड़ी संख्या इसके इतिहास, सिद्धांतों, मूलभूत विचारों और इसमें निहित अधिकारों से अनभिज्ञ लगती है। जागरूकता की यह कमी विभिन्न प्रकार की नफरत के प्रसार के साथ व्याप्त विभाजनकारी माहौल को देखते हुए चिंताजनक लगती है। लिंग, लैंगिकता, जाति, जातीयता, वर्ग और धर्म के आधार पर बढ़ते भेदभाव के बीच हिंसक घटनाओं में हुई स्पष्ट वृद्धि के साथ, यह स्पष्ट है कि अमानवीयता की भावनाएं आसानी से सीखी जाती हैं।

यदि 1950 में संविधान लागू होने के बाद से संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए ठोस प्रयास किया गया होता, तो समाज अधिक सहानुभूति, समानता और मतभेदों की स्वीकृति को आत्मसात कर सकता था। हाल के दशकों में, कई संगठनों और समूहों ने इसे पहचाना है और इन मूल्यों पर लोगों के साथ सक्रिय रूप से जुड़े।

संविधान भारत के सभी लोगों को सशक्त बनाने के लिए एक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और प्रस्तावना में ही धर्मनिरपेक्षता, समानता, न्याय, गरिमा, बंधुत्व और स्वतंत्रता को इसके मूल्यों के रूप में स्थापित हैं। जब रचनात्मक रूप से इसे पाठ्यक्रम में पेश किया जाता है, तो ये मूल्य अधिक आत्म-चिंतनशीलता, भेदभाव को दूर करने, विश्व-दृष्टिकोण को खोलने और भावनाओं को वास्तविकता से जोड़ने का कारण बन सकते हैं। जैसा कि राहुल की प्रतिक्रियाओं से पता चलता है, सिर्फ नफरत नहीं, मानवता भी सीखी जा सकती है।

स्कूल फॉर डेमोक्रेसी (एसएफडी), संवाद, नवसर्जन ट्रस्ट और कई अन्य संगठन उन समुदायों को शामिल करने के लिए शैक्षणिक आधार के रूप में संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहते हैं जिनके साथ वे काम करते हैं। एसएफडी के साथ काम करने और लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों को केंद्र में रखने वाले अन्य संगठनों के साथ जुड़ने के हमारे अनुभव में, वास्तविक संभावनाएं तब पैदा होती हैं, जब लोग इसके इतिहास, मूल्यों और अधिकारों से जुड़ाव महसूस करते हैं।

भावनाएँ जो सशक्त बनाती हैं

'हमें यह क्यों सीखना चाहिए?' यह सवाल अक्सर वर्कशॉप/कार्यशालाओं के दौरान पूछा जाता है। चूंकि कई संगठन कमजोर या वंचित समुदायों के साथ काम करते हैं, इसलिए शुरुआत इस बात से करनी बेहतर होगी कि क्या लोग इस तरह का ज्ञान लेना चाहते भी हैं और क्या इसकी परवाह भी करते हैं। क्या किसान या दिहाड़ी मजदूर को संवैधानिक वादों की परवाह है? 'संवैधानिक मूल्यों' और अधिकारों जैसे प्रतीत होने वाले अमूर्त विचारों को थोपना गलत हो सकता है जब तक कि लक्ष्य जीवित सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं से जुड़ा न हो। 

समानता पर एक समूह के साथ रोल प्ले करने वाली एक कार्यशाला में, एक युवा लड़की, जमना [बदला हुआ नाम] ने बताया कि उसने अनिवार्य रूप से अपना किरदार खुद निभाया है। उन्होंने कहा कि ज्यादातर लड़कियां समझती हैं कि समानता का मतलब क्या है क्योंकि वे हर जगह इसका विपरीत अनुभव करती हैं – यह सब घर में, गांव में और एजेंसी की कमी से होता है। 

इस पल ने हमें बहुत कुछ सिखाया है। न्याय को परिभाषित करने से पहले हमें अन्याय को समझना होगा। विभाजन आदि से निपटने के बाद हमें भाईचारे के बारे में बात करनी होगी। 

आज, भारत एक महत्वपूर्ण सवाल का सामना कर रहा है: धर्मनिरपेक्ष संविधान पर आधारित पाठ्यक्रम "अनिवार्य रूप से धार्मिक" (कानूनी विद्वान फैजान मुस्तफा का लोकप्रिय शब्द) राष्ट्र में अधिक प्रासंगिक कैसे हो जाता है? नफरत फैलाने के लिए धर्म को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किए जाने के साथ, युवाओं को अपने स्कूलों में या अपने गांव के नेटवर्क के माध्यम से नफरत फैलाने वाली विचारधाराओं से परिचित कराया जाता है। ये नेरेटिव गैर-हिंदुओं को बदनाम करते हैं और मुख्य रूप से मुसलमानों को निशाना बनाते हैं।

