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हिंदू महिलाओं की अपेक्षा मुस्लिम महिलाओं को कम मिलते हैं नौकरी के अवसर

जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा होने के बावजूद सामुदायिक और सांप्रदायिक भेदभाव के चलते लेबर फोर्स में मुस्लिम महिलाओं की संख्या बहुत कम है।
muslim women
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: DW

हमारे देश भारत में पितृसत्ता और कुछ अन्य वजहों से कामगारों के बीच महिलाओं की भागीदारी पहले से ही कम है। यहां औरतें घरेलू काम से लेकर खेती, कारखाना मजदूरी और साफ-सफाई जैसे ज्यादातर अनपेड और कम स्किल वाले सेक्टरों में काम करती नज़र आती हैं। हालांकि कामकाजी महिलाओं की भी हिस्सेदारी को देखें, तो यहां भी अलग-अलग समुदायों की औरतों के बीच फर्क साफ दिखता है। लेड बाय फाउंडेशन की एक हालिया रिसर्च में सामने आया कि नौकरी के आवेदनों पर हिंदू महिलाओं के मुकाबले मुस्लिम महिला आवेदकों को करीब आधे ही कॉल बैक आते हैं।

बता दें कि जनसंख्या में एक बड़ा वर्ग होने के बावजूद लेबर फोर्स में मुस्लिम महिलाओं की संख्या बहुत कम है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (2009-10) के मुताबिक, भारत में प्रति एक हजार कामकाजी महिलाओं में केवल 101 ही मुस्लिम थीं। फरवरी 2016 में लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने बताया कि बाकी समुदायों के मुकाबले कामकाजी लोगों में मुस्लिमों की हिस्सेदारी सबसे कम है।

कई अलग-अलग रिपोर्ट्स की मानें तो करीब 70 फीसदी मुस्लिम महिलाएं अपने घर की चारदीवारी के भीतर ही काम करती हैं। वहीं बाकी समुदायों में इसका राष्ट्रीय औसत लगभग 51 प्रतिशत है। शिक्षा के मामले में भी मुस्लिम महिलाएं पीछे हैं। 2011 की जनगणना में महिला साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 65.46 फीसदी था, वहीं मुस्लिम महिलाओं में यह दर लगभग 51 प्रतिशत थी। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या पितृसत्ता के साथ-साथ धर्म भी इन महिलाओं की तरक्की में बड़ी रुकावट बन रहा है।

क्या है पूरा मामला?

लेड बाय फाउंडेशन रिसर्च की केस स्टडी के अनुसार नौकरी के लिए दो महिला आवेदकों की एक जैसी योग्यता और एक बराबर क्वालिफिकेशन होने के बावजूद एक को अधिक अवसर मिले वहीं दूसरी को आधे ही नौकरियों से जवाब आए। दोनों ने नौकरी से जुड़ी वेबसाइट्स का इस्तेमाल करके 10 महीने के भीतर करीब एक हजार नौकरियों के लिए आवेदन किया। इन आवेदनों पर आए दोनों को मिले सकारात्मक जवाबों में करीब 47 फीसदी का अंतर था।

रिपोर्ट की मानें तो इन दोनों आवदकों की प्रोफाइल्स को एक खास प्रयोग के लिए तैयार किया गया था। इनमें सबकुछ एक जैसा था, सिवाय नाम के। एक प्रोफाइल प्रियंका शर्मा के नाम की थी, तो वहीं दूसरी का नाम रखा गया था, हबीबा अली। यानी एक हिंदू महिला की प्रोफाइल थी तो दूसरी मुस्लिम महिला की। दोनों के प्रयोग के नतीजे बताते हैं कि भारत में एंट्री-लेवल नौकरियों में मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। रिसर्च में पाया गया कि नौकरी के आवेदनों पर आने वाले रेस्पॉन्स रेट में हिंदू महिलाओं के मुकाबले मुस्लिम महिला आवेदकों को करीब आधे ही कॉल बैक आते हैं।

मालूम हो कि इससे पहले भारत में नौकरी के अवसरों में भेदभाव और पक्षपात से जुड़ी ऐसी ही एक स्टडी (सुखदेव थोराट और पॉल एटीवेल) 2007 में आई थी। इसमें शोधकर्ताओं ने मुख्य अंग्रेजी अखबारों में आए नौकरी से जुड़े विज्ञापनों पर आवेदन किए। हर विज्ञापन पर तीन पहचानों के साथ आवेदन दिया गया- सवर्ण हिंदू, मुस्लिम और दलित। इस शोध में पाया गया कि एंट्री-लेवल नौकरियों के आवेदनों में मुस्लिम आवेदकों को सकारात्मक जवाब मिलने की उम्मीद सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले 0.33 प्रतिशत थी। दलितों में यह 0.67 फीसदी है।

रिसर्च में क्या खास है?

