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अगर भारत में सरप्लस खाद्यान्न भंडार हैं, तो फिर लोग भूखे क्यों हैं ?

जिस देश को 107 देशों के विश्व भूख सूचकांक में 94वां स्थान हासिल हो, उस देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर नहीं कहा जा सकता है। यह अधिशेष (Surplus) स्टॉक इसलिए है,क्योंकि लोगों के पास क्रय शक्ति की कमी है।
खाद्यान्न भंडार

भारतीय बुद्धिजीवियों में साम्राज्यवादी पूंजीवाद के उन स्वयंसेवी तर्कों को गटक लेने की एक अविश्वसनीय प्रवृत्ति रही है,जिन तर्कों के आधार पर आमतौर पर उनका 'आर्थिक पांडित्य' बना होता है। यह पांडित्य किसी और क्षेत्र के मुक़ाबले भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में कहीं ज़्यादा नज़र आता है।

इन दिनों अख़बारों के संपादकीय पृष्ठ पर छपे ऐसे लेखों की भरमार है,जिसमें यह सुझाव दिया जाता है कि भारतीय किसानों को खाद्यान्न उत्पादन से ख़ुद को दूर करते हुए दूसरी फ़सलों की ओर रुख़ करना चाहिए, यह वास्तव में एक ऐसी मांग है, जिसे लेकर साम्राज्यवादी देश क़ाफी समय से लामबंद रहे हैं। वे चाहते हैं कि हम उनसे खाद्यान्न का आयात करें, जिनमें से एक अधिशेष उनके पास हो, ताकि घरेलू उत्पादन पर हमारी घरेलू मांग की अधिकता को पूरा किया जा सके। इस तरह की स्थिति हमें हरित क्रांति के पहले वाले दौर में वापस ले जायेगी। इस समय भारतीय बुद्धिजीवी तबके से जुड़े लोग विभिन्न तरीक़ों से इसी साम्राज्यवादी मांग को दोहरा रहे हैं, ताकि खाद्यान्नों की विविधता को ख़त्म किया जा सके।

कभी-कभी तो उनका तर्क यह भी होता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान ऐसे "अनाज जाल" में फंस जाते हैं, जहां वे उन अनाजों का उत्पादन करते ही चले जाते हैं, जो उनके लिए बहुत फ़ायदेमंद होते ही नहीं हैं और जिस वजह से अब देश के पास एक अधिशेष है, क्योंकि वे उस न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के प्रावधान के प्रलोभन में हैं, जो उनके जोखिम को कम कर दे रहा है।

कभी-कभी तो इस तर्क को अलग ही तरीक़े से पेश कर दिया जाता है: पंजाब और हरियाणा के किसानों को एमएसपी समर्थित गतिविधियों से दूर उन अन्य आकर्षक गतिविधियों की तरफ़ रुख़ करना होगा,जिसके लिए संभवतः बिना सोचे-विचारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तीन कृषि क़ानूनों के ज़रिये एक रास्ता बना रहे हैं।

विकसित देशों की मांग को दोहराते और मोदी सरकार का परोक्ष या अपरोक्ष रूप से समर्थन करने वाली यह पूरी की पूरी स्थिति भी किसानों के साथ होने वाले उसी तरह के अपमान को दर्शाती है,जिस तरह सरकार किसानों का तिरस्कार करती है; वे इस तरह के नज़रिये वाले अज्ञानियोंका एक ऐसा समूह हैं,जो यह नहीं देख सकता कि उनके लिए क्या कुछ अच्छा है, जो मोदी कर सकते हैं। लेकिन,आइये हम इन बुद्धिजीवियों के मक़सदों और पूर्वाग्रहों की अनदेखी करें और उनके तर्कों की बस थोड़ी सी जांच-पड़ताल कर लें।

इस बात से इन्कार नहीं है कि इस समय भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास बड़े पैमाने पर खाद्यान्न भंडार हैं और यह पिछले कई सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था की एक नियमित विशेषता बन गयी है। लेकिन, इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि भारत अपनी ज़रूरतों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न से कहीं ज़्यादा उत्पादन करता है, अव्वल दर्जे की नासमझी होगी।

