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#MeTooके बहाने: कानून व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत

महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत आधार पर उठाए गए कदम निश्चित तौर पर एक बहादुराना कदम है लेकिन जो महिलाएँ विशेषाधिकार प्राप्त तबके सेनहीं हैं, उन लाखों महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए एक बड़े सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है।

#MeToo

हाल के हफ्तों में, #मीटू अभियान के द्वारा किए विरोधों ने मीडिया और बॉलीवुड की दुनिया को हिलाकर रख दिया हैI एक मामला एमजे अकबर का भी है जो राजनीति के क्षेत्र में हलचल मचा रहा है क्योंकि कई महिलाओं द्वारा उन पर जो आरोप लग रहे हैं वे उस दौर के हैं जब वे संपादक थे लेकिन अब वे मंत्री बन मोदी सरकार की शान बढ़ा रहे है। जो महिलाएं अपने उत्पीड़कों का नाम उज़ागर करने के लिए आगे आई हैं वे निस्संदेह बहादुर हैं और उन्होंने सार्वजनिक हित में अपनी सेवाएँ प्रदान की है।

लेकिन इससे परे भी एक विशाल दुनिया है जहां महिलाएं इस तरह के हिंसक उत्पीड़न को चुपचाप सहती हैं और एक अधीनता का जीवन जीती हैं। यह दुनिया में जीवन के सभी क्षेत्रों, घरों से शैक्षणिक संस्थानों, कारखानों और अन्य काम के क्षेत्रों और कार्यालयों तक फैली हुई है। वे अधीन हैं इसलिए क्योंकि पितृसत्तात्मक विचार और व्यवस्था गहराई से समाज में व्यापत है और ऐसी जगह व्यक्तिगत विद्रोह लगभग असंभव है। वे अपने दुख, पीड़ा और निर्भरता की वजह से भयभीत और अकेली हैं।

यह मांग करना नितांत रुप से अनुचित और अमानवीय होगा कि वे व्यक्तिगत रूप से #मीटू के तरीके से आगे बढ़े। इसलिए एक सामाजिक दख़ल की जरूरत है जो सामूहिक रूप से इस तरह के अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठा सके। और, इस तरह के विरोध में पुरुषों और महिलाओं दोनों की भागीदारी होनी चाहिए।

किसी भी सामूहिक विरोध का केंद्र शिकायत निवारण का तंत्र भी होना चाहिए जिसे वर्तमान में पुलिस और अदालतों के माध्यम से उपलब्ध करवाया जाता है। यह पहलू महिलाओं की अधीनता के पूरे मुद्दे का समाधान नहीं है, लेकिन यह निश्चित रूप से न्याय के लिए लड़ाई में मदद कर सकता है। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न महिलाओं के प्रति हिंसा के बड़े परिप्रेक्ष्य के भीतर एक विशिष्ट श्रेणी है।

और, यहां पर जिस तरह से हमारी कानूनी न्याय व्यवस्था महिलाओं द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर काम करती है उसमें एक घातक कमजोरी मौजूद है। भारत में महिलाओं के आंदोलन ने बार-बार इस बात की ओर इशारा किया है, एक बेहतर व्यवस्था के लिए लड़ाई की है, लेकिन चीजेंजितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी भी रहती हैं। आइए नीचे एक नज़र डालें।

यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून

2012 में निर्भया मामले के बाद, जब बड़ा प्रतिरोध होने के कारण, न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने 2013 में प्रासंगिक कानूनों में कई बदलावों की सिफारिश की थी। सरकार ने धारा 354 (शारीरिक शोषण के इरादे से महिलाओं पर हमला करना) को विस्तारित किया जिसमें अन्य के साथ धारा354 ए को जोड़ दिया जिसके जरीए यौन उत्पीड़न की व्याख्या की जाती है। एनसीआरबी के अनुसार 2014 और 2016 के बीच इस धारा के तहत पंजीकृत मामलों में 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

