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हिमालयी राज्यों के बीच स्वास्थ्य पर सबसे कम ख़र्च करने वाला राज्य है उत्तराखंड

स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च करने के मामले में उत्तराखंड हिमालयी राज्यों में सबसे निचले स्थान पर है मगर सरकारों को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता|
हिमालयी राज्यों के बीच स्वास्थ्य पर सबसे कम ख़र्च करने वाला राज्य है उत्तराखंड
फोटो साभार : अमर उजाला

पहाड़ी राज्य उत्तराखंड ने स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में अन्य हिमालयी राज्यों के मुक़ाबले उत्तराखंड अपने हाथ बांधे हुए है। हालहीं में एसडीसी (सोशल डेवलपमेंट फ़ॉर कम्युनिटी) फाउंडेशन के द्वारा किये गए अध्ययन में बताया गया है कि हिमालयी राज्यों की श्रेणी में, उत्तराखंड सरकार के द्वारा जन स्वास्थ्य पर कुल राजस्व और कुल स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट का सबसे कम हिस्सा खर्च किया जाता है।

प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष जन स्वास्थ्य व्यय में भी उत्तराखंड का हिमालय राज्यों में आखिरी स्थान था| उत्तराखंड हिमालयी राज्यों में न सिर्फ प्रति व्यक्ति सबसे कम धनराशि जन स्वास्थ्य पर खर्च करता है, बल्कि अन्य राज्यों की तुलना में कुल राजस्व खर्च (Revenue Expenditure) और कुल स्टेट डॉमेस्टिक प्रोडक्ट (GSDP) का सबसे कम हिस्सा भी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है।

अध्ययन में जन स्वास्थ्य पर किये जाने वाले खर्च के मामले में राज्य के प्रदर्शन को रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के स्टेट फाइनेंस के आंकड़ों का विश्लेषण कर उजागर किया गया है। फाउंडेशन ने इसके लिए तीन पैरामीटर का इस्तेमाल किया-

1- जन स्वास्थ्य पर कुल राजस्व खर्च का कितना प्रतिशत खर्च किया जा रहा है?

2- जन स्वास्थ्य पर जीएसडीपी का कितना प्रतिशत खर्च किया जा रहा है?

3- जन स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति कितना खर्च किया जा रहा है?

विश्लेषण के नतीजे क्या दर्शाते हैंI

इस विश्लेषण में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर (असम को छोड़कर) सहित अन्य हिमालयी राज्यों के साथ उत्तराखंड की तुलना की गई। उत्तराखंड तीनों मापदंडों में सबसे नीचे पायदान पर मिला। यानी कि राज्य ने जम्मू-कश्मीर, पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों की तुलना में जन स्वास्थ्य पर सबसे कम पैसा खर्च किया है। यह अध्ययन 2019 और 2020 के भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट को आधार बनाकर किया गया है|

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आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019-2020 में उत्तराखंड ने जन स्वास्थ्य पर अपने कुल राजस्व खर्च का 6.8 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया, जो हिमालयी राज्यों में सबसे कम है। जम्मू-कश्मीर ने इस दौरान अपने राजस्व खर्च का 7.7 प्रतिशत, पूर्वोत्तर राज्यों ने औसतन 7.5 प्रतिशत और पड़ोसी हिमाचल प्रदेश ने 7.6 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया है| 

इतना ही नहीं उत्तराखंड ने जन स्वास्थ्य पर राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का भी सबसे कम 1.1 प्रतिशत खर्च किया। जबकि, जम्मू-कश्मीर ने 2.9 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश ने 1.8 प्रतिशत और पूर्वोत्तर राज्यों ने 2.9 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया है|

उत्तराखंड ने 2017 से 2019 तक प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं पर हिमालयी राज्यों में सबसे कम खर्च किया हैं, स्वास्थ्य सेवाओं में हिमालयी राज्यों में अरुणाचल प्रदेश ने तीन वर्षों में सबसे ज्यादा 28,417 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च किये। जबकि उत्तराखंड ने मात्र 5,887  रुपये खर्च किये। यहां तक कि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश ने भी इस मद में उत्तराखंड से 72 प्रतिशत ज्यादा खर्च किया था|

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राज्य में स्वास्थ्य विभाग में विभिन्न स्तरों पर भारी संख्या में पद खाली पड़े हैं।

