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क्यों प्रत्येक भारतीय को इस बेहद कम चर्चित किताब को हर हाल में पढ़ना चाहिये?

खोजी पत्रकार जोसी जोसेफ के द्वारा लिखित द साइलेंट कूप से खुलासा होता है कि भारतीय डीप स्टेट कैसे अपने आवरण में काम करता रहता है।
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चित्र साभार: न्यूज़लॉन्ड्री 

जैसे ही यह वर्ष अपने समापन की ओर अग्रसर था, कि इस बीच नागालैंड में एक ढीले-ढाले सैन्य अभियान ने इसके समापन को हथिया लिया है। इसके साथ ही इस साल एक किताब भी चुपके से सामने आई है। जहाँ एक तरफ यह वर्ष का सर्वश्रेष्ठ भारतीय गैर-उपन्यास है, वहीँ इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले भारतीय दशक की यह सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक साबित हो। यह खोजी पत्रकार जोसी जोसेफ की द साइलेंट कूप है, जो पढ़ने में बेहद रोचक है लेकिन कोई भी इस बारे में बात नहीं कर रहा है।

द साइलेंट कूप एक महत्वपूर्ण तर्क को पेश करता है जब यह इस बात को कहता है कि आतंक के खिलाफ अमेरिकी युद्ध ने ऐसे दर्जनों अनुदार लोकतंत्रों एवं निरंकुश देशों को अपने लिए असुविधाजनक लोगों पर क्रूर कार्यवाई को अंजाम देने के लिए आवश्यक बचाव मुहैया कराने का काम किया है। यह इस बात को रेखांकित कर पाने में बेहद सफल रहा है कि इस महान खेल को भारत में कैसे खेला जा रहा है, जिसके लोकतंत्र को इसके द्वारा लगातार गहरे स्तर पर चुनौती दी जा रही है।

इस पुस्तक के आरंभिक स्वागत के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता सुब्रमण्यम स्वामी के एक ट्वीट, जिसमें उनकी टिप्पणी थी कि पुस्तक अद्वितीय है, लेकिन डीप स्टेट की छाया तो दुनियाभर में पाई जा रही है, के बाद चारों तरफ सन्नाटा पसर गया है। लेकिन हम दुनिया नहीं हैं। हम भारत हैं, एक ऐसा राष्ट्र जो अपनी सुरक्षा एजेंसियों को राजनीतिक आकाशगंगा से बाहर बनाये रखने में गर्व महसूस करता है। द साइलेंट कूप राजनीतिक आकाओं द्वारा लोकतंत्र का दुरूपयोग करने के लिए गैर-सैन्य उपायों, जैसे कि प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, पुलिस और आयकर विभाग का बेहद ख़ामोशी से इस्तेमाल कर लेने की महारत हासिल करने वाली कठोर वास्तविकता के खिलाफ प्रत्येक भारतीय के दिली विश्वास को दर्शाता है।

जोसेफ लिखते हैं कि उस दौरान उन्हें द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के ऑनलाइन संस्करण में भारत-पाक मामलों को संभालने का कार्यभार सौंपा गया था। कुछ ही दिनों के भीतर इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक परिचित ने उनसे संपर्क साधा, जो उन्हें मासिक रिटेनर के तौर पर भुगतान करना चाहते थे। यह अनुचर बने रहना इस बात को सुनिश्चित करने के लिए था ताकि ‘हमारा दृष्टिकोण आपके प्रयासों में नजर आना चाहिए।’

द साइलेंट कूप न सिर्फ आपको गुजरात के भाजपा नेता हरेन पंड्या के बारे में सोचने के लिए मजबूर करता है, जिन्होंने अपनी पार्टी को बचाने की कोशिश में अपना राजनैतिक कैरियर कुर्बान कर दिया। यह पाठक को उस विकल्प के बारे में भी सोचने के लिए मजबूर करता है जो एक पुलिस अधिकारी विनोद भट्ट ने एक गरीब व्यक्ति को आतंकवाद के आरोपों में झूठ-मूठ फांसने और खुद को मार डालने के फैसले के बीच किया था। भट्ट ने अपने धर्म को चुना और उस गरीब व्यक्ति को आखिरकार आजादी मिल गई। इस बीच दादर के तिलक ब्रिज के नीचे रेल की पटरियों पर भट्ट के शरीर के गिरने के धमाके ने मुंबई को यकबयक बदल कर रख दिया था।