जो देश 107 देशों के लिए तैयार किये गये विश्व भूख सूचकांक (world hunger index) के 94 वें स्थान पर है, अगर इसके पास अधिशेष स्टॉक है,तब भी उसे खाद्यान्न में आत्मनिर्भर नहीं कहा जा सकता है। यह कोई मनमाने तरीक़े से निकाला गया निष्कर्ष नहीं है। जब भी लोगों के हाथों की क्रय शक्ति बढ़ी है,स्टॉक में गिरावट आयी है। इसका मतलब यह है कि स्टॉक में यह बढ़ोत्तरी लोगों के हाथों की क्रय शक्ति में आयी कमी के कारण हुई है, इसलिए नहीं कि उनके पास उतने खाद्यन्न हैं,जितना कि उन्हें ज़रूरत है।

इसलिए,स्टॉक में बढ़ोत्तरी का यह समाधान नक़दी के हस्तांतरण के ज़रिये और मनरेगा (ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) के दायरे में विस्तार के ज़रिये लोगों के हाथों में क्रय शक्ति को डालना है। विडंबना तो यह है कि ऐसा करने से सरकार को कुछ भी ख़र्च नहीं करना पड़ेगा। मान लीजिए कि अगर सरकार इन नक़दी हस्तांतरण के लिए बैंकों से 100 रुपये का उधार लेती है, और अगर यह राशि,जो मेहनतकश लोगों के हाथ में आती है,उसे खाद्यान्न पर ख़र्च कर दिया जाता है, तो यह घूम-फिरकर एफ़सीआई में ही वापस आ जाती है।

बदले में,एफ़सीआई इस राशि को उन बैंकों को चुका देगी,जिनसे उधार लेकर उसने किसानो को खाद्यान्न ख़रीदने के लिए दिया था। चूंकि एफ़सीआई सरकार का ही एक हिस्सा है, इसका मतलब है कि सरकार का दाहिना हाथ बैंकों से (नक़दी हस्तांतरण के लिए) उधार लेगा, तो सरकार का बायां हाथ एफसीआई के ज़रिये उसे वापस भुगतान कर देगा; इसलिए, कुल मिलाकर सरकार की ऋणग्रस्तता में कोई शुद्ध वृद्धि नहीं होगी। लेकिन,क्योंकि सरकार के स्वामित्व वाली एफ़सीआई बजट के बाहर होती है (ऐसा सत्तर के दशक तक नहीं था), इसलिए ऐसा मान लेना कि बजट के राजकोषीय घाटे में वृद्धि होगी,यह पूरी तरह से असंगत है।

दूसरे शब्दों में, एक बार जब फ़सल को किसानों से खरीद लिया गया हो, तो इसे स्टॉक के बजाय लोगों के हाथों में सौंप देने से कोई बुरा असर नहीं पड़ता है,बल्कि इसके उलट कई कारणों से ऐसा करना बेहद फ़ायदेमंद होता है,क्योंकि यह भूख की समस्या का हल देता है, लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाता है और भंडारण की लागत को कम कर देता है।

हमने ऊपर यह मान लिया था कि लोगों के हाथों में आने वाली सभी क्रय शक्ति खाद्यान्नों पर ख़र्च कर दी जाती है; लेकिन, इसका एक हिस्सा चाहे अन्य वस्तुओं पर ख़र्च कर भी दिया जाता है, तब भी यह एक मांग से लाचार अर्थव्यवस्था में पूरी तरह से फ़ायदेमंद है। यह ठीक है कि इस मामले में एक प्रामाणिक अर्थ में राजकोषीय घाटा बढ़ेगा और पिछले मामले की तरह अप्रमाणिक तौर पर नहीं, बल्कि इससे कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके विपरीत,यह ग़ैर-खाद्यान्न क्षेत्रों का क्षमता उपयोग का स्तर बढ़ाते हुए अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की प्रक्रिया को भी प्रोत्साहित करेग।