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2014 से पहले, जेनेरिक एस.354 लागू था। इस धारा के तहत कुल मामलों (2014 से जोड़े गए उप-वर्गों सहित) 2010 और 2016 के बीच 100प्रतिशत से अधिक बढ़ गए हैं। अन्य प्रावधान, s.509 (महीला की इज्ज़त का अपमान) ने मामूली डुबकी दिखाई है क्योंकि यौन उत्पीड़न के मामले अब धारा 354 ए के तहत दर्ज़ किए जा रहे है।

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यहां तक कि जब इतना अधिक महिलाएं यौन उत्पीड़न के बारे में अपनी शिकायत दर्ज कर रही हैं, पुलिस केस के पंजीकरण के मामले में और जांच कर (जिसके लिए स्पष्ट रूप से कोई आधिकारिक डेटा नहीं है) उन्हे आगे अदालतों में भेजने में काफी पीछे है। कई #मीटू शिकायतकर्ताओं की कहानियों से पता चलता है कि उन्हे  पुलिस का सामना करने कितनी कठिनाई हो रही हैं। जैसा कि नीचे दिखाया गया है, पुलिस स्टेशन पर प्रत्येक वर्ष इस तरह की मामलों का भार बढ़ रहा है जबकि दायर चार्ज शीट की संख्या 2016 में  मात्र 67 प्रतिशत (34816 मामलों में से 23416) है।

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जब अदालतों की बात आती है, तो स्थिति बेहद निराशाजनक है। जैसा कि नीचे तालिका में दिखाया गया है, 2016 में अदालतों में धारा 354 ए के तहत 73,774 मामले लंबित थे जोकि 2014 के 47,844 के आंकडे से ऊपर थे। इसमें पिछ्ले तीन वर्षों में 54 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुयी है।

जांच समय पर पूरी होना और भी कम स्तर पर है। 2016 में, 73,744 में से 7665 लंबित मामलों में से केवल 10 प्रतिशत में जांच पूरी की गई थी। इस तरह के खराब और निराशजनक रिकॉर्ड के साथ यह आश्चर्य की बात नही है कि यौन उत्पीड़न के मामलों में महिलाओं को न्याय पाने के लिए कानूनी व्यवस्था में ज्यादा विश्वास नहीं है।

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और, इस देरी के परिणामस्वरूप, और शायद लापरवाही भरी जांच (इसलिए कमजोर अभियोजन पक्ष है), की वजह से सजा दर कम हो रही है – यह दुख की बात है कि पिछ्ले तीन वर्षों में यह पहले से भी कम यानि 34.5 प्रतिशत से घटकर 30 प्रतिशत हो गई है। दूसरे शब्दों में, यौन उत्पीड़न के मामलों में तीन में से दो आरोपी आज़ाद घुम रहे गए हैं।

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यह सब क्या दिखाता है कि कानून लोगों को विफल कर रहा है, यह समाधान नहीं कर रहा है, यह अपने दायरे में बहुत सीमित है और इसका कार्यान्वयन बहुत निराशाजनक है, यहां तक कि यह द्वेषपूर्ण है। मज़बूर  महिलाओं को #मीटू अभियान के जरीए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना बेहतर लगता हैं। लेकिन बाकी महिलाओं के लिए, ऐसा कोई विकल्प नहीं है।

बद्लाव आ सकता है लेकिन शर्त यह है कि सामूहिक सामाजिक गठबंधन यौन हिंसा और शोषण की शिकार महिलाओं की रक्षा में खड़ा हो। इसकी मांग बेहतर कानून और उन्हे अधिक मुस्तैदी से लागू करने की होगी। लेकिन इस सामाजिक आंदोलन को हिंसा के मुद्दे के साथ-साथ महिलाओं के रोजगार, समान वेतन और अन्य अधिकारों के बड़े सवालों से जोड़ना जरूरी है केवल तभी काम करने वाले लोगों के हिस्से के रूप में महिलाओं का असली सशक्तिकरण हो सकता है।

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