द साइलेंट कूप दुनियाभर में ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने वालों और उनके मुखबिरों के बीच की गतिशीलता को समझने के लिए और उनके भारतीय अध्याय में मौजूद विकृतियों की जांच के मामले में बेहद प्रासंगिक है। यह किताब न सिर्फ एक औसत भारतीय को इस माह की शुरुआत में मोन, नागालैंड में क्या हुआ था, उसे समझने में मदद करता है, बल्कि इसमें पूर्व के अज्ञात उपाख्यानों को भी साझा किया गया है जो उस समाज और राज्य जिसमें हम रहते हैं, के बारे में एक स्थूल प्रतिबिंब प्रदान करते हैं। उदहारण के लिए, समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट के दिन, झूठे आतंक का आरोपी अब्दुल वाहिद शेख अपने दैनिक हाजिरी लगाने के लिए आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) के कार्यालय में रिपोर्ट करने के लिए गया हुआ था। वहां पर उसने पाया कि पुलिस के अधिकारी मिठाइयाँ बाँट रहे थे, जो जाहिर तौर पर बमबारी का जश्न मना रहे थे। 

जोसेफ लिखते हैं, “एक ख़ुफ़िया एजेंसी के एक पूर्व प्रमुख, जिन्होंने इस ग्रुप [अभिनव भारत] की गतिविधियों की जाँच की थी, ने कहा था कि यह आईडिया 2003 में किसी समय जन्मा था, और निश्चित रूप से यह काम ख़ुफ़िया एजेंसियों में से ही किसी एक का किया-धरा था। महत्वपूर्ण तौर पर, उनका यह भी मानना था कि यह रणनीति किसी विदेशी देश के द्वारा प्रेरित की गई थी, जिसके साथ सरकार की बहु-प्रचारित आत्मीयता बनी हुई थी।” कोई भी इस बात से हैरत में पड़ सकता है, कि इस देश के साथ वर्तमान में हमारे संबंधों की स्थिति क्या है? इसके अलावा, जिस आरडीएक्स को अभिनव भारत के बम धमाकों में इस्तेमाल किया गया था, वह सेना के स्टोर से नहीं आया था। और न ही कई तथाकथित हिंदुत्व आतंकी मामलों में शामिल “मुख्य साजिशकर्ता” कर्नल पीएस पुरोहित की इन स्टोर्स तक पहुँच थी। तो ऐसे में आखिर आरडीएक्स कहाँ से आ सकता था?

एक मार्मिक खुलासे में, वाहिद को जब एक स्पाइसजेट की फ्लाइट में ले जाया जा रहा था तो एक एयरहोस्टेस उसके पास आई और, “जैसे ही वह उसके सामने खाने की ट्रे रखने के लिए झुकी, तो उसने धीरे से पूछा: ‘क्या आपने वास्तव में उस बम धमाके को अंजाम दिया था?’ वाहिद ने उल्टा सवाल किया, ‘मैडम, क्या यह मेरे चेहरे पर लिखा देख रही हो आप? क्या मैं आतंकवादी दिख रहा हूँ? उसने कहा नहीं, और इसीलिए वह उनसे पूछ रही थी। इस बीच, एक अन्य परिचारिका पुलिस वालों को खुश करने में लगी हुई थी..।” यह देखकर कोई भी सोच में पड़ सकता है कि ये महिलाएं कौन थीं। उन्हें उम्मीद करनी चाहिए कि द साइलेंट कूप उन तक पहुंचेगी; उन्हें इसे पढ़ना चाहिए।

किताब में लिखा गया है कि सरकार ने गोल्डन टेम्पल की घेराबंदी करने के लिए बिहार रेजिमेंट के जवानों को भेजा था, जहाँ चरमपंथी सिख छिपे हुए थे। जोसेफ लिखते हैं, “हालाँकि, यह सिखों का कोई मामूली गिरोह नहीं था- इसके बचाव का नेतृत्त्व मेजर जनरल शाबेग सिंह द्वारा किया जा रहा था, जो कि 1971 के बांग्लादेश युद्ध रणनीति के प्रमुख रणनीतिकारों में से एक थे।” किसी भी पाठक के लिए यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि बांग्लादेश युद्ध का एक नायक भला भारतीय राज्य के खिलाफ क्यों हो गया। हमारे अतीत की रुपरेखा की एक अन्य दिलचस्प याद तब आती है जब लेखक राजस्थान के मुख्य सचिव के अखबारों में खबरों का हवाला देते हुए कहते हैं कि बलवाइयों के शवों को पंजाब से आने वाली सिंचाई नहरों में फेंक दिया गया था, ताकि उनके राज्य में तिरोहित हो जाये।

