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विश्लेषण: कोवैक्स का भ्रम, मोदी सरकार की झूठी कवायद और वैक्सीन को लेकर हाहाकार

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया की 50 फ़ीसदी से अधिक आबादी के पास वैक्सीन का 83 फ़ीसदी जखीरा है और दुनिया की शेष 50 फ़ीसदी आबादी के पास केवल 13 फ़ीसदी हिस्सा है। यानी ख़तरनाक किस्म की असमानता। 
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अगर आप न्यूज़क्लिक के लेखों और वीडियो के निरंतर पाठक और दर्शक हैं तो आपने जरूर देखा होगा कि प्रबीर पुरकायस्थ और सत्यजीत रथ की जोड़ी ने कई बार यह बात कही थी कि यकीनन वैक्सीन बनाना बहुत मुश्किल काम है लेकिन इससे भी ज्यादा मुश्किल काम दुनिया में इसका सही ढंग से बंटवारा करना है। इस तरह का बंटवारा कि सभी देशों तक जरूरी मात्रा में वैक्सीन पहुंच पाए। एक बार जब वैक्सीन बन जाएगा उसके बाद अमीर देशों और वैक्सीन कंपनियों का वह कुरूप चेहरा सामने आएगा जो हर वक्त मौजूद रहता है लेकिन साफ तौर पर दिखता कभी-कभार है। 

 असल में बात यह है की कोरोना वायरस की प्रकृति ही ऐसी है कि यह पूरी दुनिया में फैल चुका है। दुनिया के किसी भी कोने में अगर बड़ी मात्रा में उसकी मौजूदगी रहेगी तो मतलब यह है कि पूरी दुनिया कोरोना के संक्रमण के खतरे में रहेगी। कब कहां से फैल जाए इसकी आशंका हमेशा बनी रहेगी। इसलिए दुनिया की बेहतरी के लिए सबसे अच्छा तरीका यह होता कि दुनिया महामारी से निपटने के लिए पूरी दुनिया को ग्लोबल यूनिट के तौर पर मानती। दुनिया का बंटवारा भारतनेपालअमेरिकाअफ्रीका में करके न देखा जाता।  इस हिसाब से पूरी दुनिया को मिलकर साझा प्रयास करना चाहिए था। साझी संस्था होनी चाहिए थी।

 दुनिया में सबसे तंग इलाका कौन हैसबसे अधिक खतरा किस उम्र के लोगों को हैकिन जगहों पर कोरोना के फैलने की संभावना सबसे अधिक हैइस तरह के पैमानों के आधार पर वैक्सीन का बंटवारा करना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

 हुआ यह कि दुनिया के सामने यह भ्रम पैदा करने के लिए कि दुनिया के अमीर और सशक्त देश दुनिया के गरीब मुल्कों का भी ध्यान रखते हैं इसलिए कोवैक्स नाम की एक संस्था बनी। Covax यानी द  covid-19 ग्लोबल एक्सेस इनीशिएटिव। 

 लेफ्ट और समाजवादी रुझान रखने वाली अमेरिका की जैकोबिन पत्रिका में कोवैक्स पर एक लेख छपा है। जिसका सार है कि दुनिया के अमीर मुल्कों ने मिलकर डब्ल्यूटीओ में मेडिकल क्षेत्र से जुड़े पेटेंट के कानून को महामारी के दौरान निरस्त नहीं करवाया। बल्कि यूरोप यूनाइटेड किंगडम कनाडा ऑस्ट्रेलिया जैसे मजबूत मुल्क अपने देश की मेडिकल क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों के अकूत मुनाफे को बचाए रखने के लिए डब्ल्यूटीओ में पेटेंट के कानून को बचाए रखने की पैरवी कर रहे हैं। अगर पेटेंट का कानून भी है और कोवैक्स जैसी संस्था भी है। तो इसका मतलब यह है कि पूरी दुनिया को यह दिखाना है कि हम गरीब मुल्कों की मदद के लिए कोवैक्स को कोरोना का वैक्सीन दे रहे हैं। और कोवैक्स के जरिए पूरी दुनिया के उन कोनों में भी कोरोना के वैक्सीन पहुंचा रहे हैंजो खुद से उत्पादन करने में सक्षम नहीं है। जबकि हकीकत यह है कि पेटेंट कानून की वजह से दुनिया की बहुत सारी वैक्सीन उत्पादन से जुड़ी कंपनियां वैक्सीन नहीं बना बना पा रही है। 