उत्तराखंड में स्वास्थय सुविधाओं को लेकर सरकार की गंभीरता का अंदाजा स्वास्थ्य सेवाओं में बड़ी संख्या में रिक्त पड़े पदों की संख्या से लगाया जा सकता है। राज्य का गठन हुए करीब 21 साल हो चुका है। परन्तु आज भी आमजन स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त करने से दूर हैं और छोटी-छोटी बिमारियों के ईलाज के लिए देहरादून  हल्द्वानी जाना पड़ता हैं|

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इसके साथ ही जानकरों के मुताबिक राज्य में पलायन का एक मुख्य कारण पहाड़ी क्षेत्रों में उचित स्वास्थ्य सुविधाओं का ना होना भी हैं| 

सरकारी आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2021-22 के बजट के अनुसार स्वस्थ्य विभाग में राजपत्रित और अराजपत्रित दोनों को मिलाकर कुल 24451 पद है, जिनमे से 8,242 पद रिक्त है जो कुल पदों का लगभग 34 प्रतिशत है|

इसी प्रकार RHS (RURAL HEALTH STATISTICS) 2019-20 के आकड़ो पर गौर करें तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र में कुल 1839 सब सेंटर हैं, जिन में से 543 सब सेंटर ऐसे है जिन के पास  अपनी बिल्डिंग नहीं है, कुल 257 प्राइमरी हैल्थ सेंटर में से 30 ऐसे है, जिन के पास अपनी बिल्डिंग नहीं है|

इस के साथ ही यदि इन सेंटरों के स्टाफ़ की बात करे तो 56 कम्युनिटी हैल्थ सेंटरों (CHC) में स्पेसलिस्ट के कुल 236 पद स्वीकृत है, जिस में से 204 पद अभी रिक्त है, जो स्पेसलिस्ट के कुल पदों का 86 प्रतिशत है।

जबकि नियम यह है कि प्रत्येक CHC में चार स्पेस्लिस्ट होने चाहिए, वहीँ  उत्तराखंड एक भी ऐसा CHC नहीं हैं कि जिसमे चार स्पेस्लिस्ट कार्यरत हो| इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्र के CHC में रेडियो ग्राफर के लिए कुल 56 लोगो की जरूरत है लेकिन केवल 9 पदों पर ही नियुक्ति है बाकि के 47 पद ख़ाली पड़े है|

इसी प्रकार ग्रामीण PHC और CHC में लेबोरेटरी टेक्निशयन के लिए कुल 313 लोगो की आवश्यकता है, लेकिन केवल 61 पदों पर नियुक्ति है बाकि के 252 पद खाली पड़े है| इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में PHC और CHC में नर्सिंग स्टाफ़ के भी 649 पदों की आवश्यकता के बावजूद  406 पद रिक्त है| इसके साथ ही यह रिपोर्ट बताती हैं कि वर्तमान में उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में 78 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (PHC) होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल अभी 38 हैं यानि करीब वर्तमान PHC से दुगने से अधिक यानि कि 40 और PHC होने चाहिए | 

नीति आयोग द्वारा जून 2019 में विश्व बैंक और केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ मिल कर एक रिपोर्ट जारी की गयी,जिसका नाम है.“हेल्दी स्टेट्स,प्रोग्रेसिव इंडिया”. नीति आयोग के इस हेल्थ इंडेक्स में उत्तराखंड उन राज्यों में शामिल था जिन्हें “लीस्ट परफार्मिंग स्टेट” यानी न्यूनतम प्रदर्शनकारी राज्य कहा गया|

आयोग की रिपोर्ट में उत्तराखंड उन राज्यों में शामिल है, जिन्होंने स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में कोई ख़ास सुधार नहीं किया है| रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में उत्तराखंड स्वास्थ्य सूचकांक में 21 राज्यों में 15वें नंबर पर था और 2017-18 में दो स्थान नीचे खिसककर 17वें स्थान पर आ गया है|  

कमज़ोर स्वास्थय सेवाओं के नतीज़े क्या हैं?