हर किसी को इस किताब को इसके कश्मीर और 1987 के चुनावों वाले खंडों को पढ़ना चाहिए। इसमें जोसेफ ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि किस प्रकार से “गाँधी-अब्दुल्लाह के बीच में समझा जाने वाला अदूरदर्शी गठबंधन आधुनिक भारत में सबसे बड़ी गलतियों में से एक था।” पुस्तक में इस बात की चर्चा की गई है कि किस प्रकार से उग्रवादियों की तलाश में सुरक्षा बल आम कश्मीरियों के प्रति अमानवीय हो गए थे। जहाँ तक उग्रवादियों का संबंध है, उन्होंने हालाँकि प्राथमिक तौर पर हिन्दुओं और सुरक्षा बलों को अपने निशाने पर ले रखा था, किंतु उन्होंने भरतीय राज्य के प्रति हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवियों को भी अपने निशाने पर ले रखा था और उनकी हत्या की। इसे पढ़ते हुए शेर-ए-कश्मीर विश्वविद्यालय के फारसी विभाग की व्याख्याता डॉ शहनाज ज़हरा किरमानी की याद आती है। मूल रूप से वाराणसी की रहने वाली और लखनऊ के एक फ़ारसी डॉक्टरेट से उनका निकाह हुआ था। आतंकियों ने शहनाज़ को 1996 में श्रीनगर के परिसर में उनके मकान में गोली मारी थी, जिसके एक महीने बाद लखनऊ में उनकी मौत हो गई थी। उन्होंने कश्मीर विश्वविद्यालय अध्यापक संघ का चुनाव जीता था और वे भारत समर्थक थीं। किताब पर वापस लौटते हुए, जोसेफ इंगित करते हैं कि “इख्वान योजना बेहद सरल थी। सुरक्षा बलों ने पूर्व-उग्रवादियों को इस काम के लिए नियुक्त किया था, आम लोगों को आतंकित और जान से मारने का अधिकार दे रखा था, और बाद के दिनों में उन्हें राजनीति में शामिल होने दिया गया।” डीप स्टेट द्वारा कुछ इसी तरह की रणनीति वर्षों बाद नक्सल बेल्ट में भी अपनाई गई, और इसका भी परिणाम विनाशकारी रहा। 2005 में, जैसे ही माओवादी हिंसा भड़की, तो उस दौरान छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडुम का गठन किया, इसे हथियारबंद कर स्थानीय आबादी और माओवादियों के ऊपर छोड़ दिया।

किताब इस मामले में बेहद प्रभावी है कि कैसे इसके वृतांत में विविध आंकड़े एक साथ नजर आते हैं। “गुरूजी” के नाम से मशहूर, एक बेहद प्रभावशाली व्यक्ति, जिनका बड़े ताकतवर शक्तियों के बीच पैठ थी, के माध्यम से सुधा भारद्वाज की कैद भी एक ऐसा ही आख्यान है। इसके साथ ही, भीमा कोरेगांव मामले में उपयोग किये गए साइबर-हमले को जिस गहनता से इस्तेमाल में लाया गया है उसका विवरण दिमाग को हिलाकर रख देता है, और दुनियाभर के साइबर सुरक्षा में लगे पेशेवरों को खामोश बना देने के लिए काफी है।

एक और बात जो इस भारतीय पत्रकार की पुस्तक को असाधारण बना देती है, वह यह है कि यह धारणा की फाल्ट लाइनों को उजागर कर देती है। लेखक ने इंगित किया है कि श्रीलंका के लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम ने सबसे पहले आत्मघाती बमबारी के इस्तेमाल में महारत हासिल की थी, और जितनी संख्या में वे आत्मघाती बम हमलावरों को पैदा करने में सफल रहे हैं, उसे किसी के द्वारा नहीं लांघा जा सका है। इसी प्रकार, उन्होंने ध्यान दिलाया है कि “आतंक के खिलाफ भारत की जंग में अब तक के अद्वितीय साक्ष्य” असीमानंद का न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने हिंदी में लिखा और हस्ताक्षरित किया गया विस्तृत बयान दर्ज है। अभिनव भारत की जांच का विवरण देते हुए जोसेफ लिखते हैं, “यह कोई सामान्य पुलिसिया यातना के चलते जबरन कबूलनामा नहीं था।” 

जिस किसी ने भी इस किताब को पढ़ा होगा लगभग सभी ने कम से कम एक बार उन नग्न वृद्ध मणिपुरी महिलाओं की तस्वीर देखी होगी, जो भारतीय सेना से खुद को बलत्कृत करने के लिए चीख रही हैं। सुरक्षा एजेंसियों के दावे के मुताबिक 32 वर्षीय थांगजम मनोरमा मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का हिस्सा थीं। कुछ ही घंटों के भीतर उन्हें अगवा कर लिया गया, उनके साथ बलात्कार किया गया और उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। यही वजह थी कि पांच दिन बाद, बुजुर्ग मणिपुरी महिलाओं के एक समूह ने कांगला फोर्ट के बाहर प्रदर्शन किया, जो कि मेईती संप्रभुता की ऐतिहासिक गद्दी है, जहाँ असम राइफल्स का मुख्यालय मौजूद है। 