 इसे पढ़ेंपेटेंट बनाम जनता

 वैक्सीन न बनने की वजह से जितनी वैक्सीन दुनिया को इस समय चाहिएउतनी नहीं मिल पा रही है। कुछ अमीर देश जैसे अमेरिका, यूनाइटेड किंगडमकनाडाचीन  को छोड़ दिया जाए तो दुनिया के बहुत सारे मुल्क अपनी जरूरत के हिसाब से वैक्सीन ना होने की परेशानी से जूझ रहे हैं। अगर पेटेंट का कानून न होता तो कोवैक्स तक बड़ी मात्रा में वैक्सीन पहुंचता और कोवैक्स के जरिए पूरी दुनिया में वैक्सीन पहुंच रहा होता। 

 अब तक के हालात यह हैं कि दुनिया के 130 देशों में वैक्सीन का एक भी डोज नहीं पहुंचा है। जबकि अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अपने लोगों तक ठीक-ठाक संख्या में वैक्सीन पहुंचा चुके है। 

 दुनिया के अमीर मुल्क अपने देश के बच्चों को वैक्सीन पहुंचाने जा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष ने दुनिया के अमीर मुल्कों के इस कदम को नैतिक तौर पर भ्रष्ट आचरण कह कर संबोधित किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि दुनिया के अमीर मुल्कों की नैतिकता अजीब है। दुनिया के कई इलाकों में उन लोगों तक वैक्सीन नहीं पहुंची हैजो दिन रात एक कर के लोगों को बचाने का काम कर रहे हैं। कई गरीब मुल्कों के डॉक्टरहेल्थ वर्कर फ्रंटलाइन वर्कर को वैक्सीन नहीं मिली हैं। कई इलाकों के उम्र दराज लोग जिन पर कोरोना का सबसे अधिक खतरा है उन्हें वैक्सीन नहीं मिला है। ऐसे में अमीर मुल्क अगर बच्चों के लिए वैक्सीन बना रहे हैं तो इसे नैतिक तौर पर भ्रष्ट ही कहा जाएगा। 

 विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया की 50 फ़ीसदी से अधिक आबादी के पास वैक्सीन का 83 फ़ीसदी जखीरा है और दुनिया की शेष 50 फ़ीसदी आबादी के पास केवल 13 फ़ीसदी हिस्सा है। यानी खतरनाक किस्म की असमानता। 

 इन सारी बातों का क्या मतलब हैपहला तो यह की दुनिया ने ईमानदारी से ऐसा कोई साझा प्रयास नहीं किया कि दुनिया के गरीब मुल्कों को भी सही समय पर वैक्सीन मिल पाए और दूसरा यह की कोवैक्स नामक संस्था अभी तक काफी हद तक नाकाम रही है। उन कंपनियों के फायदे के लिए बनी है जो खूब लाभ कमाने के लिए कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी जैसी अवधारणाओं में इन्वेस्ट करते हैं। ताकि दुनिया जब भी सवाल पूछे तो वह बता कर भ्रम में डाल सकें कि वह अपना काम भी कर रहे थे और परोपकार भी कर रहे थे।