धर्मों के सकारात्मक मूल्यों और वे संविधान के साथ कैसे जुड़े हैं, इसे समझाना/उजागर करना महत्वपूर्ण है। इसे इस तरह से किया जाना चाहिए कि लोगों को यह महसूस न हो कि वे कौन हैं, इसलिए उन पर हमला किया जा रहा है और उन्हें यह जांचने का मौका मिले कि विभिन्न धर्म क्या उपदेश देते हैं। यह एक सूक्ष्म प्रक्रिया है, और हमने एसएफडी सत्रों में कुछ हद तक, जैसे कि मिथक का पर्दाफाश और विभिन्न त्योहारों को मनाने के माध्यम से, इस पर गहराई से चर्चा की है।

हिंदू-बहुल ग्रामीण इलाकों में हमारे अनुभवों में, गांवों में जाति और धार्मिक अलगाव के कारण 'दूसरे' - जो कि अपनी पहचान से अलग है - के संपर्क में आना गंभीर रूप से सीमित है। इस प्रकार कक्षा में विविधता को उजागर करने या यहां तक कि विविधता का परिचय देने के लिए एक मंच प्रदान करना पूर्व धारणाओं को तोड़ने में मदद कर सकता है। मस्जिदों और चर्चों जैसे पवित्र स्थलों में जाने से 'दूसरे' का डर भी दूर हो जाता है, जो अक्सर बचपन में प्रचार के माध्यम से उनके दिलों में घर कर जाता है।

लेकिन एकाधिक अंतःक्रियाओं और प्रदर्शन का लाभ केवल धर्म के मामले में ही नहीं, बल्कि किसी भी सामाजिक पहचान के लिए सही होता हैं। अकाम फाउंडेशन की रितुपर्णा, जो खुद एक ट्रांसजेंडर हैं, ने लिंग पर एक सत्र लिया और युवाओं को द्विआधारी विचार से परे सोचने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने लिंग पर एक सत्र लिया जिसमें एक ऐसे बच्चे के बारे में दिल छू लेने वाली कहानी का इस्तेमाल किया गया जिसे हर कोई लड़का समझता था लेकिन उसे लड़की जैसा महसूस होता था। इस कहानी और सूत्रधार के अनुभव ने प्रतिभागियों को LGBTQIA+ समुदाय के सामने आने वाली चुनौतियों को समझने में मदद की।

इसके अलावा, भेदभाव का अनुभव करने वाले किसी भी व्यक्ति में असमानता की भावना तीव्रता से महसूस होती है, और इसके परिणामस्वरूप 'दूसरे' के लिए सहानुभूति की भावना भी पैदा हो सकती है। एक उदाहरण का हवाला देते हुए कि, औपचारिक रूप से शिक्षित न होने या गैर-कुलीन वर्ग, जाति, लिंग, जातीय या धार्मिक पृष्ठभूमि से संबंधित नहीं होने से सरकारी अस्पताल में भेदभाव हो सकता है। एक अन्य उदाहरण यह है कि जब उचित वेतन नहीं दिया जाता या काम देने से इनकार कर दिया जाता है, तो एक कर्मचारी क्रोधित, परेशान, हताश महसूस कर सकता है या इन भावनाओं का मिश्रण अनुभव कर सकता है। ये भावनाओं का वो दायरा है जो सामान्य व्यक्ति को संविधान में दिए गए अधिकारों से जोड़ता है। इसीलिए संविधानवादी हमें हमेशा याद दिलाते हैं कि अधिकार आंतरिक रूप से गरिमा से जुड़ा है, समानता और न्याय से अविभाज्य हैं। इसलिए, भावना राजनीतिक है और सबसे वास्तविक जगह है जहां से शैक्षणिक अभ्यास शुरू होना चाहिए।

रुख ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए

आइए इसका सामना करते हैं: कोई भी संविधान एक अत्यंत दुर्गम दस्तावेज़ होता है। और भारतीय संविधान की लंबाई, भाषा और अवधारणाएँ अधिकांश लोगों के लिए इससे जुड़ना कठिन बना देती हैं। इसलिए, लोगों को संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझाने का पारंपरिक, व्याख्यान-आधारित तरीका शायद ही कभी काम करता है। लेकिन सवाल यह है कि संविधान की शिक्षा को सरल और लोकतांत्रिक कैसे बनाया जा सकता है?

शिक्षाशास्त्र को भारत की शिक्षा प्रणालियों में अंतर्निहित शिक्षक-शिक्षार्थी पदानुक्रम के साथ आंतरिक शक्ति की गतिशील शक्ति को पुन: उत्पन्न नहीं करना चाहिए और जहां औपचारिक रूप से शिक्षित अभिजात वर्ग हर किसी को प्रशिक्षित करता है – जिसमें ग्रामीण भारतीय, कामकाजी वर्ग के लोग, वंचित वर्ग, आदि शामिल होते हैं। हमारे पास खुद के अनुभव से कुछ सुझाव हैं फैसिलिटेटर-प्रतिभागी के डिफ़ॉल्ट पदानुक्रमित मॉडल को तोड़ने का प्रयास कर सकते हैं।