आजाद खान का मामला भी इसी प्रकार का था। पहले उसे मारा-पीटा गया और फिर मणिपुर के फोबकचाओ महा लीकाई गांव में उसके परिवार की आँखों के सामने उसके घर के पास के खेत में उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। हत्या के एक साल बाद, एक प्रथिमिकी में मेजर विजय सिंह बल्हारा को नामित किया गया था। इस प्राथमिकी ने 739 सैन्य कर्मियों को बल्हारा के पक्ष में याचिका दायर करने के लिए प्रेरित कर दिया। जोसेफ ने लिखा है कि “सेना में इस प्रकार के ट्रेड यूनियनवाद का नमूना देखना लगभग दुर्लभ है।” आजाद खान की उम्र मात्र 12 साल की थी। किताब में टिप्पणी की गई है कि सोहराबुद्दीन, उनकी पत्नी कौसर बी और सहयोगी प्रजापति के पुलिस द्वारा अपहरण कर लिए जाने के बाद, राज्य के गृह मंत्री का अचानक से पुलिस के क्राइम ब्रांच के फील्ड अधिकारियों के संपर्क में आने के सुबूत हैं। “उनकी ओर से फोन काल... 22 नवंबर से आने शुरू हो गए थे [...और] 29 नवंबर के आसपास आने बंद हो गए, जब कौसर बी का बलात्कार हो गया और उसकी हत्या हो गई।”

अपनी अलग वर्णन शैली के बावजूद, पुस्तक न्यायमूर्ति बीएच लोया और उनके सहयोगियों की मौत से प्रभावित होती है। इसी प्रकार, यह शीर्ष नौकरशाह बीके बंसल और उनके पूरे परिवार के लिए संवेदना पैदा करती है, जिन्होंने सामूहिक आत्महत्या का रास्ता अख्तियार किया था। जोसेफ एक खोजी पत्रकार के तौर पर एक सरसरी निगाह के बावजूद अवाक कर देने वाली दृष्टि पदान करते हैं। गुजरात मॉडल नामक अध्याय की शुरुआत करते हुए आप लिखते हैं, “2010 के अंत तक दिल्ली की हवा में कुछ जादुई सा अहसास तारी हो रहा था।” वे आगे लिखते हैं, “पत्रकारों के लिए, यह एक छोटे से स्वर्णिम दौर की शुरुआत हो रही थी, क्योंकि मुख्यधारा की मीडिया ने अचानक से सत्ता पर आसीन लोगों की जांच करने और ऐसी कहानियों को प्रकाशित करने के लिए अपनी रीढ़ खोज ली थी। तकरीबन चार साल तक यह दौर चला, जब तक नरेंद्र मोदी, जो भ्रष्टाचार विरोधी और सरकार विरोधी जन-भावनाओं की पीठ पर सवार होकर पूर्ण बहुमत और सत्तावादी कामकाजी शैली के साथ दिल्ली की सत्ता पर आसीन नहीं हो गये, जिसे उन मीडिया रिपोर्टों के द्वारा शुरू किया गया था।”

द साइलेंट कूप ने पिछली अनेकों आधी रोशनी वाली घटनाओं को एक छत के नीचे पूरी रोशनी में ला दिया है। इसकी जो सूरत दिख रही है वो इतनी महत्वपूर्ण है कि यह किताब प्रत्येक पत्रकार, इच्छुक सेवा कर्मी, हर वकील, किसान और फिल्म निर्माता के लिए एक आवश्यक पुस्तिका बन जाती है। इस पुस्तक का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जाना चाहिए। भारतीय सेना और पुलिस के लोगों को भी इसे पढ़ना चाहिए। तभी हर कोई इस बात पर विचार कर सकता है कि हमारा देश वास्तविक तौर पर कैसे काम करता है। यह विभिन्न एजेंसियों द्वारा तैयार की गई और मीडिया एवं फिल्म इंडस्ट्री द्वारा परोसी जाने वाली कहानियों पर भरोसा करने से पहले सोचने पर मजबूर कर देगा। हर किसी को इस पुस्तक के बारे में बात करनी चाहिए, उस संशयवाद को फैलाना चाहिए जिसे यह बढ़ाता है और इसे उन मूक आग्नेयास्त्रों की तुलना में तेजी से फैलाना चाहिए जो हमारे प्यारे लोकतंत्र की कोमलता को झुलसा देने के लिए धमका रहा है। 

लेखक मुंबई स्थित स्वतंत्र लेखक एवं फिल्म क्रिएटिव हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Why Every Indian Must Read this Hardly Talked About Book

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