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शिक्षक दिवस विशेष: राज्य, समाज और शिक्षक

आज हालात ये हो गए हैं कि सरकारी इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में भी 4 से 5 लाख रुपये तक सालाना फीस वसूली जा रही है। इतनी बड़ी लूट के बावजूद फंड की कमी का बहाना बनाकर शिक्षकों को कई-कई महीने तक वेतन नहीं दिया जाता।
DUTA
फाइल फ़ोटो।

शिक्षकों के लिए ऊंचा सम्मान और शिक्षा के पेशे के ऊंचे दर्जे को एक बार फिर स्थापित करना होगा ताकि सबसे श्रेष्ठ लोगों को इस पेशे में आने के लिए प्रेरित किया जा सके। हमारे बच्चों और देश का बेहतरीन भविष्य सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि शिक्षक अपने पेशे के लिए उत्साहित और सशक्त महसूस करें।’- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 (खंड-5.1)

5 सितंबर को भूतपूर्व राष्ट्रपति और शिक्षाविद सर्वपल्ली डॉ० राधाकृष्णन के जन्मदिन के अवसर पर देश भर में शिक्षक दिवस मनाया जाता है, इसमें राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक शिक्षकों के सम्मान को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। उन्हें राष्ट्रनिर्माता तक बतलाते हैं, परन्तु हक़ीक़त में ज़मीन-आसमान का अंतर है। आज़ादी के बाद यह पहली बार नहीं है कि शिक्षा नीति ने शिक्षकों के हालात के बारे में ऐसे ऊंचे इरादे जाहिर किए हों। सवाल यह है कि इन इरादों को ज़मीन पर उतारने के लिए नीति में क्या प्रावधान किए गए हैं? अगर नीति और प्रावधानों के बीच में विसंगतियां हैं, तो ये इरादे महज जुमले बन जाते हैं। इस कसौटी पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की पड़ताल करना निहायत ज़रूरी है। बरसों से आंगनबाड़ी, स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय, सभी में बड़ी तादाद में शिक्षकों की नियुक्ति ठेके पर की जा रही है। आए दिन वे अपने सम्मान की लड़ाई के लिए आंदोलनरत रहने को मजबूर हैं। स्कूलों में शिक्षाबंदी होना आम बात है, जिससे न राजसत्ता को कोई फर्क पड़ता है और न समाज के कुलीन वर्गों व जातियों को, क्योंकि इन सबके बच्चे महंगे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं।

"दुनिया के किसी भी विकसित मुल्क में अगर शिक्षकों को इस तरह बार-बार आंदोलनरत होना पड़ता, तो राजसत्ता की नींव हिल जातीं, क्योंकि समाज के सभी तबकों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं, इसीलिए कोठारी आयोग (1966) ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि लोकतंत्र में ऐसे किसी स्कूल के लिए जगह नहीं हो सकती, जो फीस लेता हो। जाहिर है, फीस लेते ही शिक्षा में भेदभाव की शुरुआत हो जाती है, यह सब समझकर ही दुनिया के सभी विकसित मुल्कों ने अपनी स्कूल-व्यवस्था को सरकारी संसाधनों से चलाया। क्या भारत इस ऐतिहासिक वैश्विक अनुभव का अपवाद हो सकता है? कोठारी आयोग ने इसी समझदारी के आधार पर सभी वर्गों और जातियों के बच्चों के लिए सरकार द्वारा वित्त-पोषित समान स्कूल-व्यवस्था क़ायम करने की ज़ोरदार सिफ़ारिश की थी और साथ में यह भी कहा था कि इस व्यवस्था में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों तक शिक्षकों को सम्मानजनक वेतनमान एवं सेवा-शर्तों पर नियुक्त किया जाएगा।