लेकिन,अगर खाद्यान्न भंडार को उठाने के लिए लोगों के हाथों में क्रय शक्ति डालने के बजाय,इस समय खाद्यान्न का उत्पादन करने वाली ज़मीन को किसी अन्य चीज़ों के इस्तेमाल में लगा दिया जाता है, तो इससे लोगों को हमेशा के लिए व्यापक भूख के हवाले कर दिया जायेगा। चूंकि भूख के पीछे का असली कारण लोगों के हाथ में क्रय शक्ति की कमी का होना है, खाद्यान्न उत्पादन की जगह ज़मीन का इस्तेमाल दूसरी चीज़ों में करने से भूख को तभी कम किया जा सकता है, जब इस तरह के बदलाव से पहले के मुक़ाबले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर सृजित होने वाले कुल रोज़गार ज़्यादा हो।

अब,भले ही हम मान लें कि प्रति एकड़ रोज़गार समान रहता है, चाहे उतनी ही ज़मीन पर खाद्यान्न पैदा किया जाता हो या कोई दूसरी फ़सल उगायी जाती हो, तो ज़मीन के इस्तेमाल में इस तरह के बदलाव से भूख में कमी नहीं होगी, क्योंकि लोगों की क्रय शक्ति पहले ही की तरह बनी रहेगी। इसलिए,ज़मीन का इस्तेमाल खाद्यान्न की जगह किसी और चीज़ के लिए करना भूख कम किये जाने का रामबाण समाझान नहीं है, बल्कि असल समाधान लोगों के हाथों में क्रय शक्ति का देना है। और जहां तक इस तर्क का सवाल है कि किसान को कृषि-प्रसंस्करण की ओर बढ़ना चाहिए,इससे कोई इन्कार नहीं है, लेकिन इससे खाद्यान्न उत्पादन करने वाली ज़मीन में होने वाली कटोती के तर्क की पुष्टि नहीं होती है।

वास्तव में इस लिहाज़ से आम तौर पर एक बहुत ही ग़लत धारणा फैली हुई है। ग़लतफ़हमी यह है कि अगर खाद्यान्न फ़सलें पैदा की जाने वाली ज़मीन पर हासिल होने वाली आय,किसी दूसरी फ़सल उपजाये जाने वाली उतनी ही ज़मीन से हासिल होने वाली आय के मुक़ाबले कम है, तो खाद्यान्न की जगह दूसरी फ़सल पैदा करना फ़ायदेमंद माना जाता है। ग़लत धारणा इस तथ्य में निहित है कि प्रति एकड़ यह अर्जित आय समाज के लिए उतना मायने नहीं रखती है,बल्कि मायने यह रखता है कि ज़मीन के उत्पादन में आये इस तरह के बदलाव के ज़रिये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कितना रोज़गार पैदा होता है (यह मानते हुए कि खाद्यान्नों को बिना किसी समस्या के आयात किया जा सकता है, जो अपने आप में साम्राज्यवादी विश्व में एक पूरी तरह से ग़लत धारणा है)।

अगर प्रति एकड़ ज़मीन पर खाद्यान्न की जगह निर्यात की जाने वाली कुछ नक़दी फ़सलों के उत्पादन से किसी ज़मींदार किसान की आय दोगुनी हो भी जाती है,तो उतने ही एकड़ ज़मीन पर पैदा होने वाला रोज़गार घटकर आधा हो जाता है,जिसमें गुणक प्रभाव के ज़रिये जो नतीजा सामने आता है,वह भी शामिल है। ग़ौरतलब है कि गुणक प्रभाव अंतिम आय में बढ़ोत्तरी,या कमी की आनुपातिक राशि को दिखाता है,जो कि निवेश, या ख़र्च करने से वापस होता है। जब ऐसा होता है,तो भूस्वामी किसानों की उच्च आय भी उनके हाथ से निकल जाती है,ऐसा इसलिए होता है,क्योंकि वे कॉरपोरेट,जो निर्यात करने के लिए उन किसानों से ख़रीद करते हैं, वे चारों ओर की अभावग्रस्तता के कारण अपने ख़रीद मूल्य में कमी कर देंगे। इसलिए,यह प्रत्यक्ष आय लाभ नहीं होती है, बल्कि ज़मीन पर पैदा किये जाने वाले फ़सलों की प्रकृति में आये बदलाव का रोज़गार प्रभाव है,जिसे ध्यान में रखा जाना चाहिए (और इतना ही काफ़ी नहीं होता,बल्कि साम्राज्यवादी देश डरा-धमकाकर किसी देश को खाद्य-आयात-निर्भर देश बना देते हैं)।  