RHS 2019-20 के अनुसार उत्तराखंड राज्य में IMR (Infant Mortality Rate) या शिशु मृत्यु दर (1000 नए जन्मे बच्चों में ऐसे बच्चे जिनकी मृत्यु एक साल के भीतर हो जाती है) कुल 31 है, जो ग्रामीण क्षेत्र में 31 और शहरी क्षेत्र में 29 है। जबकि पड़ोसी राज्य हिमांचल की बात करे तो कुल शिशु मृत्यु दर 19 है जो ग्रामीण क्षेत्र में 20 और शहरी क्षेत्र में 14 है|

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आकड़ो से साफ नजर आता है कि बेहतर स्वास्थय सुविधा या सरकार के द्वार स्वास्थय सेवाओं पर कम खर्च के कारण उत्तराखंड में  IMR पड़ोसी राज्य हिमाचल की तुलना में कितना अधिक है| आये दिन राज्य में खबर सुनने को मिल जाती है कि सुविधाओ के आभाव के कारण समय पर इलाज न मिल पाने के कारण प्रसव के दौरान महिला की मौत हो जाती हैं, और पहाड़ों में सड़कों पर अक्सर दुर्घटनाये होती रहती, इन दुर्घटनाओं में घायलों का समय से सही उपचार न होने के कारण मौत हो जाती है, ये सब राज्य में कमज़ोर स्वास्थय सेवाओं के कारण ही है|

एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि जन स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में हम पिछड़ रहे हैं। राज्य सरकार को अब जन स्वास्थ्य को पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। वे कहते हैं कि कोविड महामारी ने हमारे सामने जो चुनौतियां खड़ी की हैं, उसके बाद यह मसला न सिर्फ सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गया है, बल्कि यह भी स्पष्ट हो गया है कि हमें जन स्वास्थ्य के ढांचे पर गुणात्मक तरीके से और  ज्यादा खर्च करके इसे और मजबूत बनाने ही जरूरत है।

इसके साथ ही एसडीसी फाउंडेशन के रिसर्च एंड कम्युनिकेशंस हेड ऋषभ श्रीवास्तव कहते हैं, अब समय आ गया है,की  सरकार को इन आंकड़ों को करीब से देखना चाहिए और अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए विशेषज्ञों के साथ जुड़ना चाहिए। वे कहते हैं कि जन स्वास्थ्य में निरंतर ज्यादा खर्च करने वाले राज्य ही सुरक्षित और सतत विकास सुनिश्चित करने में बेहतर तरीके से सक्षम बन रहे हैं। आने वाले समय में  उत्तराखंड में भी स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की आवश्यकता है।

सोशल एक्टिविस्ट पुरोषत्तम बड़ोनी बताते है कि स्वास्थय सेवाओं में सरकार के द्वारा खर्च को कम करना वर्तमान सरकार की एक सोची समझी साज़िश है| सरकार प्राइवेट हॉस्पिटलो को बढ़ावा देना चाहती है, सरकार जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहती ताकि भविष्य में जब जनता  सरकार से, स्वास्थय सेवाओं में हो रही परेशानियो के बारे में शिकायत करे तो सरकार यह कहकर अपना पल्ला झाड़ ले कि इस में सरकार क्या कर सकती है सभी हॉस्पिटल तो प्राइवेट है सरकार का इन पैर कोई नियंत्रण नहीं है, हम सभी लोगो ने देखा कि हालही में कोरोना के दौरान प्राइवेट हॉस्पिटलों में जो लूट मची थी वह सीधे-सीधे राज्य की बदहाल स्वास्थय सेवाओं की पोल खोलती है|

जिन राज्यों का स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च अधिक है, वे कोविड मैनेजमेंट भी ज्यादा बेहतर तरीके से कर पाये| उत्तराखंड की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं की मार आम लोगों पर समय-समय पर पड़ती रहती है| आंकड़े भी राज्य की बदहाल स्वास्थय व्यवस्था की गवाही देते रहते हैं| परंतु ऐसा लगता है,जिन पर स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने का जिम्मा है, उन्हें न लोगों की तकलीफ से कोई फर्क नहीं पड़ता है और न ही आंकड़ों में फिसड्डी सिद्ध होने पर कोई अफसोस| कोरोना काल में हमने देखा कि ऑक्सीजन और बेड की कमी के कारण किस प्रकार जनता बेहाल थी| इसी से सीख लेते हुये सरकार को जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को पूरा करना चाहिए|

लेखक देहरादून स्थित एक सामाजिक कार्यकर्ता है|

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