आज यह पूछना जरूरी है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 शिक्षकों के लिए उपरोक्त सिद्धांतों को स्वीकारती है या नहीं? हक़ीक़त यह है कि यह नीति शिक्षकों की नियुक्ति और सेवा-शर्तों के कई ज्वलंत मुद्दों पर मौन है। यह नीति सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक के चुनावों, जनगणना व आपदा-राहत जैसे गैर-शैक्षणिक काम कराने पर भी पाबंदी नहीं लगाती जबकि निजी स्कूलों के शिक्षकों को इनसे मुक्त रखती है। शिक्षकों और आंगनबाड़ी/ ईसीसीई कर्मियों के हालात तो अब और बदहाल हो जाएंगे चूंकि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के लिए लाज़िमी होगा कि वे अपनी सेवाएं समूचे स्कूल परिसर में दें यह नीति स्कूल परिसर के चलते ‘विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात’ को घटाने के रास्ते खोलती है; नियोक्ताओं को परख-अवधि (प्रोबेशन) बढ़ाने की इजाज़त देती है जिसका इस्तेमाल शिक्षकों के शोषण के लिए किया जाएगा। यह शिक्षकों का ठेकाकरण बढ़ाने के लिए ‘कार्यकाल ट्रैक’ प्रणाली को भी लागू करती है। यह नीति भर्ती और पदोन्नति दोनों में पूरे सामाजिक न्याय के एजेंडे पर असर डालती है। यह विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के अकादमिक परिषद और कार्यकारी परिषद जैसे निर्वाचित निकायों की जगह कुलपति के ऊपर ‘बोर्ड ऑफ गवर्नर्स’ का नया प्रावधान करती है। इसके चलते शिक्षकों के लिए किसी अहम मुद्दे पर भी अपनी आवाज़ उठाना कठिन हो जाएगा। जब नई नीति में न समान स्कूल-व्यवस्था को खड़ा करने का कोई प्रावधान है और न ही शिक्षकों की भर्ती व पदोन्नति के लिए कोई न्यायपूर्ण समतामूलक व्यवस्था है तो फिर नीति में व्यक्त उपरोक्त इरादा कि शिक्षकों को समाज में सबसे ऊंचा सम्मान और दर्जा मिलना चाहिए, गले नहीं उतरता।"

(डॉ० अनिल सदगोपाल, शिक्षाविद तथा पूर्व डीन दिल्ली विश्वविद्यालय से नयी शिक्षानीति के दस्तावेज़ पर दिए गए वक्तव्य पर आधारित।)

भाजपा के सत्ता में आने के बाद बड़े पैमाने पर शिक्षा के भगवाकरण की मुहिम शुरू हुई तथा समाज विज्ञान के विषयों जैसे - समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीति विज्ञान और दर्शन के पाठ्यपुस्तकों में भगवा राजनीति के अनुसार फेर-बदल किया जाने लगा। एक तरफ़ यह किया जा रहा था तथा दूसरी तरफ़ शिक्षकों को पूर्ण रूप से बंधुआ मज़दूरों में बदलने की साज़िश की जा रही थी। हालांकि इसके लिए एकमात्र भाजपा ही ज़िम्मेदार नहीं है। नवउदारवादी नीतियां लागू होने के बाद जहां एक ओर शिक्षा बिकाऊ माल में बदल गई। दूसरी ओर शिक्षक महज़ इसके सेल्समैन की भूमिका में आ गए। भाजपा ने इसे केवल अपने उत्कर्ष पर पहुंचाया। आज संघ परिवार प्राचीन भारत में लाखों गुरुकुलों की बात कहती है और इस संबंध में उसका कहना है कि जब इंग्लैंड में पहला आधुनिक स्कूल खुला तो उससे बहुत पहले ही से हमारे भारत में गुरुकुलों में छात्रों को शिक्षा दी जा रही थी। परन्तु वे इस तथ्य को पूरी तरह से छिपा लेते हैं कि उस समय केवल उच्च जाति के बच्चों को ही शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था। शत प्रतिशत शिक्षक ब्राह्मण होते थे जो बहुत ग़रीबी की ज़िन्दगी जीते थे। महाकाव्य महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य का वर्णन आता है जिन्हें ग़रीबी से त्रस्त होकर राजपुत्रों को शिक्षा देने के लिए मज़बूरी में राजशिक्षक बनना पड़ा। वे एकलव्य को केवल इसलिए शिक्षा नहीं दे पाए, कि वह जनजाति समाज से आता था। इस संबंध में नाटककार शंकर शेष ने नाटक 'एक और द्रोणाचार्य' लिखा है जिसमें उन्होंने शिक्षकों की उस समय की स्थिति को वर्तमान संदर्भों में जोड़ा है। महाभारत भले ही मिथक हो, लेकिन यह तत्कालीन समाज में शिक्षकों की दयनीय स्थिति को ही दर्शाता है।

ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय देशों में जब आधुनिक विश्वविद्यालयों की शुरूआत हुई तब दो‌ बातें कही गईं, पहली यह कि छात्रों को पूर्ण रूप से नि:शुल्क शिक्षा दी जाएगी और पूरी शिक्षा व्यवस्था राज्य के हाथ में होगी। दूसरी यह कि शिक्षकों को दूसरे पेशों से अधिक वेतन दिया जाएगा जिससे कि वे पूर्णतः आर्थिक संकटों से मुक्त होकर पठन-पाठन और शोधकार्य में लग सकें तथा छात्रों को अपने ज्ञान से समृद्ध कर सकें। लम्बे समय तक भारत में भी यह नीति लागू की गई। विश्वविद्यालय तथा विद्यालय के स्थायी शिक्षकों के वेतनमान में सुधार के लिए सत्तर के दशक के बाद लगातार विभिन्न वेतन आयोगों का गठन किया गया तथा उनकी अनुशंसाओं को लागू भी किया गया। हालांकि यह सफ़र बहुत आसान नहीं था। इसके लिए शिक्षकों को लम्बी लड़ाइयां भी लड़नी पड़ीं। इसके विपरीत उसी दौर में प्राइवेट और गैरसरकारी स्कूलों के शिक्षकों की हालत बद से बदतर होती गई। इनके वेतनमान का कोई ढांचा नहीं था। प्रबंधकों के मनमाफ़िक उन्हें वेतन मिलता था। उन्हीं की मनमर्जी से ही शिक्षकों की नियुक्ति और बहाली होती थी लेकिन नब्बे के दशक के आते-आते सम्पूर्ण शिक्षा जगत पर जैसे वज्रपात हुआ। सरकारें शिक्षा और स्वास्थ्य पर अपना बजट घटाने लगीं। सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त शिक्षा संस्थाओं से भी अपना ख़र्च स्वयं निकालने को कहा गया। इसका परिणाम यह हुआ कि इन शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण शुल्क में अत्यधिक वृद्धि की गई तथा धन उगाही के लिए इन स्कूल-कॉलेजों में अनेक स्ववित्तपोषित कोर्स आरंभ किए गए, जिसने छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों में वर्ग पैदा किया। जिसके फलस्वरूप किसी एक कॉलेज और विश्वविद्यालय में समान योग्यता वाले दो शिक्षक अलग-अलग वेतन पाते हैं। मुट्ठी भर स्थायी शिक्षकों को डेढ़ से दो लाख तक वेतन मिल जाता है। वहीं स्ववित्तपोषित कोर्स के शिक्षकों को 15 हज़ार से 35-40 हज़ार रुपये तक ही वेतन मिलता है। शिक्षा संस्थाओं को पूरी तरह से मुनाफ़ा कमाने का ज़रिया बना दिया गया। 1984-85 तक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में क़रीब-क़रीब शिक्षण शुल्क 1100-1200 सालाना था जबकि आजकल 40 हज़ार से 45 हज़ार तक की सालाना फीस सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में वसूली जा रही है। स्ववित्तपोषित शिक्षण संस्थाओं में तो यह फीस कई गुना ज़्यादा है।