अगर भंडारण का समाधान लोगों के हाथों में क्रय शक्ति देने में निहित है,तो खाद्यान्न उत्पादन को लेकर किसानों को होने वाले फ़ायदे  में कमी का समाधान एमएसपी के बढ़ाये जाने और खाद्यान्न की ख़रीद की क़ीमतों में निहित है। निश्चित रूप से यह तर्क दिया जायेगा कि अगर एमएसपी और ख़रीद मूल्य बढ़ाये जाते हैं, तो इससे उपभोक्ताओं के लिए खाद्य क़ीमतें बढ़ जायेंगी; लेकिन यह एक हास्यास्पद तर्क है।

खाद्य सब्सिडी में बढ़ोत्तरी के ज़रिये निर्गम मूल्यों में वृद्धि किये बिना ख़रीद की कीमतें बढ़ायी जा सकती हैं। कोई भी अगर इस बुनियाद पर खाद्य सब्सिडी में होने वाली बढ़ोत्तरी पर आपत्ति जताता है कि सब्सिडी बिल को पूरा करने के लिए संसाधनों की कमी है, तो उसे याद दिलाने की ज़रूरत है कि समाज में किया जाना वाला कोई भी पुनर्वितरण, आय वितरण में सुधार का कोई भी प्रयास,किसी को सब्सिडी दिये जाने के लिए किसी पर कर लगाने की ज़रुरत पर भी बल देता है।

जो कोई भी किसानों की मामूली आय को रोना रोता है,मगर इसे दुरुस्त करने को लेकर राजकोषीय साधनों के उपयोग की वकालत करने को तैयार नहीं है, वह अपने नज़रिये में पूरी तरह बेईमान है, ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसा करना वास्तव में शायद अनजाने में एक साम्राज्यवादी एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए किसानों के लिए घड़ियाली आंसू बहाने जैसा है। और यह सब इस हक़ीक़त से काफी अलग बात है कि पहली नज़र में खाद्यान्न फ़सलों की जगह जिस ग़ैर-खाद्यान्न फ़सलों के उत्पादन को किसानों की आय बढ़ाने के आसान तरीक़े के तौर पर सामने रखा जाता है,उसकी हक़ीक़त तब पता चलती है,जब विश्व बाज़ार में इन फ़सलों की क़ीमतें अचानक लुढ़क जाती हैं, और फ़ायदा पहुंचाने वाली ये फ़सलें जब किसानों की तबाही की वजह बन जाती है। ऐसा इसलिए,क्योंकि अनिवार्य रूप से उन फ़सलों की क़ीमत व्यापक तौर पर उतार-चढ़ाव के हवाले होती हैं (जबकि इन उतार-चढ़ावों से एमएसपी प्रणाली किसानों का सुरक्षा देती है)।

दिल्ली की सीमाओं पर इकट्ठा हुए किसान इन सभी मुद्दों को मोदी या खाद्यान्न फ़सलों से दूरी बढ़ाने की वक़ालत करने वाले बुद्धिजीवियों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा स्पष्ट रूप से समझते हैं। विडंबना यही है कि उल्टे मोदी या ये बुद्धिजीवी ही है,जो कह रहे हैं कि किसान नासमझ हैं!

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Are People Going Hungry if India Has Surplus Foodgrain Stocks?

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