 अब आते हैं भारत पर। जहां यह लगता है कि भारत ने दूसरे देशों को वैक्सीन दी लेकिन हकीकत बिल्कुल अलग है। हकीकत यह है कि कोवैक्स जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था कई देशों के फंडिंग पर बनी है। भारत की सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में भी कोवैक्स का पैसा लगा है। इसलिए सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया बाध्य है कि वह पहले उन्हें वैक्सीन दे जिनका आर्डर पहले आया है और जिनसे पहले पैसा मिला है। और ऐसा कोई तरीका नहीं है कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया कोवैक्स से अपना करार तोड़ दे।

मोदी सरकार और सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के बीच के करार के महीने पहले अगस्त 2020 में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और कोवैक्स के बीच 100 मिलियन वैक्सीन देने का करार हो चुका था। उसके बाद सितंबर 2020 में कोवैक्स ने सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के साथ फिर से करार किया और यह करार भी 100 मिलियन वैक्सीन देने का था। 

 इस पर कोई अफरा-तफरी नहीं मची। क्योंकि बीच में मोदी सरकार इस नशे में डूब चुकी थी कि थाली बजाने के चलते भारत से कोरोना भाग गया है। इस मौके का फायदा नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री कहां छोड़ने वाले। वह भी खूब ढिंढोरा पीट रहे थे की आपदा के समय वह दूसरे देशों की मदद कर रहे हैं। 

 लेकिन जैसे ही महामारी का प्रकोप हिंदुस्तान पर मंडराने लगा। थाली पीटना और पिटवाना ऑक्सीजन की कमी से मरते हुए लोगों के कारण के रूप में तब्दील हो गयातब वैक्सीन के खराब प्रबंधन की पोल खुल गई। अगर सब कुछ सरकार के बस में होता   तो वह सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के करार को रोक देती। लेकिन नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चल रही भारत सरकार के बस में न यह पहले था और न अब है। 

दूसरे देशों को वैक्सीन पहुंचाने के नाम पर जो हुआ है वह केवल सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और कोवैक्स के बीच के करार का परिणाम है। इसमें नरेंद्र मोदी की कोई सहभागिता नहीं। उन्होंने केवल इसे भुनाकर पहले अपनी छवि चमकाई और कुछ नहीं और अब सवालों से भागने की कोशिश कर रहे हैं। 

 इन सभी बातों का कहीं से भी है मतलब नहीं है कि भारत को दूसरे देशों को वैक्सीन नहीं देना चाहिए। अगर बीमारी सरहदों को नहीं देखती तो बीमारी के उपचार के लिए भी सरहदों की बाधाएं नहीं होनी चाहिए। 

लेकिन समझने वाली बात यह है कि इस तरफ  ईमानदार कदम बढ़ाने के लिए सबसे जरूरी बात यह है कि पूरी दुनिया मिलकर महामारी के वक्त के लिए पेटेंट कानूनों से राहत पा ले। 

नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चल रही भारत की सरकार वैक्सीन उत्पादन की अपने सार्वजनिक क्षेत्र की तरफ ध्यान दें। इस समय केवल दो ही कंपनियां भारत में वैक्सीन उत्पादन कर रही हैं। जबकि भारत के पास 20 वैक्सीन उत्पादन केंद्र हैं। जो सरकारी मदद के अभाव में पूरी तरह से खाली बैठे हैं।

इसलिए प्रबीर पुरकायस्थ अपने लेख में लिखते हैं कि अगर भारत के सब टीका उत्पादन केंद्र काम करते तो भारत आसानी से अपनी टीका उत्पादन क्षमता अरब टीका तक बढ़ा सकता था और चालू वर्ष में ही जरूरी अरब से ज्यादा टीका खुराकें बना सकता था। इस तरहभारत आराम से अपनी लक्ष्य आबादी का पूरी तरह से टीकाकरण कर सकता था। इसके बावजूद दूसरे देशों को टीका भी दे सकता था। लेकिन ऐसा करने के लिए एक ऐसी सरकार चाहिए जो लोक कल्याण के मकसद से काम करती होजिसके दावे खोखले न होंजिसकी पूरी परियोजना महज अपनी छवि चमकाने और मीडिया मैनेज कर केवल चुनाव जीतने की न हो।

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