लेड बाय फाउंडेशन का हालिया प्रयोग महिलाओं के बीच सामुदायिक और सांप्रदायिक आधारों पर भेदभाव की तस्वीर दिखाता है। रिसर्च में ये बात सामने आई है कि नौकरी में होने वाला ये भेदभाव चुनिंदा क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। इसका स्तर काफी व्यापक है। नौकरी के 1,000 आवेदनों पर हिंदू महिला को 208 सकारात्मक जवाब आए। वहीं, मुस्लिम महिला को इससे करीब आधे से कम 103 ने संपर्क किया।

उत्तर भारत में भेदभाव की दर पश्चिमी और दक्षिणी भारत के मुकाबले कम दिखी। उत्तर भारत में ये दर जहां 40 प्रतिशत पायी गई, वहीं पश्चिमी भारत से जुड़े नौकरी के अवसरों में भेदभाव की दर 59 प्रतिशत और दक्षिण भारत में 60 फीसदी रही।

रिपोर्ट के मुताबिक भर्ती करने वाले लोग और कंपनियां हिंदू उम्मीदवार के प्रति ज्यादा सहज दिखे। मसलन, जवाब देने वाले रीक्रूटर्स में से 41.3 फीसदी ने प्रियंका को फोन पर संपर्क किया। वहीं हबीबा को केवल 12.6 प्रतिशत रीक्रूटर्स ने फोन किया।

लेबर फोर्स में महिलाओं और पुरुषों के बीच अंतर

गौरतलब है लेबर फोर्स में महिलाओं और पुरुषों के बीच का अंतर वैश्विक है। लेकिन भारत में ये अंतर और बढ़ जाता है क्योंकि यहां महिलाएं एक साथ कई समस्याओं का सामना कर रही हैं। विश्व बैंक के मुताबिक, भारत दुनिया में सबसे कम महिला कामगारों की हिस्सेदारी वाले देशों में शामिल है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत की राष्ट्रीय श्रमिक संख्या में महिलाओं की संख्या लगभग 15 करोड़ है। देश के समूचे वर्कफोर्स का यह केवल एक तिहाई हिस्सा है। यानी भारत में 15 साल से ऊपर की एक तिहाई से भी कम लड़कियां और महिलाएं या तो नौकरी कर रही हैं, या नौकरी तलाश रही हैं। 2011 की जनगणना के बाद महिलाओं की हिस्सेदारी में और गिरावट ही आई है।

डॉयचे वेले की रिपोर्ट के मुताबिक 1990 में करीब 30 फीसदी भारतीय महिलाएं कामकाजी थीं। 1990 से 2005 के बीच, यानी डेढ़ दशक में इसमें दो प्रतिशत की वृद्धि हुई। वहीं 2005 से 2015 के बीच लगातार गिरावट के साथ ये 22 फीसदी पर पहुंच गया। 2020 में कोरोना महामारी और उसके कारण आई सख्तियों के बीच इसमें रिकॉर्ड गिरावट आई। अगस्त 2021 में आई सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अप्रैल से जून 2020 की तिमाही में महिलाओं कामगारों की मौजूदगी घटकर 15.5 फीसदी पर चली गई। ये रेकॉर्ड गिरावट थी और इसी तिमाही के दौरान भारत ने कोविड को फैलने से रोकने के लिए सख्त लॉकडाउन लगाया था।

सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2017 से 2022 के बीच लगभग 2.1 करोड़ महिलाओं ने स्थायी तौर पर रोज़गार छोड़ दिया। 2017 में जहां 46 फ़ीसद आबादी अर्थव्यवस्था के कामगारों में शामिल थी, वहीं 2022 में ये हिस्सेदारी घटकर 40 प्रतिशत ही रह गई। इसका मतलब है कि या तो ये महिलाएं बेरोज़गार हैं या फिर नौकरी की तलाश ही नहीं कर रही हैं। महिलाओं के नौकरी से दूरी बनाने का एक नतीजा ये हुआ है कि देश की अर्थव्यवस्था में कामगारों की भागीदारी में गिरावट आ रही है।

महिलाओं की पारंपरिक भूमिका और लेबर फोर्स के गिरते आंकड़े

भारत में महिलाएं हर दिन औसतन चार घंटे का समय बिना पैसे के घर के दूसरे सदस्यों के काम करने में ख़र्च करती हैं। इसमें बच्चों और बुज़ुर्ग सदस्यों की देखभाल, खाना पकाना और साफ़-सफ़ाई जैसे काम शामिल हैं. और महिलाओं के इस वक़्त का सबसे ज़्यादा हिस्सा बच्चों की देख-भाल में लग जाता है। सांख्यिकी मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, महिलाओं की तुलना में मर्द, बिना पैसे के घर के कामों में अपने दिन का महज़ 25 मिनट हिस्सा ख़र्च करते हैं। पुरुष अपने दिन का ज़्यादातर हिस्सा रोज़गार और उससे जुड़ी गतिविधियों में ख़र्च करते हैं।

बहरहाल, विश्वभर में पुरुषों की अपेक्षा कम महिलाएं लेबर फोर्स का हिस्सा हैं। एक ओर जहां 80 फीसदी पुरुष काम करते हैं, तो वहीं महिलाओं की मौजूदगी लगभग 50 प्रतिशत ही है। ये फर्क वेतन, फॉर्मल नौकरी, करियर आगे बढ़ने और कारोबार बढ़ाने के अवसरों में भी है। महिलाओं के घर से काम के लिए न निकलने की तमाम वजहों में से सबसे बड़ी तो उनके नौकरी करने में घर के लोगों की राय का शामिल होना है। और महामारी के चलते ये भी हो सकता है कि महिलाओं के दोबारा काम करने की संभावना पर पूर्ण विराम लग गया हो। परिवार संभालने और बच्चों की परवरिश करने जैसी पारंपरिक भूमिकाएं महिलाओं की हिस्सेदारी और मौके कम करने के बड़े कारण बनते हैं। और शायद यही वजह है कि हमारे समाज में काम करती महिलाएं, अपने हक़ के लिए आवाज उठाती महिलाएं अक्सर पितृसत्ता को चुभती हैं।

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