आज हालात ये हो गए हैं कि सरकारी इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में भी सालाना फीस 4 लाख से 5 लाख रुपये तक फीस वसूली जा रही है, इतनी बड़ी लूट के बावजूद फंड की कमी का बहाना बनाकर शिक्षकों को कई-कई महीने तक वेतन नहीं दिया जाता। नब्बे के दशक तक अपराध और माफिया जगत से जुड़े लोग बड़े-बड़े ठेके लेते थे। ट्रांसपोर्ट कम्पनियां चलाते थे लेकिन आज स्थिति यह है कि ऐसे लोग बड़ी-बड़ी शिक्षण संस्थाएं, जिसमें स्कूल, काॅलेज, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज सभी हैं, खोल रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली, मेरठ तथा महाराष्ट्र तक इस तरह की शिक्षण संस्थाओं का जाल फैला हुआ है। अपनी दबंग राजनीति के कारण वे आसानी से प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं को खोलने का अधिकार हासिल कर लेते हैं। इससे उन्हें अत्यंत आर्थिक लाभ तो होता ही है साथ ही सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिलती है और राजनीति में प्रवेश करने का रास्ता सुगम हो जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपराध और माफिया से राजनीतिक बने हरिशंकर तिवारी, अमरमणि त्रिपाठी और ब्रजभूषण सिंह के पास बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान हैं। जिसमें डिग्री कॉलेज, आर्युवैदिक कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज और पॉलिटेक्निक कॉलेज सब कुछ है। उत्तर प्रदेश में 2019 में स्ववित्तपोषित शिक्षक महासंघ ने एक रिपोर्ट ज़ारी की थी, जिसके अनुसार उत्तर प्रदेश की उच्च शिक्षा में लगभग 90% हिस्सेदारी स्ववित्तपोषित (निजी) हाथों में है। सिर्फ़ 10% हिस्सेदारी ही सरकार के हाथों में है, जिन्हें सरकार द्वारा वित्त प्राप्त है। इनमें लगभग 15 हज़ार शिक्षकों के पद रिक्त हैं। रही बात 90% स्ववित्तपोषित शिक्षा की, तो इसमें कितने शिक्षकों के पद हैं? कौन शिक्षक पढ़ा रहा है? उसे कितना वेतन मिलता है? इन प्रश्नों का उत्तर न शासन के पास है,अन विश्वविद्यालयों के पास। इनमें से अधिकांश कॉलेज वर्तमान और भूतपूर्व सांसदों, विधायकों तथा अपराध जगत से जुड़े माफियाओं के पास हैं।

इस संबंध में महासंघ के एक पदाधिकारी डॉ. चतुरानन ओझा बतलाते हैं- "हालात इतने बदतर हैं कि कई शिक्षण संस्थाओं में मृत लोग भी प्रधानाचार्य तथा शिक्षक के रूप में अनुमोदित हैं। 2018 में इस तरह का एक प्रकरण आगरा विश्वविद्यालय, आगरा में प्रकाश में आया था। आगरा विश्वविद्यालय आगरा के रिकॉर्ड के अनुसार डाॅ० आर‌ के उपाध्याय : जिनकी मृत्यु दो महीने पहले हो चुकी थी, वे 12 स्ववित्तपोषित कॉलेजों में प्राचार्य,16 बीएड कॉलेजों में और लगभग 20 स्ववित्तपोषित कॉलेजों में समाजशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में अनुमोदित हैं। यही नहीं आगरा विश्वविद्यालय,आगरा ने वार्षिक परीक्षा 2018 में इस स्वर्गवासी को लगभग दर्जनों कॉलेजों में शुचितापूर्ण और नकलविहीन परीक्षा कराने की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए केंद्राध्यक्ष भी नियुक्त कर दिया था।"

यह ख़बर डीएलए न्यूज़ सहित उस समय के सभी समाचारपत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। आज तो स्थितियाँ और भी बद से बदतर हुई हैं।

2 दिसम्बर 2002 में संविधान में 86वाँ संशोधन किया गया था और अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया। इस मूल अधिकार के क्रियान्वयन हेतु बर्ष 2009 में नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम बनाया गया।

इसके अंतर्गत बड़े पैमाने पर स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति होनी थी तथा बड़े पैमाने पर अस्थायी शिक्षामित्रों की नियुक्ति होनी थी, जो घर-घर जाकर छात्रों को स्कूल लेकर आएँ, परन्तु यह सर्वशिक्षा अभियान केवल जुमला ही बनकर रह गया, क्योंकि प्रदेशों में स्थायी की नियुक्ति न के बराबर हुई तथा उनके स्थान पर जिन अस्थायी शिक्षामित्रों की नियुक्तियाँ हुईं भी, तो उन्हें शिक्षा के बजट में कमी के कारण कई-कई महीने वेतन ही नहीं मिलता था। कोविड महामारी के स्थितियाँ और बदतर हो गईं। ढेरों स्कूल बंद हो गए। बेरोज़गार शिक्षकों की फौज़ खड़ी हो गई। वर्तमान शासन व्यवस्था में ये स्थितियाँ अपने चरम पर पहुँच गईं। एक ओर बड़े कॉरपोरेट तथा विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में कैम्पस खोलने की अनुमति दी जा रही है, दूसरी ओर अनुदानप्राप्त विश्वविद्यालयों के फंड में लगातार कटौती की जा रही है। शिक्षा का

कॉर्पोरेटीकरण और भगवाकरण आज शिक्षा जगत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन गया है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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