सबसे पहले, फेसलिटेटर्स को जाति, वर्ग, लिंग, क्षमता, धार्मिक और जातीय पृष्ठभूमि सहित विभिन्न पहचान वाले स्थानों का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए। मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ तीन युवा कार्यकर्ताओं का अनुभव इस संदर्भ में प्रासंगिक है। गैर-कुलीन जातियों के इन कार्यकर्ताओं ने ग्रामीण राजस्थान में स्थानीय युवाओं के साथ धार्मिक भेदभाव पर एक सत्र की शुरुआत की, जिसमें समानता के बारे में गीतों और नारों के माध्यम से अपने जीवन के अनुभवों का वर्णन किया। इस डेढ़ दिन की बातचीत का सबसे प्रभावी हिस्सा वह था जब उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह रखना सिखाया गया था।

ऑनलाइन सत्रों में, हमारे पास अलग-अलग सामाजिक स्थानों से दो सूत्रधार होंगे, समावेशिता के लिए नहीं, बल्कि दर्शकों के लिए कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिससे वे जुड़ सकें, जिससे सत्र के विषय और अधिक सार्थक हो जाएंगे। ज्ञान की शब्दावली में स्थानीय संदर्भ, भाषा और मुहावरे को अपने बुनियादी काम में शामिल करना चाहिए।

दूसरे, प्रतिभागियों को खुद भी शिक्षक होना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक ऑनलाइन कार्यशाला में, हमने प्रतिभागियों से कहा कि वे पहले से रिकॉर्ड करके अपनी प्रतिक्रियाएँ भेजें कि उनके लिए "आज़ादी" या स्वतंत्रता का क्या मतलब है। सत्र के दौरान इन्हें एक साथ जोड़ने वाला वीडियो दिखाया गया। ऑनलाइन सत्रों द्वारा लगाई गई सीमाओं के भीतर भी, यह एक शक्तिशाली दृष्टिकोण था, क्योंकि यह एक जटिल अवधारणा के बारे में जानबूझकर सुनने और एक दूसरे के विचारों से सीखने का जरिया बन गया था। एक अवधारणा के रूप में "स्वतंत्रता" को तब संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में स्वतंत्रता से जोड़ा गया था। सहानुभूति और सीख व्यक्तिगत चिंतन, ज्ञान और अपने से भिन्न दृष्टिकोण वाले लोगों के अनुभवों से उभरती है।

तीसरा, हमने संवाद और नवसर्जन ट्रस्ट जैसे संगठनों से व्यक्तियों को सशक्त बनाने के लिए उन्हें आजीविका और करियर के अवसरों से जोड़ने के महत्व को सीखा। उनके कार्यक्रमों का एक अभिन्न पहलू अवसरों के संबंध में 3-6 महीनों तक निरंतर बातचीत में शामिल होना है, जिसमें संविधान और समाज पर परिप्रेक्ष्य-निर्माण शामिल है। अक्सर, ऐसी संरचना के बिना, कमज़ोर समुदायों के युवा होटलों, खदानों में काम करने लगते हैं, या जल्दी शादी कर लेते हैं।

वैकल्पिक अवसरों के संपर्क में आने और उन्हें हासिल के लिए समर्थन का होना, गरीबी के चक्र को तोड़ने में मदद करता है, समाज में ऊपर की ओर गतिशीलता प्रदान करता है और आत्मविश्वास पैदा करता है।

सीखने के लिए ऊपर से नीचे के दृष्टिकोण को तोड़ने और वंचित समूहों की कहानियों और अनुभवों को केंद्र में रखने से महत्वपूर्ण/उत्पादक तथ्य सामने आते हैं। अपने हित में, संस्थानों को शिक्षा, कार्रवाई, जागरूकता और अभ्यास के मामले में अभिजात्य अवधारणाओं से अलग होना होगा। शिक्षाशास्त्र को मुक्तिदाता होना चाहिए, न कि दमनकारी संरचनाओं को कायम रखने वाला। 

भारतीय संविधान, सिद्धांत को व्यवहार से जोड़ने और आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करने का आधार बन सकता है। चूंकि संविधान के मूल्यों और अधिकारों पर हमला हो रहा है, इसलिए इसे पढ़ाना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। रचनात्मक रूप से इस्तेमाल किए जाने पर, यह लोगों को व्यवस्थित रूप से असमान समाज में अपनी स्थिति पहचानने में मदद कर सकता है। यह न्याय, समानता, अधिकार और सशक्तिकरण की चर्चा को संभव बना सकता है।

नवाज़ुद्दीन स्कूल फॉर डेमोक्रेसी के साथ काम करते थे, जो ग्रामीण युवाओं की भागीदारी और पाठ्यक्रम विकास पर केंद्रित सामाजिक और राजनीतिक शिक्षा पर काम करता था। सबा ने सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर (बेयरफुट कॉलेज) और स्कूल फॉर डेमोक्रेसी के साथ काम किया है। उनके अनुभव में ग्रामीण सामुदायिक पुस्तकालयों के लिए मॉडल बनाना, पाठ्यक्रम बनाना और युवाओं के साथ संवैधानिक मूल्यों पर कार्यशालाएं आयोजित करना शामिल है।

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

How the Constitution Connects People to History, Values and Rights

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